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    Home»Jharkhand Top News»मोदी मैजिक, नीतीश का पराभव और तेजस्वी का उदय
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    मोदी मैजिक, नीतीश का पराभव और तेजस्वी का उदय

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskNovember 12, 2020No Comments6 Mins Read
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    बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित किये जा चुके हैं। कांटे के मुकाबले में एनडीए एक बार फिर दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ानेवाले प्रदेश के शासन की बागडोर संभालने के लिए तैयार है। बिहार का चुनाव परिणाम इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसने पिछले छह साल से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मोदी मैजिक के असर को दोबारा स्थापित किया है। इसी मैजिक ने 15 साल से बिहार पर शासन कर रहे नीतीश कुमार को उस संकट से उबार लिया है, जिसमें उनकी नाव लगभग डूब चुकी थी। इसलिए इस चुनाव परिणाम ने यह भी साबित कर दिया है कि यह नीतीश कुमार की निजी पराजय है, भले ही भाजपा के साथ मिल कर उन्होंने सत्ता में बने रहने का जनादेश हासिल कर लिया है। बिहार के चुनावों ने तीसरा और सबसे बड़ा फैसला 31 साल के उस नौजवान को लेकर सुनाया है, जिसका नाम तेजस्वी यादव है। बिहार में लंबे अरसे के बाद तेजस्वी जैसा युवा नेता सामने आया है, जिसके पास नेतृत्व क्षमता भी है और सियासी दांव-पेंचों की समझ भी। इसके अलावा इस चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की दस्तक और वामपंथी दलों की मुख्य धारा में वापसी हुई है, जिससे सियासत के करवट लेने की संभावना बन गयी है। बिहार चुनाव परिणाम का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    बिहार विधानसभा चुनाव में इस कदर हैरत भरे नतीजे आयेंगे, इसकी अपेक्षा शायद ही किसी को होगी। इवीएम के दौर में, जहां तीसरे पहर तक तस्वीर साफ हो जाया करती है, आधी रात के बाद तक स्पष्ट जनादेश का इंतजार करना और एक-एक सीट पर हो रही टक्कर वाकई रोमांचक रही। रात ढलते-ढलते तस्वीर बेशक साफ हो गयी, लेकिन बिहार के मतदाताओं ने ऐसे कई संदेश दिये हैं, जिनके कारण यह चुनाव यादगार बन गया है। इन नतीजों का पहला और सबसे महत्वपूर्ण संदेश यही है कि बिहार की जनता अब मुद्दों पर वोट देने लगी है। भले ही जातिगत समीकरण आज भी यहां मायने रखते हैं, लेकिन भरोसेमंद नेतृत्व का चयन मतदाताओं के लिए सर्वोपरि था और उन्होंने ऐसा किया भी।
    मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति बिहार के बड़े तबके की नाराजगी साफ-साफ दिखी, लेकिन पिछले छह साल से हर चुनाव में चल रहा मोदी मैजिक पूरे प्रदेश पर हावी रहा। इसलिए लोगों ने नीतीश के प्रति नाराजगी तो खुल कर जाहिर की, लेकिन मोदी मैजिक को उन्होंने दिल से स्वीकार किया। बिहार के लोग अब भी मोदी को वही प्यार और सम्मान देते हैं, जो उन्होंने पिछले साल गर्मियों में लोकसभा चुनाव के दौरान दिखाया था। लोगों ने अपने वोट के जरिये काफी हद तक इस सवाल का जवाब देने का प्रयास किया है कि बिहार की गरीबी के लिए भाजपा जिम्मेदार नहीं है। बहुत से लोग इसके लिए कांग्रेस या राष्ट्रीय जनता दल को जिम्मेदार ठहराते हैं। नीतीश के प्रति लोगों की नाराजगी इतनी भी नहीं थी कि वे खुले दिल से महागठबंधन को एनडीए का विकल्प स्वीकार कर लें। ऐसा नहीं है कि नीतीश राज में बिहार में काम नहीं हुआ है। सड़क, बिजली और स्कूल के मुद्दे पर राज्य सरकार के कामकाज को लोगों ने खूब पसंद किया है। शराबबंदी भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही, जिसने खासकर महिला मतदाताओं को नीतीश का मुरीद बना दिया। मगर कोरोना की त्रासदी, मजदूरों के पलायन और रोजगार से जुड़े मसलों पर राज्य सरकार विरोधियों के निशाने पर रही।
    बिहार के इस चुनाव ने एक और महत्वपूर्ण संदेश यह दिया है कि जातीय राजनीति के लिए कुख्यात इस प्रदेश की जनता सियासत की जिम्मेदारी युवा कंधों पर डालने की पक्षधर है। यह चुनाव कमोबेश बुजुर्ग बनाम युवा के मुद्दे पर भी लड़ा गया। इसमें एक तरफ राजनीति का लंबा अनुभव रखने वाले नीतीश थे, तो दूसरी तरफ तेजस्वी यादव और चिराग पासवान जैसे अपेक्षाकृत अनुभवहीन युवा। यह अलग बात है कि चिराग अपने पिता की तरह राजनीतिक तापमान को नाप पाने में विफल रहे, जिसका खामियाजा उन्हें आनेवाले समय में उठाना होगा, लेकिन बड़ी बात यही है कि उन्होंने एक लाइन ली। आधुनिक ओलंपिक खेलों के जनक पियरे द कुबर्तिन ने कहा था कि जीतने से अधिक महत्वपूर्ण भाग लेना होता है। इन दोनों युवाओं पर यह कथन पूरी तरह लागू होता है। इन्हें अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिली, लेकिन इन्होंने खुद को बिहार की राजनीति में स्थापित जरूर कर लिया।
    अब बात करते हैं तेजस्वी यादव की, जो इस चुनाव के सबसे बड़े बाजीगर साबित हुए। बाजीगर इसलिए, क्योंकि वह चुनाव हार कर भी जीत गये हैं। महज छह साल के राजनीतिक अनुभव ने उन्हें इतना परिपक्व बना दिया है कि बिहार की राजनीति को वह अपने दम पर खींचने की ताकत रखने लगे हैं। तेजस्वी को पता था कि उन पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है और जरा सी भी चूक उन्हें इतिहास के पन्नों में समेट देगी। लगातार विरोधियों का निशाना झेलते हुए उन्होंने एनडीए के बड़े और अनुभवी नेताओं को जिस तरह की टक्कर दी, उससे साफ हो गया है कि बिहार को एक नया नेता मिला है, जो उसे वाकई नेतृत्व दे सकता है।
    बिहार का परिणाम वामपंथी पार्टियों के लिए भी संजीवनी साबित हुआ है। इस बार भाकपा, माकपा और भाकपा माले महागठबंधन के बैनर तले साथ-साथ चुनाव लड़ रही थीं। भाकपा माले ने भोजपुर के क्षेत्र में, पटना के बाहरी इलाकों और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया है। कैडर वोट और खेतिहर मजदूरों में उसके कामकाज का सीधा फायदा महागठबंधन को हुआ। तेजस्वी यादव ने भी चुनाव प्रचार में अपना एजेंडा लालू यादव से अलग बताया था और वादा किया था कि सामाजिक न्याय की जगह वह आर्थिक न्याय की वकालत करेंगे। इसी वजह से मंडल के हरे रंग के परचम पर लाल झंडा लहराता दिख रहा है।
    अब बात देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की, जिसके लिए बिहार का चुनाव एक दु:स्वप्न साबित हुआ है। इतने अनुकूल माहौल में भी वह अपना पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी, इसके कई कारण हैं। कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन का दौर है। महागठबंधन सी सफलता की राह में कांग्रेस एक बड़ी बाधा साबित हुई है। उसे समझना होगा कि केवल गठबंधन करने और दूसरों की पीठ पर सवार होकर वह आगे नहीं बढ़ सकती। पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं में नयी जान फूंकनी होगी। पार्टी को परिवारवाद और गुटबाजी के खोल से बाहर निकलना होगा, तभी वह राजनीति में अपनी मौजूदगी कायम रख सकती है। बिहार के चुनाव ने असदुद्दीन ओवैसी को दक्षिण से निकल कर पूर्व बिहार में मौजूदगी दर्ज कराने का अवसर दिया है, इसके परिणाम क्या होंगे, यह तत्काल तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है कि बिहार के इस चुनाव ने सियासत को नयी करवट देने में कामयाब जरूर हुई है।

    Modi magic Nitish's defeat and rise of glory
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