बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नयी सरकार ने सत्ता संभाल ली है और इसके साथ ही देश में राजनीतिक रूप से सबसे संवेदनशील राज्यों में से एक में सियासत का नया अध्याय भी शुरू हो गया है। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू संख्या बल के हिसाब से तीसरे नंबर पर है, इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश की लगातार चौथी और कुल मिला कर सातवीं पारी बेहद चुनौतीपूर्ण होनेवाली है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि नीतीश ने अपने चार दशक लंबे राजनीतिक कैरियर का सबसे चुनौतीपूर्ण सफर का आगाज किया है, जहां उन्हें अपने हर फैसले के लिए अपने सबसे बड़े सहयोगी भाजपा पर निर्भर रहना होगा। इतना ही नहीं, हम और वीआइपी जैसे उनके सहयोगी भी उनकी बांह मरोड़ने की कोशिश करें, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। नीतीश कुमार की राजनीति का स्टाइल बताता है कि वह दबाव में काम नहीं करते हैं, लेकिन इस बार उन्हें कोई नया स्टाइल इजाद करना होगा और पूरे देश की दिलचस्पी भी इसी में है। इसके साथ ही यह भी देखना दिलचस्प होगा कि आनेवाली चुनौतियों से नीतीश कैसे निबटते हैं। नीतीश कुमार की इन चुनौतियों को रेखांकित करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
पिछले 10 नवंबर की आधी रात के बाद जब बिहार विधानसभा चुनाव का अंतिम परिणाम घोषित हुआ और एनडीए को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ, तो राजनीतिक हलकों में चर्चा इस बात की शुरू हुई कि तीसरे नंबर की पार्टी जदयू को सीएम का पद मिलेगा या नहीं। दूसरी चर्चा यह थी कि क्या नीतीश कुमार सीएम बनना स्वीकार करेंगे। पांच दिन बाद एनडीए ने इन दोनों सवालों का जवाब दे दिया और भाजपा ने चुनाव से पहले किये गये वादे के अनुरूप न केवल जदयू को सीएम का पद सौंपा, बल्कि नीतीश कुमार लगातार चौथी बार सत्ता संभालने के लिए तैयार हो गये। अब वह बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं, तो स्वाभाविक तौर पर चर्चा इस बात की हो रही है कि उनकी यह पारी कितनी सफल होगी।
नीतीश की इस रिकॉर्ड चौथी पारी में उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। चार दशक लंबे अपने राजनीतिक कैरियर में यह पहली बार होगा, जब नीतीश कुमार को अपने हर फैसले के लिए न केवल अपने सबसे बड़े सहयोगी भाजपा की ओर देखना होगा, बल्कि अपने दो छोटे सहयोगियों, हम और वीआइपी का मुंह ताकना भी उनकी मजबूरी होगी। एनडीए को विधानसभा में 125 सीटें हासिल हुई हैं और यह बहुमत से केवल तीन अधिक है। ऐसे में नीतीश अपनी सरकार को कैसे चलाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। इसके साथ, इस बार नीतीश कुमार के लिए सब कुछ नया होगा। पांच साल तक उनके सहयोगी रहे 10 मंत्री चुनाव हार चुके हैं। उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी सुशील मोदी भी उनके साथ नहीं हैं। ऐसे में अपनी पसंद की कैबिनेट का गठन करना और उनके बीच विभागों के बंटवारे का पेंच सुलझाना आसान नहीं होगा। नीतीश कुमार के सामने अगली चुनौती अपने सहयोगी दलों के दबाव में काम करने की होगी। नीतीश ने अब तक जो सरकार चलायी है, उसमें भले ही परोक्ष रूप से भाजपा का दबाव रहा, लेकिन प्रत्यक्ष रूप में अपने हर फैसले की जिम्मेवारी खुद नीतीश ने ली है। ऐसे में चुनाव के दौरान किये गये वादों को पूरा करना और अपने सहयोगियों को नाराज किये बिना फैसले लागू कराना नीतीश के लिए बड़ी चुनौती होगी। पिछले 15 साल में नीतीश कुमार ने ‘सुशासन बाबू’ की जो इमेज बनायी है, उसे इस बार बनाये रखना आसान नहीं होगा। इस इमेज को बनाये रखने के लिए जो इच्छाशक्ति चाहिए, वह इस बार नीतीश कुमार में नहीं होगी, क्योंकि कैबिनेट में उनकी पार्टी अल्पमत में होगी। इसका सीधा असर नीतीश के फैसलों पर पड़ेगा। अंतिम दौर के चुनाव में सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर योगी आदित्यनाथ के साथ उनका जो विवाद हुआ, वह भी याद करने लायक है, क्योंकि ऐसे विवादित मुद्दों पर नीतीश क्या स्टैंड लेते हैं, यह देखनेवाली बात होगी।
राजनीतिक रूप से नीतीश भले ही लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बन गये हैं, लेकिन वह इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि बिहार में उनका जनाधार खतरनाक रूप से कम हो गया है। ऐसे में नीतीश को कोशिश होगी की वह अपनी छवि को सुधारने के साथ अपनी पार्टी के बिखरते और खिसकते वोट बैंक को फिर से सहेजें। भाजपा उनके इस प्रयास को कितना सफल होने देगी, यह भी देखनेवाली बात होगी। बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार नीतीश की पार्टी जदयू को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। 243 सीटों वाली विधानसभा में जदयू 50 का आंकड़ा भी नहीं पार कर पायी और उसको मात्र 43 सीटें मिली हैं। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चुनाव में बिहार को लोगों ने जदयू को पूरी तरह नाकार दिया है, ऐसे में नीतीश के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक बार जनता विश्वास को पाने की होगी।
इसके अलावा नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक मजबूत और आत्मविश्वास से भरपूर विपक्ष का सामना करने की होगी। बिहार में सत्ता पक्ष को इस बार ऐसे विपक्ष का सामना करना पड़ेगा, जो संख्या के हिसाब से उनसे कुछ ही कम है। ऐसे में विधानसभा के फ्लोर पर, जहां एक-एक विधायक महत्वपूर्ण होगा, विपक्ष सरकार पर दबाव बनाने और घेरने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहेगा। ऐसे में नीतीश के सामने चुनौती विपक्ष के हमलों का जवाब देकर सरकार के सभी सहयोगी दलों के विधायकों को एकजुट रखना होगा।
इन तमाम चुनौतियों के बीच नीतीश कुमार अपनी चौथी पारी को कितना यादगार बना पाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। पिछले 15 साल में उन्होंने बिहार में जो काम किये, उनकी तारीफ हो चुकी है। चूंकि इस बार मामला थोड़ा अलग है और बिहार में नये किस्म का राजनीतिक परिदृश्य बन गया है, इसलिए नीतीश पर सभी की निगाहें होंगी। यदि वह पांच साल तक सरकार चला ले जाते हैं, तो वह सचमुच इतिहास पुरुष बन जायेंगे, लेकिन बीच में लड़खड़ाने से उनका पूरा कैरियर उस ढलान पर उतर जायेगा, जिसकी कल्पना शायद खुद नीतीश ने भी नहीं की होगी। इसलिए इस बार वह ‘सुशासन बाबू’ की अपेक्षा ‘खतरों के खिलाड़ी’ की भूमिका में ही दिखेंगे।