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    Home»विशेष»संवादहीनता की स्थिति पैदा करने से बचें झारखंड के अफसर
    विशेष

    संवादहीनता की स्थिति पैदा करने से बचें झारखंड के अफसर

    azad sipahiBy azad sipahiDecember 7, 2021No Comments6 Mins Read
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    विश्वास बनायें : आश्वासन पूरा नहीं होते देख बढ़ रही है कर्मचारी संगठनों की बेचैनी

    दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के राजनीतिक नक्शे पर 28वें राज्य के रूप में उभरा झारखंड इन दिनों एक अजीब किस्म की बेचैनी के दौर से गुजर रहा है। यह बेचैनी न तो राजनीतिक है और न सामाजिक। यह बेचैनी उन संगठनों के भीतर से छन कर झारखंड की हवा में फैल रही है, जिन्होंने आश्वासनों के बाद अपना आंदोलन स्थगित कर दिया था। उनकी बेचैनी का कारण यह है कि उन्हें पता ही नहीं चल रहा है कि उनको दिये गये आश्वासनों को पूरा करने की दिशा में क्या कदम उठाये गये या फिर क्या कुछ किया जा रहा है। पारा टीचर, सेविका-सहायिका, मनरेगाकर्मी, सहायक पुलिसकर्मी और संविदाकर्मी से लेकर विश्वविद्यालय कर्मी, राज्यकर्मी और स्वास्थ्यकर्मी तक बेहद बेचैन हैं। जिन अधिकारियों को उनकी मांगों पर विचार करना है, उनकी तरफ से न कोई संवाद किया जा रहा है और न ही कोई जानकारी दी जा रही है। इस संवादहीनता के कारण इन संगठनों का बेचैन होना स्वाभाविक है। जहां तक राजनीतिक नेतृत्व की बात है, उसने अपना काम कर दिया है और संगठन उससे संतुष्ट भी हैं, लेकिन अफसरों की संवादहीनता के कारण उनके भीतर एक किस्म की असहजता पनप रही है। इस असहज स्थिति का अंतिम पड़ाव आंदोलन ही होगा, क्योंकि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में मांगों को मनवाने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन अंतिम विकल्प होता है। यहां सवाल यह है कि क्या झारखंड एक बार फिर आंदोलन के दौर में प्रवेश करने के लिए तैयार है। करीब पौने दो साल तक कोरोना महामारी के आर्थिक प्रहार से उबरने की कोशिश कर रहे देश के तीसरे सबसे गरीब राज्य के सीने पर आंदोलन का बोझ डालना सही रहेगा। इसका जवाब निश्चय ही नहीं में होगा, लेकिन इस स्थिति से बचा कैसे जाये, इस पर विचार करना सबसे जरूरी है। इसका एकमात्र विकल्प यही हो सकता है कि संगठनों के साथ नियमित संवाद कर उन्हें विश्वास में बनाये रखा जाये। यह जितनी जल्दी हो जाये, उतना ही अच्छा होगा। झारखंड में व्याप्त इसी संवादहीनता और संगठनों की बेचैनी के कारण होनेवाले नुकसान को रेखांकित करती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की खास रिपोर्ट।

    चाणक्य ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को शासन का सर्वश्रेष्ठ तरीका बताते हुए कहा है कि यदि शासक और शासित के बीच की दूरी बढ़ने लगे, तो फिर राज्य के विफल होने का खतरा पैदा होने लगता है। चाणक्य की इसी नीति का अनुसरण करते हुए लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अब तक सरकारों ने आम लोगों के साथ रिश्ते को हमेशा मजबूत रखने का ईमानदार प्रयास किया है। इसमें गड़बड़ी तब पैदा होती है, जब शासन के महत्वपूर्ण अंग, यानी कार्यपालिका इस रिश्ते की अहमियत नहीं समझ पाती और इसका खामियाजा सीधे शासक को भुगतना पड़ता है।
    झारखंड के आज के संदर्भ में यह स्थिति एकदम सटीक साबित हो रही है। राज्य का राजनीतिक नेतृत्व आम जनता से अपनी दूरी को पाटने के लिए ‘आपके अधिकार, आपकी सरकार, आपके द्वार’ अभियान का सफलतापूर्वक संचालन कर रहा है, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बार-बार लोगों को जागरूक कर रहे हैं कि वे अपनी समस्याओं को लेकर शासन तक जायें। उनकी सख्ती का असर यह हुआ है कि अधिकारी पहली बार अपने घर से निकल कर जनता के पास जा रहे हैं और उनकी समस्याओं का समाधान मिनटों में निकाल रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ विभिन्न संगठनों के साथ अफसरों की संवादहीनता के कारण राज्य में एक किस्म की बेचैनी घर कर रही है। इस बेचैनी को सोमवार की सुबह आये एक फोन कॉल से आसानी से समझा जा सकता है। यह कॉल था, सहायक पुलिसकर्मियों के संगठन के एक नेता का, जो इस संवाददाता से केवल यह जानना चाह रहा था कि उनके साथ पिछले महीने हुए मिले आश्वासन का क्या हुआ और अधिकारियों ने उन आश्वासनों पर क्या कार्रवाई की है, जिनके आधार पर आंदोलन वापस लिया गया था। वह सहायक पुलिसकर्मी तमाम प्रयास के बाद भी अफसरों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहा है। उस सहायक पुलिसकर्मी का सवाल वाजिब था और उसकी चिंता से साफ हो गया कि लगभग यही स्थिति हर उस संगठन के भीतर है, जिन्होंने आश्वासन मिलने पर अपना आंदोलन वापस ले लिया था। इनमें विद्यार्थी-युवा भी हैं और पारा टीचर भी, सेविका-सहायिका भी हैं और मनरेगा कर्मी भी, संविदा कर्मी भी हैं और स्वास्थ्य कर्मी और शिक्षक भी। सहायक पुलिसकर्मी और चौकीदार-दफादार के साथ दूसरे संगठन भी हैं, जिन्होंने आश्वासनों के बाद आंदोलन वापस लिया था।

    उदाहरण के लिए पारा टीचरों को लेते हैं। 2019 में उनके लंबे आंदोलन को विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय का एक कारण माना गया था। पारा टीचरों की समस्या के समाधान के लिए कई बार बातचीत हुई और अधिकारियों की ओर से हर बार कहा गया कि मामला बस सुलझनेवाला है। लेकिन हकीकत यही है कि उनका मामला आज भी वहीं है, जहां तीन साल पहले था। इसी तरह मनरेगा कर्मियों और संविदा कर्मियों को दिया गया आश्वासन भी सचिवालय के किसी बाबू के टेबुल पर ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। सहायक पुलिसकर्मियों का आंदोलन खत्म करने में अखिलेश झा, डोडे और नौशाद आलम सरीखे तेज-तर्रार अधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, लेकिन सहायक पुलिसकर्मियों तक यह सूचना नहीं पहुंच पा रही है कि अधिकारियों द्वारा दिये गये आश्वासनों पर क्या कार्रवाई हुई या हो रही है।

    यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। खास कर उस राज्य में, जो आज भी गरीबों के मामले में देश में तीसरे स्थान पर है, जहां का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है और कोरोना महामारी के पौने दो साल की चोट से उबरने की कोशिश कर रहा है। यदि हर काम को राजनीतिक नेतृत्व खासकर मुख्यमंत्री के लिए ही छोड़ दिया जायेगा, तो फिर लोकतंत्र का ढांचा ही बिगड़ जायेगा और राज्य के विकास की गाड़ी थम जायेगी। इसलिए झारखंड के अधिकारियों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। उन्हें उन तमाम संगठनों के साथ जीवंत संवाद कायम रखना होगा, जिन्होंने महज आश्वासन पर आंदोलन वापस लिया है और राज्य के विकास में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए संवादहीनता की इस स्थिति को तत्काल खत्म करना जरूरी है। कोरोना काल के बाद विकास की पटरी पर लौटने के लिए आतुर झारखंड के कंधे पर आंदोलन का और अधिक बोझ नहीं डाला जा सकता, क्योंकि सर्वाधिक खनिज संपदा वाला यह प्रदेश धरती के ऊपर गरीबी के अभिशाप से पहले से ही कराह रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि झारखंड के अधिकारी किसी भी आंदोलन को खत्म कराने के लिए जो आश्वासन दिया जाये, उसे समय सीमा के अंदर पूरा करने का प्रयास करें, ताकि राज्य में असंतोष की आग को भड़कने से रोका जा सके। राज्य विकास की पटरी पर दौड़ सके और जनता का काम सुगमता से हो सके। और यह सब अधिकारियों की जवाबदेही से ही होगा। उन्होंने संवादहीनता की स्थिति तोड़नी होगी। संगठनों से सौहाद्रपूर्ण माहौल में बात करनी होगी।

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