- फिलहाल झामुमो संग चल रही है पार्टी की जोर-आजमाइश
झारखंड की राजनीति की गर्माहट को समझना है, तो झारखंड की सड़कों पर लगे बैनर, पोस्टर, झंडे, पार्टी विशेष की गाड़ियों की सरसराहट और कार्यकतार्ओं के महाजुटान पर नजर डालना जरूरी है, खासकर झारखंड की राजधानी रांची में। फिलहाल झारखंड की राजनीति में इन दिनों झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा ज्यादा सक्रिय दिखाई पड़ रही हैं। दोनों एक-दूसरे को भगाना चाहती हैं और झारखंड को बचाना चाहती हैं। इस क्रम में कांग्रेस और राजद झामुमो की पिछलग्गू प्रतीत हो रहे हैं। चाहे वह 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता से संबंधित प्रस्ताव का पारित होना हो या ओबीसी आरक्षण का कोटा बढ़ाने का, दोनों मोर्चों पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ही सारी सुर्खियां और वाहवाही बटोर ली है। और आने वाले दिनों में झारखंड की राजनीति में इसका असर देखने को भी मिलेगा। इससे कांग्रेस और राजद को कितना फायदा मिलेगा या झटका लगेगा, यह तो 2024 के विधानसभा चुनाव में पता चल ही जायेगा। फिलहाल झारखंड मुक्ति मोर्चा की जमीनी और काफी हद तक आक्रामक राजनीति की काट भाजपा टटोल रही है। उसके पास हथियार तो हैं, लेकिन उसे कहां इस्तेमाल करना है, वह इसका फैसला जल्द लेने वाली है। वह हथियार और कोई नहीं, वतर्मान में भाजपा विधायक दल नेता बाबूलाल मरांडी हैं। बाबूलाल मरांडी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में झारखंड में सबसे पहले 1932 के खतियान को आधार बनाकर स्थानीय नीति और नियोजन नीति को एक साथ लागू किया था। यह और बात है कि बाद में हाइकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। इसी तरह 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को भी बाबूलाल मरांडी की सरकार ने पास किया था, वह भी कोर्ट ने निरस्त कर दिया था। 1932 के खतियान और आरक्षण के मुद्दे पर बाबूलाल मरांडी और हेमंत सोरेन का फैसला झारखंडियों के हित में था और है। लेकिन इस मुद्दे को लेकर एक मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी, तो दूसरे ने वाहवाही बटोर ली। फिलहाल भाजपा हेमंत सोरेन की आक्रामक राजनीति और 2024 में लोकसभा और विधानसभा में उसके संभावित असर की काट ढूंढ़ रही है। क्या हो सकती है भाजपा की रणनीति और पार्टी के लिए बाबूलाल मरांडी की जरूरत, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड की राजनीति इन दिनों बड़ी तेजी से करवट बदल रही है। यह करवट दो दलीय राजनीति का मंच तैयार कर रही है, जिसमें झामुमो और भाजपा ही मुख्य भूमिका में दिखाई दे रही हैं। बाकी सारे दल और संगठन अपना वजूद बचाने में लगे हैं। झामुमो और खास कर हेमंत सोरेन की आक्रामक राजनीति ने सियासत के इस मंच को जहां अपने हित में सजाने की कोशिश की है, वहीं भाजपा अब इसकी काट ढूंढ़ने में लग गयी है। ऐसे में एक बड़ा सवाल, जो लोगों के जेहन में उठ रहा है, वह यह है कि भाजपा अपने ह्यबाबूलालह्ण नामक हथियार का इस्तेमाल कब करेगी। झारखंड की राजनीति में बाबूलाल मरांडी के योगदान और त्याग को कोई नकार नहीं सकता। झारखंडियों के हित के लिए पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवायी, नक्सलियों से दो-दो हाथ करने में अपने पुत्र को खोया और समय-समय पर झारखंड को कई विधायक भी दिये, जिन्होंने समय आने पर उनकी पीठ में छुरा भी घोंपा। लेकिन बाबूलाल मरांडी कभी भी निराश और हताश नहीं हुए। शायद ये दोनों शब्द उनकी राजनीतिक डिक्शनरी में नहीं हैं। फिलहाल भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश संगठन में बड़ा बदलाव करने के मूड में दिखाई पड़ रहा है।
हेमंत सोरेन की आक्रामक राजनीति की काट के लिए भाजपा का ऐसा करना जरूरी है। जिस तरीके से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हाल के दिनों में फैसले लिये हैं, उसके लिए भाजपा का मानना है कि यह जरूरी हो गया है कि वह भी इन फैसलों को गंभीरता से ले। चाहे वह 1932 के खतियान का मुद्दा हो या ओबीसी आरक्षण का या अनधिकृत निर्माण को नियमित करने की योजना हो, हेमंत सोरेन ने अपना मास्टर स्ट्रोक चल दिया है। एक तरफ तो उन्होंने आदिवासियों, मूलवासियों और पिछड़ों को अपने पाले में करने के लिए 1932 के खतियान और आरक्षण का मास्टर स्ट्रोक लगाया है, तो दूसरी तरफ अनधिकृत निर्माण को नियमित करने की योजना से लाखों लोगों को राहत दी है, जो समाज के हर वर्ग से आते हैं। खासकर यह लाभ शहरी क्षेत्र के लोगों को होगा, जिनमें ज्यादातर भाजपा के वोटर माने जाते हैं। इन्हें भी साधने का प्रोग्राम हेमंत सोरेन ने बना लिया है। आपको बता दें कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के निर्देश पर नगर विकास एवं आवास विभाग ने राज्य के शहरी क्षेत्र में किये गये अनधिकृत आवासीय निर्माण को नियमित करने की दिशा में कार्रवाई शुरू कर दी है। विभाग के द्वारा इसके लिए “अनधिकृत आवासीय निर्माण को नियमितीकरण करने के लिए योजना -2022” का प्रारूप तैयार कर लिया है। मुख्यमंत्री ने योजना को सहमति दे दी है। विभिन्न शहरी क्षेत्रों में 31 दिसंबर 2019 से पहले बने सभी अनाधिकृत भवन निर्माण को नियमित किया जाएगा। इससे राज्य के विभिन्न शहरों में रहने वाले लाखों शहरवासियों को बड़ी राहत मिलगी। फिलहाल भाजपा के पास हेमंत की काट ढूंढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
भाजपा नेतृत्व जानता है कि महज सड़कों पर विरोध प्रदर्शन से कुछ नहीं होगा। भाजपा को नयी योजना के साथ मैदान में कूदना पड़ेगा। खुद के लोगों की पहचान करनी होगी। उन्हें वह ताकत देनी होगी, जिसकी उन्हें जरूरत है। झारखंड में भाजपा को एक ऐसे जमीनी नेता को ताकत प्रदान करनी होगी, जिसकी स्वीकार्यता हर वर्ग में हो, खासकर आदिवासियों और मूलवासियों में। झारखंड में भाजपा का मानना है कि उसके पास एक ऐसा नेता है, जिसका कद और मत दोनों ही बड़ा है। जो जमीनी भी है और जिसके कदमों की आहट झारखंड के गांव-गांव, टोलों-टोलों तक में माटी की धूर तक पहचानती है। वह और कोई नहीं, झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी हैं। बाबूलाल मरांडी आदिवासी हैं। वह हमेशा झारखंड हित की ही बात करते आये हैं। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में 1932 के खतियान को सिर्फ पास ही नहीं किया था, उसे लागू भी कर दिया था। यह अलग बात है कि बाद में हाइकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। लेकिन यह फैसला उनके साहस को दिखाता है। आदिवासियों और मूलवासियों के प्रति उनके समर्पण को दिखाता है। वैसे झारखंड में भाजपा के पास आदिवासी नेताओं की कोई कमी नहीं है। बड़े चेहरों में अर्जुन मुंडा को ही ले लिया जाये। वह मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और फिलहाल केंद्र में मंत्री हैं। लेकिन केंद्र में मंत्री रहने से केंद्र द्वारा निर्धारित कार्यक्रमों में उनकी व्यस्तता थोड़ी बढ़ गयी है। वहीं राज्यसभा सांसद और भाजपा के एसटी मोर्चा के अध्यक्ष समीर उरांव भी पार्टी में आदिवासियों का एक बड़ा चेहरा हैं। लेकिन जो कद और हैसियत बाबूलाल मरांडी झारखंड की राजनीति में रखते हैं, उससे उनकी तुलना नहीं की जा सकती। इसका अंदाजा केंद्र को भी है। पिछले महीने गृह मंत्री अमित शाह के बुलावे पर बाबूलाल मरांडी दिल्ली गये थे। माना जाता है कि दोनों के बीच प्रदेश संगठन को लेकर लंबी चर्चा हुई थी। इस दौरान बाबूलाल और भी कई बड़े नेताओं से मिले। वहां उन्हें संकेत दिया गया कि वह प्रदेश में कोई बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार रहें।
फिलहाल दीपक प्रकाश की अध्यक्षता में पार्टी अच्छा काम रही है और संगठित भी है। उनके प्रयासों से पार्टी और संगठन मजबूत भी हुआ है। वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश का कार्यकाल पूरा होने वाला है। सूत्रों की मानें तो पार्टी संगठन की सोच है कि अब बड़ा जनाधार वाला आदिवासी नेता ही प्रदेश अध्यक्ष बने, जिसकी विधानसभा-लोकसभा चुनावों में स्वीकार्यता हो। इस नजर से तो बाबूलाल मरांडी फिलहाल ज्यादातर नेताओं पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। केंद्रीय नेतृत्व ने पहले ही प्रदेश कमेटी को भी स्पष्ट किया हुआ है कि सभी बड़े निर्णयों में बाबूलाल मरांडी की सहमति शामिल हो। केंद्रीय नेतृत्व को पता है कि बाबूलाल मरांडी ही वह कड़ी हैं, जिससे गैर ईसाई आदिवासी समाज को अपने पक्ष में लामबंद किया जा सकता है। बाबूलाल मरांडी की स्वीकार्यता सिर्फ आदिवासियों तक ही सिमित नहीं है। वह समाज के अन्य वर्गों में भी लोकप्रिय हैं। फिलहाल दलबदल के आरोप में विधानसभा अध्यक्ष के न्यायाधिकरण में बाबूलाल मरांडी की विधायकी खत्म करने पर सुनवाई पूरी हो चुकी है। बाबूलाल मरांडी ने हाइकोर्ट में आरोप लगाया है कि सुनवाई में उनका पक्ष पूरी तरह से नहीं सुना गया है। ऐसे में बगैर पक्ष सुने फैसला देने पर रोक लगायी जाये। भाजपा को लग रहा है कि यह प्रक्रिया अभी और लंबी खिंचेगी, ऐसे में वह इस मामले का पटाक्षेप करना चाहती है। पार्टी को पता है कि बाबूलाल मरांडी का पार्टी में कद जितना बढ़ेगा, भाजपा का आदिवासी क्षेत्र में जनाधार उतना ही पुख्ता होगा और संगठन भी मजबूत होगा, क्योंकि बाबूलाल के पास संगठन निर्माण की सशक्त कला है। बाबूलाल मरांडी की छवि ईमानदार और कर्मठ नेता की है। वह माटी के नेता हैं। जमीनी नेता हैं। उनके पास झारखंड के विकास के लिए दूरदर्शिता के साथ-साथ नीतियों का ज्ञान भी है। उन्हें झारखंड की जमीनी समस्याओं का बोध भी है, तो उन्हें सुलझाने का मास्टर प्लान भी। ऐसे में अगर केंद्र उन्हें महत्वपूर्ण शक्तियां और अधिकार प्रदान करता है, तो बाबूलाल मरांडी भाजपा को फिर से राज्य के शीर्ष पर बिठाने में सफल हो सकते हैं।