आखिर काफी इंतजार के बाद अयोध्या विवाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में मंगलवार को सुनवाई शुरू हो गई। लिहाजा, अब उम्मीद की जा सकती है कि इस लंबे विवाद का स्थायी हल निकल आएगा। भारत में शायद ही कोई अन्य दीवानी मामला इतना चर्चित और इतना जटिल रहा हो। फिर, इस मामले की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि इसके तार एक तरफ आस्था और दूसरी तरफ राजनीति से जुड़े रहे हैं। अयोध्या विवाद को लेकर जितना सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, उतना किसी और मसले पर कभी नहीं हुआ। अयोध्या के बहाने देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं भी हुर्इं। कई चुनावों में यह मुद््दा बना रहा। इससे सियासी लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई, और कई बार यह भी लगा कि यह मुद््दा कोई खास असर डालने वाला नहीं रह गया है। लेकिन बेहद संवेदनशील मसला होने के कारण राजनीति को प्रभावित करने की इसकी संभावना हमेशा बनी रही है। पर मंदिर-मसजिद विवाद के इर्दगिर्द देश की राजनीति घूमती रहे, इससे हमारे लोकतंत्र का भला नहीं हो सकता। इसलिए भलाई इसी में है कि इसका सर्वमान्य और स्थायी हल निकल आए। दशकों से सियासत चमकाने का जरिया बने रहने के अलावा यह मामला अदालतों में भी दशकों तक खिंच चुका है। अब भी यह बरसों-बरस खिंचता रहे, इसका कोई औचित्य नहीं हो सकता।

यों एक फैसला आ चुका है। अट्ठाईस साल की सुनवाई के बाद सितंबर 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विवादित 2.77 एकड़ भूमि तीन हिस्सों में बांट दी जाए- एक हिस्सा रामलला विराजमान, एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े और एक हिस्सा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को। लेकिन यह फैसला किसी को मंजूर नहीं हुआ, और दोनों तरफ से की गई अपीलों पर ही मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलों को विचारार्थ स्वीकार करते हुए मई 2011 में मामले में यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था। उसके सात साल बाद नियमित सुनवाई शुरू हुई है। मंगलवार को प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर के विशेष पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर तेरह अपीलों पर सुनवाई शुरू की। पीठ ने दोनों तरफ की दलीलें सुनीं और सुनवाई की अगली तारीख आठ फरवरी मुकर्रर कर दी। संयोग से यह सुनवाई बाबरी मस्जिद विध्वंस के पच्चीस साल पूरे होने के ठीक एक दिन पहले शुरू हुई। विध्वंस का मामला अलग चल रहा है जिसमें इन पच्चीस बरसों में गवाहियां तक पूरी नहीं हो सकी हैं।

  सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या विवाद से जुड़े मामले की सुनवाई की अहमियत खासकर इसलिए है क्योंकि बातचीत से समाधान निकालने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुई हैं। हल निकालने के लिए खुदाई भी की गई थी और चंद्रशेखर सरकार के समय दोनों तरफ से प्रमाणों और दस्तावेजों का आदान-प्रदान भी हुआ था। लेकिन यह भी टालने की कवायद ही साबित हुआ। उसके बाद भी मामले को बातचीत से सुलझाने के सुझाव दिए जाते रहे, इस दिशा में जब-तब पहल भी हुई, और यह सिलसिला हाल तक चला। पर कोई भी पहल किसी परिणति तक पहुंचना तो दूर, ठीक से आकार भी नहीं ले सकी। यह हमारी राजनीतिक विफलता भी है और सामाजिक विफलता भी। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी अपीलों पर सर्वोच्च न्यायालय से आस लगा रखी है। यह स्वाभाविक है। पर इसी के साथ उन्हें यह संकल्प भी दिखाना चाहिए कि जो भी फैसला होगा, उसे वे सहजता से स्वीकार करेंगे।
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