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-बिहार से तय होगा 2024 के चुनावी मुकाबले का मैदान!
बिहार | महिलाओं पर अश्लील और जीतनराम मांझी को तुम-तड़ाक की भाषा में उनके ऊपर एहसास जताने की कोशिश में आम जन की नजरों में बुरी तरह फंस चुके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरक्षण का दांव खेल कर राजनीति के मैदान में अपने पांव को उखड़ने से रोकने की कोशिश की है। भारतीय राजनीति में आरक्षण और धर्म हमेशा से ऐसे मुद्दे रहे हैं, जिन पर किसी भी चुनाव का भविष्य निर्भर ही नहीं रहता, बल्कि अक्सर तय भी होता है। इसलिए नीतीश के आरक्षण कार्ड को विपक्ष के तरकश का बड़ा तीर माना जा रहा है और उम्मीद जतायी जा रही है कि बिहार ने 2024 के चुनावी मुकाबले की लाइन तय कर दी है। लेकिन इसे एकांगी नजरिया ही कहा जा सकता है, क्योंकि लोगों को यह पता है कि कई राज्यों ने आरक्षण का तड़का लगा कर लोगों की भावनाओं को उभारने का प्रयास किया, लेकिन वहां 75 प्रतिशत आरक्षण लागू नहीं हो पाया, वहीं भाजपा के पास अभी चुनाव जीतने का सबसे बड़ा हथियार, यानी ‘रामबाण’ मौजूद है। पिछले दिनों अयोध्या में अक्षत पूजन कर पूरे देश में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण देने का जो अभियान शुरू किया गया है, उससे देश में एक माहौल तो बन ही रहा है। जनवरी में राम लला की 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा के साथ भाजपा के तरकश से यह बड़ा तीर निकलने के बाद सियासी माहौल पूरी तरह बदलने की पूरी संभावना अभी से ही दिखने लगी है। ऐसे में अब सवाल यह उठ रहा है कि नीतीश कुमार के आरक्षण कार्ड के सामने भाजपा का यह ‘रामबाण’ कितना कारगर होगा। इस बड़े सियासी सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

नीतीश कुमार ने बिहार में पिछड़ों-दलितों के आरक्षण का दायरा बढ़ाने का प्रस्ताव विधानसभा से पास करा दिया है। राहुल गांधी पहले ही आरक्षण के दायरे को बढ़ा कर दलितों-पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में ज्यादा भागीदारी देने की वकालत कर चुके हैं। कांग्रेस ने चुनावी राज्यों में जातिगत जनगणना कराने का वादा कर भी दिया है। संभावना है कि जल्द ही कुछ कांग्रेस शासित राज्यों में भी बिहार की ही तरह आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का प्रस्ताव पास कर दिया जाये। यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष का सबसे बड़ा दांव होगा।
भाजपा विपक्ष के इस दांव का बखूबी समझ भी रही है और इसकी काट खोजने की कोशिश भी कर रही है। यदि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी कैबिनेट की बैठक भगवान राम के दरबार अयोध्या में लगाते हैं, तो इसका संबंध चुनावों से जोड़ कर ही देखा जा रहा है। लोकसभा चुनावों के ठीक पहले 22 जनवरी को राम मंदिर का उद्घाटन करना और इसके पहले विहिप द्वारा पूरे देश में इसके लिए विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये माहौल बनाने को भी 2024 के लोकसभा चुनाव से ही जोड़ कर देखा जा रहा है। बड़ा सवाल है कि इस लड़ाई में किसकी जीत होगी?

जातिगत आरक्षण ने बिहार को क्या दिया
पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार यादव, राबड़ी देवी और जीतनराम मांझी की सरकार रही है। ये सभी नेता पिछड़े और दलित समुदाय से ही हैं। यदि ये नेता चाहते, तो विभिन्न योजनाओं के सहारे दलितों, पिछड़ों और महादलितों के कल्याण के लिए बड़ा काम करते और इनके जीवन में बड़ा परिवर्तन कर सकते थे। लेकिन स्वयं नीतीश सरकार के जातिगत आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि इन वर्गों में गरीबी के आंकड़े भयावह हैं।
बिहार सरकार की रिपोर्ट के अनुसार पिछड़े वर्ग के 33.16 फीसदी, अति पिछड़ा में 33.58 फीसदी, अनुसूचित जाति में 42.93 फीसदी और अनुसूचित जनजाति में 42.70 फीसदी परिवार गरीब हैं। ये आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सरकार ने गरीबों के साथ सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति की है। सरकारी योजनाओं से गरीबों को जोड़ कर उनके आर्थिक और सामाजिक स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास नहीं किया गया। आज भी इन परिवारों के युवकों को दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में बेहद निम्न आय वर्ग की नौकरी करनी पड़ रही है, उन्हें जलालत झेलनी पड़ती है। कहीं-कहीं तो उन्हें बिहारी होने का दंश भी झेलना पड़ता है। यह सब सरकार की कमजोरी के कारण हो रहा है।

अपनी असफलता छिपाना चाहती है सरकार
यह बात सही है कि यदि इन्हीं वर्गों के नेताओं के होते हुए भी इन्हीं वर्गों की समस्याएं दूर नहीं हुई हैं, तो इसके लिए वे लंबे समय से सत्ता से दूर रही उच्च जातियों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। ये आंकड़े स्वयं इन सरकारों की असफलता के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। केवल आरक्षण देकर और जातिवाद का दांव चल कर सरकार अपनी इस असफलता को छुपाना चाहती है। लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में जातिवाद की गंभीरता से इस बात पर संदेह नहीं किया जा सकता कि विपक्ष का यह वार भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होनेवाला है। केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं और राम मंदिर के भावनात्मक मुद्दे से वह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश अवश्य कर रही है, लेकिन इससे उसे कितनी सफलता मिल पायेगी, यह अभी से नहीं कहा जा सकता।

भाजपा को विकास के सहारे जीत का भरोसा
दूसरी तरफ भाजपा नेताओं का कहना है कि भाजपा समाज के हर वर्ग के विकास के लिए समर्पित रही है। उनकी पार्टी ने जातिगत जनगणना का भी कभी विरोध नहीं किया है। यहां तक कि बिहार विधानसभा में आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का भी उसने समर्थन किया है, लेकिन नीतीश कुमार जनता को केवल जातिगत राजनीति में उलझा कर अपनी नाकामियां छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि समाज के हर वर्ग का विकास करने के लिए औद्योगिक विकास का कोई खाका सरकार ने खींचने की कोशिश की होती, तो उसे इस तरह की कोशिश कर अपनी असफलता को छिपाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। नीतीश के दांव की काट के रूप में भाजपा के पास विकास योजनाओं के साथ-साथ हिंदुत्व का मुद्दा भी बड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जात-पांत के बंधन को तोड़ने के ध्येय से ही बार-बार यह कह रहे हैं कि देश में गरीबी सबसे बड़ी है। गरीबों को ध्यान में रख कर ही उन्होंने पांच साल तक मुफ्त राशन की घोषणा भी कर दी है। भाजपा का कहना है कि आर्थिक क्षेत्र के विद्वान मानते हैं कि पर्यटन के क्षेत्र में कम लागत लगा कर भी अधिक से अधिक युवाओं को रोजगार दिया जा सकता है। यही कारण है कि अयोध्या, काशी, महाकाल और अन्य धार्मिक केंद्रों का लगातार विकास किया जा रहा है। धार्मिक क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियां बढ़ा कर आय के नये स्रोत खोले जा सकते हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि काशी क्षेत्र का विकास करने के बाद वाराणसी में लोगों की आय में भारी वृद्धि हुई है। इसी तरह का विकास सरदार पटेल की एकता मूर्ति को बना कर गुजरात के केवड़िया क्षेत्र की तस्वीर बदल गयी है। भाजपा के लिए राम केवल आस्था के प्रतीक मात्र नहीं हैं, वह इनसे जुड़े धार्मिक केंद्रों का विकास करके जनता की आर्थिक स्थिति बेहतर करने की योजना पर काम कर रही है। इसे चुनावी राजनीति की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। जहां तक बिहार का सवाल है, नालंदा को विकसित करने की उसकी योजना फाइलों में ही पड़ी रही। राजगीर भी अपनी दुर्दशा की कहानी कह रहा है। बिहार सरकार चाहती, तो गया के फाल्गू नदी के किनारे बड़ा पर्यटन स्थल खोल कर देश ही नहीं विदेश तक के नागरिकों का ध्यान आकर्षित कर सकती थी, क्योंकि यहां अपने पूर्वजों को याद करने पूरे विश्व से लोग आते हैं, लेकिन वहां जाते ही उन्हें अपनी नाक पर रूमाल रखना पड़ता है। उस पूरे इलाके को पंडाओं के भरोसे छोड़ दिया गया है। साफ-सफाई तक की मुकम्मल व्यवस्था सरकार की तरफ से नहीं की गयी है।

अपने कद को बनाये रखने के लिए नीतीश ने खेला आरक्षण दांव
लौटते हैं नीतीश कुमार के दांव पर। उनके इस दांव के बाद उनके लोग यह मान रहे हैं कि इस कदम से विरोधियों के हौसले तो पस्त हुए ही हैं, साथ ही विपक्षी गठबंधन में नीतीश कुमार का कद काफी बढ़ गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही भाजपा लोकसभा चुनाव को हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ना चाहती है, लेकिन वह आरक्षण का विरोध नहीं कर सकती, क्योंकि आज के दौर में आरक्षण के खिलाफ जाना एक तरह से खुद की राजनीतिक हत्या ही होगी। ऐसे में जाहिर है भाजपा के लिए नीतीश के इस दांव का जवाब दे पाना बहुत आसान भी नहीं है।

गठबंधन में धमाकेदार वापसी की कोशिश
दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव के लिए बने विपक्षी गठबंधन में भी नीतीश कुमार हाशिये पर नजर आ रहे थे, लेकिन यह कार्ड खेल कर उन्हें विश्वास है कि एक बार फिर वह गठबंधन में धमाकेदार वापसी करेंगे। ऐसे में उनकी केंद्र की राजनीति करने की मंशा कितनी सफल होगी, फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन नीतीश कुमार अपने इस दांव से एक बार फिर सियासत के केंद्र में खड़े नजर आ रहे हैं। यह बात अलग है कि महिलाओं के खिलाफ अश्लील टिप्पणी करके नीतीश कुमार ने अपने दामन पर खुद ही बड़ा धब्बा लगा लिया है। बिहार ही नहीं, पूरे देश में इसकी भर्त्सना हो रही है। उनके माफी मांग लेने के बाद भी लोग अब उन्हें दूसरे नजरिये से देखने लगे हैं।

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