अजय शर्मा
रांची (आजाद सिपाही)। रामगढ़ का नेमरा गांव तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। छोटा सा गांव, लेकिन इस गांव में पैदा हुए लोगों की कहानी अब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो रही है। इसी गांव में सोरेन परिवार रहता है। यह वही परिवार है, जिसने जुल्म और शोषण के खिलाफ संघर्ष की लंबी कहानी गढ़ी है। इस कड़ी में सोबरन मांझी का है। शुक्रवार को उनका शहादत दिवस मनाया गया। महाजनी प्रथा के खिलाफ सोबरन ने ही पहला बिगुल फूंका था, जिसे उनके पुत्र शिव चरण मांझी (शिबू सोरेन का पुराना नाम) ने आगे बढ़ाया। यह गांव केवल झारखंड में ही नहीं, देश के मानचित्र पर चर्चित है। शिबू सोरेन के दूसरे पुत्र हैं हेमंत सोरेन। अभी वह झारखंड के मुख्यमंत्री हैं।
शुक्रवार को शहीद सोबरन मांझी के शहादत दिवस पर आयोजित समारोह के दौरान नेमरा गांव का माहौल भावुक था। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, उनके पिता शिबू सोरेन और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ गांव के लोग जहां शहीद सोबरन मांझी को याद कर भावुक हो रहे थे, वहीं नेमरा के लोगों की आंखों में अपने सपूतों की उपलब्धियों पर गर्व साफ दिखाई दे रहा था।
गांव में हेमंत सोरेन का पैतृक घर अंतिम छोर पर है। यहां आने पर कहीं से यह नहीं लगता कि यह झारखंड के पहले राजनीतिक परिवार का घर है। जनजातीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा और सादगी भरे माहौल से किसी को भी यह महसूस नहीं होता कि यहां राज्य के मुख्यमंत्री, सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता तथा उनका परिवार आया हुआ है। वही दलान और हरेक आगंतुक की अगवानी के लिए तैयार पूरा परिवार। खुद मुख्यमंत्री भी हरेक आगंतुक का स्वागत करते दिखे। उनके हाव-भाव या व्यवहार में कहीं नहीं लगा कि वह मुख्यमंत्री हैं। इस घर में न तो सुरक्षा का तामझाम था और न ही हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों की फौज थी। कोई भी व्यक्ति यहां बिना रोक-टोक से जा सकता था और जा भी रहा था।
दिन के करीब 10 बजे नेमरा स्थित सोरेन परिवार को पैतृक आवास पर पहुंचने पर एक कमरे में विधायक सीता सोरेन और उनके बच्चे, हेमंत की मां रूपी सोरेन, हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन और उनके बच्चे, हेमंत की बहन शकुंतला देवी, सुखी टुडू, अंजलि सोरेन, रेखा सोरेन सहित पूरा परिवार था। दूसरे कमरे में एक बुजुर्ग आराम कर रहे थे। वह हेमंत के चाचा थे। घर का एक हिस्सा खपड़ैल है, जिसमें ढेकी लगी हुई है। वहां से धान कूटने की आवाज भी आ रही थी। इस बारे में पूछने पर हेमंत की मां रूपी सोरेन ने कहा कि सभी लोग धान कूट रहे हैं। उन्होंने बताया कि परिवार के कई सदस्य नियमित रूप से धान कूटते हैं। घर के पिछले हिस्से में सीएम का भांजा और अन्य लोग बैठे थे। सभी हेमंत के आने का इंतजार कर रहे थे। दिन में करीब डेढ़ बजे ऊपर हेलीकॉप्टर दिखाई पड़ा। घर के सभी सदस्य आंगन में आ गये। शोर मचा कि हेमंत आ गये। हेमंत का हेलीकॉप्टर गांव के ही खेत में उतरा। उनके साथ राज्यसभा सदस्य और दिशोम गुरु शिबू सोरेन भी थे। गुरुजी सीधे अपने घर में पहुंचे। बैठकखाने में लगी कुर्सी पर बैठ गये और आग तापने लगे। कुछ लोगों को उन्होंने बुलाया और हालचाल लिया। वहीं हेमंत घर के बाहर उन लोगों से मिल रहे थे, जो उनके पास फरियाद लेकर आये थे। जिले के अधिकारी भी वहां मौजूद थे। करीब एक घंटे बाद हेमंत घर के अंदर पहुंचे, परिवार के एक-एक सदस्य से मिले, उनका हालचाल जाना और फिर घर के पिछले हिस्से में गये। वहां बैठे लोगों से भी उन्होंने मुलाकात की। सब कुछ सामान्य लग रहा था। कहीं से ऐसा नहीं लगा कि यह वही हेमंत हैं, जो दूसरे मौकों पर अधिकारियों की फौज और सुरक्षा संबंधी प्रोटोकॉल से घिरे रहते हैं। यह उनका नया अवतार था। अपने पैतृक गांव में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का हाव-भाव और व्यवहार साबित कर रहा था कि वह अपने दादा शहीद सोबरन सोरेन की विरासत को आगे बढ़ाने में पूरी तरह जुटे हुए हैं।

महाजनी प्रथा के असली नायक थे सोबरन सोरेन
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दादा सोबरन सोरेन को उनके 63वें शहादत दिवस पर पूरे राज्य ने याद किया। गांधीवादी विचारधारा के सोबरन सोरेन की शहादत कोई मामूली घटना नहीं थी। यह घटना 63 साल पुरानी है, लेकिन इसी घटना के प्रतिरोध में खड़े हुए सोबरन सोरेन के पुत्र शिबू सोरेन कालांतर में एक नायक के तौर पर उभरे और अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक पुरुष बन गये। पिता सोबरन सोरेन की शहादत के बाद शिबू सोरेन के मन में विद्रोह के जो बीज उपजे, उसी का नतीजा रहा कि पूरे इलाके से सूदखोरी प्रथा का अंतत: खात्मा हो गया। सोबरन सोरेन पेशे से गांव के शिक्षक और गांधी से प्रभावित कांग्रेसी विचारधारा के थे। उन्होंने महाजनी शोषण और गांव में शराबबंदी के खिलाफ आवाज उठायी। तब पूरे इलाके में महाजनों का ही राज था। महाजनों को अपने विरोध में उठी यह आवाज नागवार गुजर,ी तो उन्होंने सोबरन सोरेन की हत्या करवा दी। वह तारीख थी 27 नवंबर 1957। जिस वक्त सोबरन सोरेन की हत्या हुई, वह अपने गांव नेमरा से गोला हाइ स्कूल जा रहे थे। असल में उनके बेटे शिबू सोरेन इसी स्कूल के हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे। सोबरन सोरेन उनके लिए एक बोरी में चावल लेकर जा रहे थे। इस हत्याकांड ने किशोर शिबू सोरेन के मन पर गहरा असर डाला। उनकी मां सोनामणि कई साल तक हजारीबाग कोर्ट के चक्कर लगाती रहीं, ताकि वह अपने पति के हत्यारों को सजा दिला सकें, लेकिन पुलिस और अदालत की चौखट पर चक्कर लगाते हुए उनका हौसला टूट गया। मां सोनामणि के साथ शिबू सोरेन भी रहते। आखिरकार थक-हारकर उन्होंने तय किया कि वह महाजनी प्रथा के खिलाफ संघर्ष करेंगे और शोषण-दमन के इस दुष्चक्र का खात्मा करेंगे। शिबू सोरेन पढ़ाई छोड़ जंगल में लकड़ी काटने जाते। उसी दौरान इलाके में सक्रिय कम्युनिस्ट नेता मंजूर हसन की निगाह शिबू सोरेन पर पड़ी। शिबू सोरेन के संघर्ष को उन्होंने दिशा दी। उनके साथ रह कर उनमें राजनीतिक चेतना भी पैदा हुई। शिबू सोरेन ने गांव के लोगों को एकजुट किया और महाजनों के खिलाफ धनकटनी आंदोलन शुरू कर दिया। महाजनों और सूदखोरों ने आदिवासियों की जिन जमीनों पर गलत तरीके से कब्जा कर रखा था, उसकी फसल एकजुट होकर काटी जाने लगी। इस आंदोलन की अगुवाई करते शिबू सोरेन के नाम का खौफ ऐसा था कि सूदखोरों-महाजनों की रुह कांपने लगी। बाद में शिबू सोरेन का संघर्ष व्यापक होता गया। वे संथालों के नायक बनकर उभरे। उन्हें पूरे समुदाय का गुरु माना गया। शिबू सोरेन के दिशोम गुरु बनने की कहानी के पीछे सोबरन सोरेन की शहादत ही है।

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