जब राहुल गांधी ने राजनीति में कदम रखा, तभी से यह संभावित था कि एक दिन वे कांग्रेस अध्यक्ष बनेंगे। और आखिरकार, सोमवार को उनके विधिवत पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया। इसके पहले पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथ में रही, लगातार उन्नीस साल। लिहाजा, चुनाव संपन्न कराए जाने के बावजूद इसे परिवार के भीतर पार्टी की सत्ता के हस्तांतरण के रूप में भी देखा जाएगा। यह कोई हैरत की बात नहीं है। कांग्रेस लंबे समय से परिवारवाद की पटरी पर चलती रही है। इसलिए काफी पहले से कांग्रेस का हर नेता और कार्यकर्ता राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की मांग जब-तब करता आ रहा था। सोनिया गांधी धीरे-धीरे अपनी सक्रियता कम करती गर्इं, और चाहे पार्टी का संचालन हो या चुनाव अभियान, राहुल गांधी की भूमिका बढ़ती गई। ऐसे में स्वाभाविक है कि नौ हजार प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से उनके नाम पर मुहर लगाई। सोनिया गांधी भी चुनी गई थीं, पर उनका चुनाव निर्विरोध नहीं हुआ था, उनके मुकाबले जितेंद्र प्रसाद उम्मीदवार थे। सीताराम केसरी को राजेश पायलट की ओर से मिली चुनौती का सामना करना पड़ा था। पर राहुल गांधी के मुकाबले कोई उम्मीदवार नहीं था। यों नियमत: कोई बाधा नहीं थी। कोई भी प्रतिनिधि जिसे दस प्रस्तावकों का समर्थन हासिल हो, उम्मीदवार बन सकता था। पर इस सिरे से उस सिरे तक जब पार्टी में एकमात्र राहुल को ही अध्यक्ष के रूप में देखने की चाहत हो, तो उन्हें निर्विरोध चुन लिया जाना स्वाभाविक है।

अब सवाल यह है कि इससे कांग्रेस में और देश की राजनीति में क्या कोई फर्क पड़ेगा? एक वक्त था, जब भाजपा को लगता था कि राहुल का मखौल उड़ा कर, या सिर्फ उन पर तंज कस कर उन्हें खारिज किया जा सकता है। कई साल तक राहुल की छवि भी ऐसी रही या बना दी गई थी मानो वे अनिच्छुक राजनेता हैं और उनमें लड़ने-भिड़ने का माद््दा नहीं है। लेकिन अब जिन राहुल ने कांग्रेस की कमान संभाली है उनके बारे में कांग्रेस के पस्त नेताओं से लेकर आलोचकों और विरोधियों तक की राय काफी-कुछ बदल चुकी है। अब राहुल अनिच्छुक नहीं, सधे हुए राजनेता की तरह नजर आ रहे हैं। पहले राहुल के अमेरिका दौरे और अब गुजरात में उनके इस नए रूप से भाजपा परेशान है। लेकिन बढ़ती स्वीकार्यता के बरक्स राहुल गांधी के सामने चुनौतियां भी बड़ी हैं। लगातार एक के बाद एक अपनी चुनावी पराजय देख हताशा झेलते आ रहे कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा करना है, पार्टी संगठन में नई जान फूंकनी है। पार्टी के महासचिव के तौर पर राहुल गांधी ने राष्ट्रीय छात्र संगठन, युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस और कांग्रेस सेवा दल जैसे पार्टी के वर्ग संगठनों में मनोनयन की परिपाटी बंद कर उनके संचालन और कामकाज को लोकतांत्रिक बनाने की पहल की थी। अब उनके सामने पार्टी के मुख्य संगठन को ऊर्जावान बनाने की कठिन चुनौती है।

  राहुल गांधी युवा हैं और उनके हाथ में पार्टी की बागडोर आने का मतलब पार्टी के नेतृत्व में पीढ़ीगत बदलाव भी है। यह राज्यों में भी और विभिन्न स्तरों पर भी होना चाहिए, और इसी के साथ यह भी उतना ही जरूरी है कि पुराने, अनुभवी नेताओं और नई प्रतिभाओं के बीच संतुलन बने। गुजरात में ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, राहुल गांधी ने लोगों के बीच पहुंच बनाने की अपनी क्षमता साबित की है। इसके बाद उनके सामने कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार को बरकरार रखने और मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ को भाजपा से छीनने की चुनौती होगी। इसके लिए उनके पास बहुत थोड़ा समय है। अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए भी बस सोलह महीनों का वक्त है। इस बीच पार्टी संगठन को भी चुस्त-दुरुस्त करना है और नई प्रतिभाएं व नए सहयोगी भी तलाशने हैं। वे क
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