-एक ने पार्टी को सबसे ऊपर रखा, तो बाकी दो ने निजी हितों को दी तरजीह
-पार्टी के प्रति समर्पण ने एक को बड़ा बनाया, तो बाकी दो भीड़ में गुम हो गये
राजनीति में धैर्य, संयम, समर्पण, वफादारी और खुद पर भरोसा सबसे जरूरी है। जो इन मंत्रों को समझ गया, वह समझो राजनीतिक मैदान में आधी जंग जीत गया। हर राजनीतिक शख्सियत किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है, उसकी विचारधारा से जुड़ा है और उसी के अनुरूप खुद को ढालता है। कोई भी व्यक्ति बिना कारण राजनीति या किसी भी कार्य क्षेत्र में यूं ही नहीं आता। सभी की अपनी-अपनी इच्छाएं होती हैं, महत्वाकांक्षाएं होती हैं। कुछ राजनेताओं को बहुत जल्द सफलता मिल जाती है, कइयों को बहुत देर से। ऐसे भी कई उदाहरण हैं कि जिन नेताओं को जल्द सफलता मिली, वे पार्टी को अपनी जागीर समझने लगे या टेकेन फॉर ग्रांटेड लेने लगे। अर्थात उनका जो दिल चाहा, वही होना चाहिए। अगर पार्टी उनकी बात नहीं मानेगी, तो ठेंगा दिखा देंगे। ऐसे कई राजनेता हुए, जिन्हें पार्टी ने सब कुछ दिया, लेकिन जब पार्टी को पार्टीहित के लिए उनसे कुछ लेने की बारी आयी, तो उसे ठेंगा दिखा दिया। लेकिन कई ऐसे भी राजनेता हुए, जिन्होंने लगातार जीत हासिल की, हार का मुंह नहीं देखा, लेकिन जब पार्टी को लगा कि अब दूसरे को मौका देने की जरूरत है, तो वह नेता पार्टी के उस फैसले के साथ खड़ा रहा, पाला नहीं बदला। ऐसे लोगों से ही पार्टी की जड़ें मजबूत होती हैं। पार्टी को भी चाहिए कि वह ऐसे वफादार और समर्पित लोगों को अपने से दूर न होने दे। जी हां, आज हम बात कर रहे हैं, झारखंड के तीन ऐसे राजनीतिक शख्सियत की, जिनका पॉलिटिकल करियर शिखर पर पहुंचा। पार्टी ने उन्हें पलकों पर बिठाया, पद दिया, प्रतिष्ठा दी। बदलते समय और राजनीतिक हालात के कारण जब पार्टी को लगा कि अब उन्हें पार्टी के लिए त्याग करना चाहिए, तो तीन में से दो नेताओं ने पार्टी को बाय-बाय कर दिया। एक ऐसा भी शख्स है, जिसने पार्टी की बात मानी, अपने मोह को त्यागा और पार्टी के लिए समर्पण की भावना को आगे रखा। हम बात कर रहे हैं भाजपा के रामटहल चौधरी, यशवंत सिन्हा और रामटहल चौधरी की। इन तीन राजनेता से झारखंड के नेताओं को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। कैसे आठ बार के सांसद कड़िया मुंडा ने 2019 में टिकट कटने के बावजूद भाजपा का साथ नहीं छोड़ा। वहीं कैसे पांच बार रांची से सांसद रहे रामटहल चौधरी और तीन बार हजारीबाग से सांसद, भारत सरकार में वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा ने सब्र और धैर्य को खो दिया। कैसे उनकी नजर में भाजपा खराब और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुश्मन बन गये। आज लोगों की नजर में इन तीनों नेताओं की क्या पहचान है, क्या आदर और सम्मान है, और इसे देखते हुए कैसे झारखंड के दिग्गज नेता रहे कड़िया मुंडा, रामटहल चौधरी और यशवंत सिन्हा के राजनीतिक सफर से सबक लेने की जरूरत है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

कहते हैं कोई भी चीज स्थायी नहीं होती। परिवर्तन ही संसार का नियम है। एक जाता है, तो दूसरा आता है। किसी के लिए भला दुनिया रुकी है। राजनीति में भी यही नियम लागू होता है। समय के साथ राजनेताओं को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत होती है। आज हम बात कर रहे हैं, भाजपा के उन तीन नामचीन नेताओं की, जिनका स्थान झारखंड की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण रहा। लेकिन महत्वाकांक्षा के चक्कर में कोई भीड़ में खो गया, तो कोई आज भी सम्मान के साथ पार्टी का चहेता बना है। जो लोग पार्टी छोड़ गये, उसका नुकसान पार्टी को कितना हुआ, यह कहना मुश्किल है, लेकिन उनका काफी नुकसान हुआ, यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। रामटहल चौधरी और यशवंत सिन्हा को जब टिकट नहीं मिला, तो उन्होंने पार्टी को ही त्याग दिया, वहीं जब कड़िया मुंडा का टिकट काट कर अर्जुन मुंडा को पार्टी ने टिकट दिया, तो उन्होंने अर्जुृन मुंडा को जीत का आशीर्वाद तक दिया। कभी जनता के सिरमौर रहे ये नेता आज किस हाल में हैं और इनसे क्या कुछ सीखने की जरूरत आज के नेताओं को है, आइये समझते हैं।
कड़िया मुंडा को मिल रहा नेताओं-कार्यकर्ताओं का सम्मान
साल 2019 में झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मैं जब भाजपा में कार्यकर्ता के रूप में काम करता था, तब कड़िया मुंडा जी की उंगली पकड़ कर मैंने राजनीति सीखी। कड़िया मुंडा एक ऐसे आदिवासी नेता हैं, जो आठ बार सांसद रह चुके हैं। वह आपातकाल के दौर से लगातार आठ बार खूंटी से सांसद बने। 1977 में खूंटी संसदीय क्षेत्र से पहली बार लोकसभा चुनाव जीते। कड़िया मुंडा भारतीय जनता पार्टी के उन वरिष्ठ नेताओं में से हैं, जिनकी राजनीतिक शुरूआत जनसंघ के दिनों से हुई। उन्होंने भारतीय राजनीति में कई उतार-चढ़ाव देखे। वह खूंटी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से साल 1977, 1989, 1991, 1996, 1998, 1999, 2009 और 2014 में लोकसभा सदस्य के रूप में चुने गये। झारखंड विधानसभा चुनाव 2005-2009 में वह विधायक के रूप में चुने गये। कड़िया मुंडा को देश के सर्वोच्च सम्मानों में से एक पद्म भूषण से भी नवाजा गया है। कड़िया मुंडा 13वीं लोकसभा के सदस्य रहे हैं। वह भारत सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। कंिड़या मुंडा 15वीं लोकसभा के उपाध्यक्ष भी बनाये गये थे। लेकिन एक बार जब पार्टी का आदेश हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कड़िया मुंडा की जगह अर्जुन मुंडा को टिकट दिया जाये, तो कड़िया मुंडा ने देर किये बिना अर्जुन मुंडा को अपना आशीर्वाद दे दिया। भले ही अर्जुन मुंडा खूंटी से महज 1045 वोट से जीते हों, लेकिन कड़िया मुंडा का जलवा आज भी उनके क्षेत्र में बरकरार है। उस क्षेत्र के लोग आज उनके बेटे जगरनाथ मुंडा को भविष्य के नेता के रूप में देख रहे हैं। उन्हें सम्मान दे रहे हैं। जगरनाथ मुंडा भी उस क्षेत्र में काफी एक्टिव हैं। यहां बता दें कि कड़िया मुंडा ने अपने बेटे को पार्टी के ऊपर कभी थोपा नहीं। उन्होंने पार्टी के निर्देश को ससम्मान माना। पार्टी को लगेगा कि जगरनाथ मुंडा का भाजपा में भविष्य है, तो पार्टी उन्हें जरूर मौका देगी। वैसे जिसमें हुनर होता है, जनता जिसके साथ होती है, वह किसी का मोहताज नहीं होता। वह अपना रास्ता खुद निकाल लेता है। खूंटी में जगरनाथ मुंडा का नाम बहुत जोर-शोर से उठ रहा है।
पार्टी से खुद को ऊपर समझने की भूल कर बैठे रामटहल चौधरी
पांच बार भाजपा के टिकट पर रांची से सांसद रह चुके रामटहल चौधरी ने 2019 में लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं मिलने पर बगावती रुख अख्तियार कर लिया। भाजपा की ओर से रांची संसदीय सीट के लिए प्रत्याशी के नाम का एलान करने से पहले ही रामटहल चौधरी ने घोषणा कर दी थी कि भाजपा उन्हें टिकट दे या नहीं दे, वह हर हाल में चुनाव लड़ेंगे। रामटहल चौधरी का मानना था कि उनकी मेहनत की बदौलत ही रांची लोकसभा क्षेत्र में पार्टी नंबर वन बनी है। यहां से उनके अलावा कोई अन्य भाजपा नेता चुनाव जीत ही नहीं सकता। उन्होंने बिना किसी का नाम लिये भाजपा के कुछ पदाधिकारियों पर आरोप लगाते हुए कहा था कि आज यहां बैठे कुछ लोग पद पाकर अहंकार में डूब गये हैं और साजिश के तहत जनसंघ से जुड़े पुराने लोगों को अलग-थलग करने में जुटे हुए हैं। रामटहल चौधरी का कहना था कि उनको टिकट नहीं देना था, तो उनके बेटे को टिकट मिलना चाहिए था, क्योंकि वही इस सीट को निकाल कर दे सकते हैं। लेकिन क्या रामटहल की यह सोच सही थी। क्या कोई नेता पार्टी से बड़ा हो सकता है। नहीं हो सकता। रामटहल चौधरी को जिस बात का गुमान था, वह उसी चुनाव में टूट गया। रामटहल चौधरी निर्दलीय चुनाव लड़े और जमानत भी नहीं बचा सके। भाजपा ने उनकी जगह रांची से संजय सेठ को टिकट दिया था। उन्हें कुल सात लाख छह हजार आठ सौ 28 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय को चार लाख 23 हजार आठ सौ दो मत हासिल हुए तो वहीं ओवर कांफिडेंट और रामटहल चौधरी की जमानत जब्त हो गयी।
यशवंत सिन्हा राजनीति के शिखर से फर्श पर
अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे यशवंत सिन्हा की आदत हमेशा से ही खुल कर बोलने की रही। यशवंत सिन्हा ने साल 1960 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में कदम रखा। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी में उनकी पारी साल 1996 से शुरू हुई, जब वह जून 1996 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता बने। साल 1998, 1999 और 2009 में हजारीबाग लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा में पहुंचे। वह साल 1998 में वित्त मंत्री बने तो एक जुलाई 2002 को विदेश मंत्री के पद पर पहुंचे। भाजपा के साथ उनके राजनीतिक सफर का अंत साल 2018 में हुआ। उस वक्त उन्होंने पार्टी की स्थिति का हवाला देते हुए भाजपा छोड़ दी। पार्टी छोड़ते हुए यशवंत सिन्हा ने कहा था कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है। उसके बाद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 13 मार्च 2021 को टीएमसी में शामिल हो गये। 15 मार्च 2021 को उन्हें ममता बनर्जी की नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। साल 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें सर्वसम्मति से विपक्ष की तरफ से एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया। उनके नाम का प्रस्ताव टीएमसी चीफ ममता बनर्जी ने किया था। यहां समझने वाली बता यह है कि भाजपा ने यशवंत सिन्हा को भी हर वो सम्मान दिया, जिसे वह डिजर्व करते थे। लेकिन यशवंत सिन्हा उतने में खुश नहीं थे। पार्टी ने उनके पुत्र को सांसद और मंत्री भी बनाया, लेकिन यशवंत सिन्हा की महत्वाकांक्षा इतनी अधिक थी कि उन्होंने अपने पुत्र के करियर को भी दांव पर लगा दिया। यशवंत सिन्हा अपनी शर्तों पर जीनेवाले व्यक्ति हैं। अगर आज भी वह भाजपा में होते, तो पार्टी के लिए हितकर ही होते। लेकिन कहते हैं कि राजनीति में धैर्य, संयम, समर्पण, वफादारी और खुद पर भरोसा सबसे जरूरी होता है। आज लोगों की नजर में यशवंत सिन्हा का मान-सम्मान वैसा नहीं है, जैसा कड़िया मुंडा का।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version