झंझारपुर की घटना : व्यवस्था और पुलिसिया कार्यशैली पर गंभीर सवाल
बिहार के मधुबनी जिले के झंझारपुर व्यवहार न्यायालय में एडीजे प्रथम अविनाश कुमार की पिटाई और इससे पैदा हुए घटनाक्रम ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि भारत में खाकी वर्दी का कितना खौफ है। मामला एक राज्य की पुलिस के दो जूनियर पुलिस अधिकारियों से जुड़ा हुआ है, लेकिन इस घटना ने पूरी व्यवस्था और पुलिसिया कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। झंझारपुर की घटना बिहार में पहली नहीं है। इससे पहले 1997 में भागलपुर में भी एक जज को पुलिसकर्मियों ने इसी तरह अदालत परिसर में घुस कर पीटा था। उस मामले की सुनवाई अब भी चल रही है। झंझारपुर की घटना ने पुलिस का वह निरंकुश और विद्रूप चेहरा उजागर किया है, जो कभी भागलपुर के अंखफोड़वा कांड के आरोपियों के रूप में, तो कभी मुंबई में सचिन वाझे और परमबीर सिंह के रूप में सामने आता है। यही खाकी वर्दी धनबाद में गांजा प्लांट करनेवाले पुलिसकर्मियों के रूप में, तो कभी जमीन और कोयले के कारोबारियों के सहयोगी के रूप में या फिर पटना के सिटी एसपी के रूप में सामने अवतरित होता है, जिन्हें मुंबई में उनके ही साथी पुलिसकर्मियों ने जबरन क्वारेंटाइन कर दिया था। कभी मुठभेड़ के नाम पर निर्दोष युवकों को मारनेवाले जवानों और कभी थाना हाजत में ढाई फुट की ऊंचाई पर स्थित नल की टोंटी से नाड़े की मदद से लटक कर आत्महत्या करने की कहानी गढ़नेवाले एसपी के रूप में सामने आता है। यह हमारे लोकतंत्र के छीजते मूल्यों का संकेत है, जिसे समय रहते बचाने की जरूरत है। बिहार के झंझारपुर की घटना की पृष्ठभूमि में खाकी वर्दी के बदलते स्वरूप और इसके परिणाम का आकलन करती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह की खास रिपोर्ट।
करीब ढाई सौ साल पहले 1781 में जब भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने भारत में पुलिस प्रणाली की स्थापना की थी, तब उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि दुनिया भर में चर्चित उनका यह प्रयोग खुद की वर्दी पर बदनामी के इतने दाग लगा लेगा। भारत में आम जनता के बीच पुलिस की छवि एक ऐसी खौफनाक और संगठित गिरोह की बन गयी है, जो आम लोगों की दोस्त नहीं, शोषक है। देश के अलग-अलग हिस्सों में पिछले पांच-सात वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनसे पुलिस की खाकी वर्दी पर गहरे दाग लगे और उसकी खौफनाक छवि कुछ और गहरी हुई। इस छवि को बनाने के लिए पुलिस के कुछ अधिकारी और कर्मी ही जिम्मेवार रहे, जिन्होंने अपना रौब गांठने या फिर अपना हित साधने के लिए अपनी वर्दी का बेजा इस्तेमाल किया। ऐसा भी नहीं है कि पुलिस में अच्छे अधिकारियों-कर्मियों की कमी है या हर अधिकारी ऐसा ही है, लेकिन अपने ही कुछ साथियों के कारण पूरे पुलिस बल को कठघरे में खड़ा होना पड़ता है। अपराध रोकने और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बने पुलिस बल की इस खौफनाक छवि बनाने के लिए जिम्मेवार अधिकारी-कर्मी राजनीति और अपराध को सहयोगी बनाते हैं और फिर अपना स्वार्थ साधते हैं, बेकसूर लोगों पर जुल्म ढाते हैं।
बिहार के मधुबनी जिले के झंझारपुर में हुई घटना को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जहां वर्दी के नशे में चूर दो जूनियर पुलिस अधिकारी व्यवहार न्यायालय परिसर में एक जज के चैंबर में घुस जाते हैं और पिस्तौल के बल पर उनकी पिटाई करते हैं। इतना ही नहीं, वे जज को धमकाते भी हैं और खुद के सर्वशक्तिमान होने का दावा भी करते हैं। इस घटना ने खाकी वर्दी के सबसे विद्रूप और खौफनाक चेहरे को उजागर कर दिया है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटना पहली बार हुई है। बिहार के भागलपुर में 1997 में तारीख थी 18 नवंबर। उस दिन भागलपुर में पुलिस का बर्बर चेहरा सामने आया था। निशाने पर एडीजे बरई थे। एक आपराधिक मामले में ट्रायल के दौरान आइओ जोखू सिंह की गवाही अधूरी थी। अदालत ने बार-बार तारीख पर बुलाया, लेकिन वह नहीं आये। इसके बाद अदालत की अवमानना का मामला बना और गिरफ्तारी का आदेश जारी किया गया। गिरफ्तारी का आदेश जारी होते ही आइओ अदालत आ गये और वारंट के मद्देनजर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। गिरफ्तारी के बाद जमानत अर्जी पर सुनवाई के बाद उसे स्वीकार कर लिया गया, लेकिन थोड़ी ही देर बाद भारी संख्या में पुलिस के अधिकारी और कर्मी लाठी और अन्य हथियारों के साथ कोर्ट रूम में आ गये। एडीजे के खिलाफ नारेबाजी से अदालत परिसर में हड़कंप मच गया। जान बचाने के लिए एडीजे अपने चैंबर में भाग गये और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। एडीजे के सहकर्मियों की पिटाई की गयी और फिर दरवाजा तोड़कर अंदर छिप कर बैठे एडीजे को भी पीट दिया गया। इस मामले की सुनवाई आज भी चल रही है।
बिहार के झंझारपुर में हुई घटना की हर तरफ निंदा हो रही है। इस घटना ने पुलिस की साख पर बट्टा लगा दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय न्याय का मंदिर होता है और उसमें फैसला देनेवाले न्यायाधीशों को लोग भगवान का दर्जा देते हैं। पुलिस कानून की रक्षक है और उसकी जवाबदेही संविधान ने भी तय कर रखी है कि न्यायपालिका के आदेश को कैसे लागू किया जाये।
झंझारपुर की घटना से साफ हो गया है कि पुलिस के लिए गढ़े गये तीन शब्द, पुरुषार्थ, लिप्सारहित और सहयोगी, अब दम तोड़ चुके हैं। पुलिस अब केवल पीड़ितों पर अपना पुरुषार्थ दिखाती है, इसकी नस-नस में लिप्सा यानी लालच समाहित है और यह केवल पैसा या पावर की सहयोगी है।
पुलिस की छवि आज पूरी तरह एक ऐसे संगठित गिरोह की बन गयी है, जिसके आगे न कानून का कोई मतलब रह गया है और न ही इंसाफ का। इसलिए कई लोग पुलिस को वर्दीधारी अपराधी भी मानते हैं। पुलिस की यह छवि यूं ही नहीं बनी है। पुलिस के कुछ अधिकारियों ने जिस तरह अपने पद, प्रतिष्ठा और ताकत का बेजा इस्तेमाल किया, उसके कारण ही पुलिस की यह छवि बनी है। खाकी वर्दी का यह खौफनाक चेहरा मुंबई में परमवीर सिंह और सचिन वाझे के रूप में सामने आता है, जो हर दिन एक सौ करोड़ रुपये की वसूली का लक्ष्य तय कर सुबह अपने घर से निकलता है या फिर झारखंड के धनबाद में अपने एक अधिकारी की लिप्सा के लिए एक निर्दोष की गाड़ी में गांजा प्लांट कर उसे फंसा देता है। पुलिस निर्दोष को मुठभेड़ में मार भी गिराती है और उसकी हिरासत में साढ़े पांच फुट का हट्टा-कट्टा युवक ढाई फीट ऊंची नल की टोंटी से नाड़ा की मदद से फंदा बना कर आत्महत्या भी कर लेता है। कभी यही खाकी वर्दी झारखंड के बुंडू में रूपेश स्वांसी की मौत के मामले में सवालों के घेरे में आती है, तो कभी बकोरिया में 14 ग्रामीणों को नक्सली बता कर मुठभेड़ में मार गिराने के लिए पुरस्कार पाती है।
झंझारपुर की घटना ने यह भी साबित कर दिया है कि बेलगाम पुलिस किसी सभ्य समाज के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकती है। सबसे चिंता की बात यह है कि खाकी वर्दी का यह सिलसिलेवार पतन डेढ़ सौ साल की गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में लगातार आगे बढ़ रहे देश में हो रहा है। अब भी समय है, जब पुलिस की इस छवि को बदलने का ईमानदार प्रयास शुरू होना चाहिए।a