राजनीतिक रूप से देश के सबसे संवेदनशील राज्य बिहार में विधानसभा चुनाव का दूसरा चरण मंगलवार को पूरा होगा। इसके साथ ही राज्य की 243 में से 165 सीटों पर जनता का फैसला इवीएम में कैद हो जायेगा। तीसरे चरण का मतदान सात नवंबर को है। पिछले सवा महीने से चल रहे चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक बात साफ तौर पर नजर आयी कि इस बार चुनावी सभाओं में उमड़ी भीड़ के मामले में राजद के युवा नेता तेजस्वी यादव बाजी मार ले गये। यदि चुनावी सभाओं में उमड़ी भीड़ से जीत-हार तय होती, तो तेजस्वी कम से कम नीतीश कुमार से बहुत आगे रहे। यह बात दीगर है कि सभाओं की भीड़ और वास्तविक मतदान में बहुत अंतर होता है, लेकिन इस भीड़ का संदेश साफ है कि बिहार में नीतीश कुमार से लोगों का तेजी से मोहभंग हो रहा है। केवल सभाओं में भीड़ ही नहीं, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी तेजस्वी ने नीतीश को पीछे छोड़ दिया है। चुनावी सभाओं में भीड़ का उमड़ना आखिर क्या संदेश देता है। क्या यह सिर्फ तेजस्वी की बढ़ती लोकप्रियता का संकेत है या फिर नीतीश कुमार से लोगों का वाकई मोहभंग हो रहा है। बिहार के दूसरे चरण के मतदान के ठीक पहले भीड़ के संकेतों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
शनिवार 31 अक्टूबर को बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने एक दिन में 19 रैलियों को संबोधित किया और दूसरे चरण के मतदान का प्रचार खत्म होने तक वह राज्य की पौने दो सौ विधानसभा सीटों पर रैलियां कर चुके हैं। उनकी रैलियों का कार्यक्रम तय करनेवाली टीम के अनुसार पांच नवंबर तक वह राज्य की 243 में से 225 सीटों तक पहुंच जायेंगे। यह वाकई एक अजूबा है। लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य इस बात का है कि तेजस्वी की रैलियों में जम कर भीड़ उमड़ रही है और इस भीड़ से संकेत मिल रहा है कि पिछले 15 साल से बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए की चुनावी नाव हिचकोले खा रही है।
चुनावी राजनीति के जानकार कहते हैं कि चुनावी रैलियों में उमड़ी भीड़ से लोकप्रियता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन हिंदी पट्टी के राज्यों में यह कथन पूरी तरह लागू नहीं होता। खास कर बिहार जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य में, जहां वोट केवल किसी चेहरे की लोकप्रियता पर नहीं डाला जाता है, रैलियों की भीड़ और वास्तविक मतदान में बहुत अधिक अंतर नहीं होता। शायद इसलिए बिहार के चुनाव को देश के दूसरे हिस्सों के चुनाव से अलग माना जाता है।
बहरहाल, बिहार में दूसरे चरण के मतदान के चुनाव प्रचार खत्म होने तक राजद नेता तेजस्वी यादव ने जितनी रैलियां की हैं और उनमें से हरेक में जो भीड़ उमड़ी है, उसका क्या मतलब निकाला जाये, यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया संस्थानों द्वारा कराये गये जनमत सर्वेक्षण से एनडीए को दोबारा सत्ता में लौटने के संकेत मिले हैं, लेकिन क्या इस बार भी 2015 की कहानी दोहरायी जायेगी। बिहार में 2015 के चुनाव परिणाम के दिन शुरू में भाजपा को जीत की तरफ आगे बढ़ने की बात कही जा रही थी, लेकिन आधे घंटे में ही परिदृश्य बदल गया और महागठबंधन ने बहुमत हासिल कर लिया था।
पिछले सवा महीने से बिहार में चुनाव प्रचार चल रहा है और यदि सभी दलों की रैलियों को मिला दिया जाये, तो इसकी संख्या साढ़े तीन सौ के आसपास पहुंचती है। इनमें सबसे अधिक तेजस्वी ने की है और स्वतंत्र आकलन कहते हैं कि भीड़ भी उनकी रैलियों में ही सबसे अधिक रही। यहां तक कि उनकी रैलियों में तो राहुल गांधी और नीतीश कुमार से भी अधिक भीड़ थी।
तो इस भीड़ का संकेत केवल यह है कि तेजस्वी की लोकप्रियता में बहुत तेजी से इजाफा हुआ है। निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। बिहार में 15 साल तक सत्ता में रहे नीतीश कुमार ने बहुत अच्छा काम किया है। एक समय उन्होंने बिहार की विकास दर को राष्ट्रीय औसत से भी अधिक कर दिखाया था। पिछले 15 साल में बिहार ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन 2015 का चुनाव जीतने के बाद नीतीश का महागठबंधन से अलग होना और फिर पिछले पांच साल के दौरान हुई गड़बड़ियों ने उनकी छवि को व्यापक नुकसान पहुंचाया है। बिहार में पहले चरण के मतदान से 10 दिन पहले जो सर्वेक्षण कराया गया, उसमें 31 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार को अब भी बेहतरीन मुख्यमंत्री माना, लेकिन एक खास बात यह रही कि 27 फीसदी लोग तेजस्वी यादव को भी मुख्यमंत्री पद के काबिल समझने लगे। सर्वे के मुताबिक तेजस्वी यादव नीतीश कुमार के एकदम करीब और चिराग पासवान और सुशील मोदी जैसे नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं। सर्वे का यह निष्कर्ष साबित करता है कि तेजस्वी यादव ने अपने खिलाफ बनायी गयी धारणा को तोड़ दिया है।
नीतीश और तेजस्वी की रैलियों की तुलना करें, तो एक बात यह भी साफ हो जाती है कि किसी भी रैली में तेजस्वी या राजद के विरोध में नारेबाजी नहीं हुई, लेकिन नीतीश की कई रैलियां विरोध की गवाह बनीं। इससे लगता है कि बिहार की जनता का नीतीश कुमार से पूरी तरह मोहभंग हो गया है और इसका खामियाजा उन्हें चुनाव में उठाना पड़े, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जहां तक मुद्दों की बात है, तो इस बार भी यह बाजी नीतीश कुमार के हाथों से निकलती दिख रही है। विपक्ष, खास कर तेजस्वी यादव ने रोजगार और पलायन को जिस तरह मुख्य मुद्दा बना दिया है, नीतीश कुमार के लिए इसका जवाब देना मुश्किल हो रहा है। उनकी सहयोगी भाजपा ने जरूर 19 लाख लोगों को नौकरी देने का वादा किया है, लेकिन लोग 15 साल तक सत्ता में भागीदार रही भाजपा से यह सवाल कर रहे हैं कि इतने दिनों तक उसने क्या किया। यह सवाल मौजूं भी है और बिहार में बदलाव का बड़ा संकेत भी।
बिहार की जनता की असली मंशा क्या है, यह तो 10 नवंबर को पता चलेगा, लेकिन फिलहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि नीतीश के लिए मामला उतना आसान नहीं रह गया है। उनके सुशासन का नारा उत्तर बिहार के जल जमाव वाले क्षेत्रों में डूबता दिख रहा है, तो मध्य और पूर्व बिहार में बाहर से लौटे प्रवासी कामगारों के पैरों की धूल में गायब होता दिख रहा है। इसलिए तेजस्वी की रैलियों में उमड़ी भीड़ का संकेत समझना बहुत मुश्किल भी नहीं रह गया है।