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    Home»Jharkhand Top News»खाली खजाना केबावजूद पटरी पर अर्थव्यवस्था
    Jharkhand Top News

    खाली खजाना केबावजूद पटरी पर अर्थव्यवस्था

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskDecember 29, 2020No Comments8 Mins Read
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    चाणक्य की एक उक्ति राज्य व्यवस्था के लिए दुनिया भर में चर्चित है। यह उक्ति है, कोष मूलो दंड। इसका मतलब किसी भी शासन के लिए सबसे मुख्य उसका खजाना होता है। झारखंड के संदर्भ में इस उक्ति को देखने पर साफ हो जाता है कि प्रदेश के खजाने की हालत बहुत अच्छी नहीं है, हालांकि एक साल पुरानी हेमंत सोरेन सरकार ने पिछले 366 दिनों में इस मोर्चे पर बहुत काम किया है। इस बात में भी कोई शक नहीं कि इस सरकार ने राज्य हित में कई ऐसे कदम उठाये हैं, जिनका अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर पड़ना निश्चित है। पिछले साल जब हेमंत सोरेन सरकार ने सत्ता संभाली थी, तब राज्य का खजाना लगभग खाली था और सामान्य कामकाज के लिए भी रकम की व्यवस्था इधर-उधर से की जा रही थी। जीएसटी संग्रह और केंद्रीय करों में राज्य के हिस्से से रोजाना का खर्च तो चल रहा था, लेकिन विकास योजनाओं के लिए पैसे की कमी से राज्य जूझ रहा था। ऐसे में हेमंत सोरेन सरकार की पहली चुनौती फिजूलखर्ची पर रोक लगाने की थी। इस चुनौती का सामना राज्य सरकार ने सफलता से किया।
    झारखंड की बदहाल आर्थिक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले वित्तीय वर्ष के अंत (31 मार्च, 2020) को राज्य पर 85 हजार 234 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि वर्ष 2000 से 2014 तक राज्य ने जितना कर्ज लिया, उससे अधिक कर्ज 2014 से 2019 के बीच लिया गया। जाहिर सी बात है कि कोरोना काल में हेमंत सोरेन सरकार के पास इससे निबटने का एकमात्र विकल्प खर्चों में कटौती और फिजूलखर्ची पर रोक लगाना था। राज्य सरकार ने यही किया। हेमंत सरकार ने अपने पहले बजट में जहां कुछ विभागों के आवंटन में कटौती की, वहीं लोक कल्याण और विकास से जुड़े विभागों का आवंटन बढ़ाने में कोताही नहीं की। अपने पहले बजट में हेमंत सरकार ने अपना इरादा जाहिर कर दिया कि वह चुनौतियों का सामना करने से पीछे नहीं हटेगी।
    बजट के बाद इस सरकार ने आमदनी बढ़ाने पर ध्यान दिया। इसके लिए कुछ ऐसे कड़े फैसले लिये गये, जिनकी आलोचना भी हुई। मसलन एक रुपये में संपत्ति की रजिस्ट्री को स्थगित कर दिया गया और पेट्रोल-डीजल पर दी जा रही सब्सिडी की भरपाई के लिए नये अधिभार लगाये गये। इन फैसलों की आलोचना हुई, लेकिन जल्दी ही यह बात साफ हो गयी कि भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए ये फैसले जरूरी थे। इन दो फैसलों से ही राज्य के खजाने में पहले ही महीने में अतिरिक्त ढाई सौ करोड़ रुपये की आमद हुई।
    हेमंत सोरेन सरकार ने इन कदमों के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया कि विकास योजनाओं में धन की कमी को बाधा नहीं बनने दिया जाये। इसके लिए उसे केंद्रीय सहायता की सख्त जरूरत थी। राजनीतिक कारणों से केंद्र से अपेक्षित मदद नहीं मिलने के बावजूद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने लगातार अपनी बात सामने रखी। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि राज्य को पहली बार कोयला कंपनियों से ढाई सौ करोड़ रुपये मिले। यह रकम बहुत छोटी जरूर है, लेकिन इसका खास महत्व इसलिए है, क्योंकि झारखंड को पहली बार कोल इंडिया ने जमीन के किराये के रूप में कोई भुगतान किया। समय-समय पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखंड की जरूरतों और इसके अधिकारों के लिए आवाज उठायी। चाहे जीएसटी की क्षतिपूर्ति में कमी का मुद्दा हो या फिर केंद्रीय करों में राज्य के हिस्से में कटौती, हेमंत ने झारखंड के हित में हमेशा बेहद तार्किक ढंग से अपनी बात रखी। फिजूलखर्ची में कटौती के लिए हेमंत सोरेन सरकार ने जो कदम उठाये, उसका बेहद सकारात्मक असर पड़ा। यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि पिछले एक साल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन महज तीन बार ही दिल्ली की यात्रा पर गये। इतना ही नहीं, प्रचार-प्रसार और दूसरे सरकारी आयोजनों में भी हमेशा खर्च कम करने पर ध्यान दिया गया। इन कदमों से कोरोना काल में सामाजिक मोर्चे पर काम करने के लिए सरकार को कभी धन की कमी नहीं हुई और तब यह बात साफ हुई कि सरकार के कड़े फैसले कितने जरूरी थे।
    कई आर्थिक चुनौतियां हैं सामने
    जहां तक चुनौतियों का सवाल है, तो हेमंत सोरेन सरकार के सामने झारखंड पर लगे गरीब राज्य के टैग को हटाना सबसे बड़ी चुनौती है। आंकड़े बताते हैं कि झारखंड की करीब 37 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करती है। झारखंड को गरीबी से पार पाना है। राज्य की प्रति व्यक्ति आमदनी राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आमदनी से लगभग आधी है, जबकि राज्य की विकास दर बीते 20 साल में सात-आठ प्रतिशत रही है। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने के लिए झारखंड को अपने आर्थिक विकास की गति को तेज करना होगा। भारत की औसत प्रति व्यक्ति आमदनी तक पहुंचने के लिए झारखंड को कम-से-कम 11 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा, तभी वह भारत की औसत प्रति व्यक्ति आमदनी के बराबर पहुंचेगा। केवल विकास दर बढ़ाने से ही झारखंड का काम नहीं चल सकता। राज्य में व्याप्त असमानता को भी दूर करना होगा। झारखंड को मानव विकास सूचकांक के हर स्तर पर आगे बढ़ना होगा। चाहे वह बिजली हो, स्वच्छता हो, शिक्षा हो, भूख हो, गरीबी हो या बेरोजगारी हो।

    इन सभी स्तरों पर जब तक सम्यक रूप से नीति बनाकर काम नहीं किया जायेगा, तब तक मुश्किल है कि झारखंड अपने लक्ष्यों को प्राप्त करे। यह भी सच है कि झारखंड जैसे संसाधन-संपन्न राज्य के लिए यह कोई मुश्किल नहीं है कि वह इन सूचकांकों को ठीक नहीं कर सकता। हेमंत सरकार ने पिछले एक साल में जिस इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है, उससे तो यह बहुत मुश्किल नहीं लगता।
    खेती पर ध्यान देना जरूरी
    झारखंड को अपने कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देना होगा। यहां की करीब 50 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र से सक्रिय रूप से जुड़ी है, लेकिन राज्य की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान महज 14-15 प्रतिशत ही है, जबकि राज्य के केवल ढाई फीसदी लोग खनन क्षेत्र से जुड़े हैं और जीडीपी में उनका योगदान 12 प्रतिशत है। करीब साढ़े छह फीसदी रोजगार देनेवाला विनिर्माण क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी 14 प्रतिशत है। ये आंकड़े बताते हैं कि झारखंड के विकास का पैटर्न बहुत विषम है और यह विषमता कई चुनौतियों को जन्म देती है। इसके बारे में सरकार को गहराई से सोचना पड़ेगा। झारखंड जैसे गरीब और प्रति व्यक्ति कम आमदनी वाले राज्य में छोटे और मंझोले उद्योगों का होना बहुत जरूरी है, ताकि वे लोगों की आर्थिक स्थितियों के हिसाब से वस्तुओं का निर्माण कर सकें। यह समझना होगा कि बड़ी औद्योगिक इकाइयों से ज्यादा रोजगार उत्पन्न नहीं होता। उनकी सीमाएं होती हैं और वे शहरों तक ही सीमित रहती हैं, जबकि छोटे और मंझोले उद्योगों से ज्यादा रोजगार उत्पन्न होता है। इसलिए विनिर्माण और खनन क्षेत्र में जीडीपी तो बहुत आता है, लेकिन बमुश्किल 10 प्रतिशत ही रोजगार उत्पन्न होता है। इसलिए झारखंड सरकार को चाहिए कि वह छोटे और मंझोले उद्योगों की ओर ध्यान दे, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा और ग्रामीण क्षेत्रों तक भी रोजगार की उपलब्धता बन सके।
    झारखंड की आधी शहरी आबादी केवल चार शहरों में रहती है। ये हैं, रांची, जमशेदपुर, बोकारो और धनबाद। छोटे शहरों में कम लोग रहते हैं और उनका ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ाव बहुत कम है। यह स्थिति झारखंड के सर्वांगीण विकास में बाधक है। ग्रामीण क्षेत्र को शहरी क्षेत्र से जोड़ना बहुत जरूरी है, ताकि विकास बराबर हो सके। बागवानी, खाद्य प्रसंस्करण, खनन, कृषि, विनिर्माण आदि क्षेत्रों में छोटे उद्योग लगाना बहुत जरूरी है।
    झारखंड की प्रतिवर्ष खाद्यान्न आवश्यकता लगभग 50 लाख मीट्रिक टन की है, जबकि सबसे अनुकूल हालात में यहां खाद्यान्न उत्पादन 40 लाख मीट्रिक टन ही हो पाता है। ऐसे में इस 10 लाख मीट्रिक टन की खाई को पाट पाना बहुत बड़ी चुनौती है। गरीबी के अलावा बेरोजगारी भी झारखंड की बड़ी समस्या है। बताया जाता है कि झारखंड सर्वाधिक बेरोजगारी वाले राज्यों में शामिल है और सर्वाधिक बेरोजगारी दरों वाले प्रदेश में से एक है। सर्वाधिक बेरोजगारी वाले देश के 11 राज्यों में से झारखंड पांचवें स्थान पर है। यहां प्रत्येक पांच में से एक युवा बेरोजगार है। आंकड़ों के मुताबिक झारखंड के 46 प्रतिशत स्नातक और 49 प्रतिशत युवाओं को रोजगार नहीं मिलता।
    जाहिर है कि हेमंत सरकार के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है। खासकर तब, जब हम सब चाहे-अनचाहे एक ग्लोबल आर्थिक चेन में आबद्ध होकर चल रहें हैं, तो ऐसे में जन आकांक्षाएं लोकल हो ही सकती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उन्हें भी एक व्यापक फलक पर ले जाना जरूरी है। तभी हमारी संवैधानिक मान्यताओं की वास्तविक लोकतांत्रिक परंपरा की स्थापना हो सकेगी।

    Economy on track despite empty treasury
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