- छपरा-सिवान में डूब गया बिहार का शराबबंदी कानून
- और इसके साथ ही दांव पर चढ़ गयी है नीतीश की सियासत
- आखिर प्रतिष्ठा में प्राण क्यों गंवा रहे हैं नीतीश कुमार
- एक तरफ हो रहा चार हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान
- दूसरी तरफ इसके अवैध धंधे और भ्रष्टाचार ने ले लिया संस्थागत रूप
देश में शराबबंदी करनेवाले चौथे राज्य बिहार के छपरा, सिवान और दूसरे जिलों में पिछले दिनों जहरीली शराब से हुई 70 से अधिक मौतों ने नीतीश कुमार सरकार के इस फैसले की कलई खोल कर रख दी है। इन मौतों ने साबित कर दिया है कि बिहार में शराबबंदी केवल कागजों पर है। नीतीश कुमार का यह फैसला राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण माना गया था, क्योंकि इसने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर बैठा दिया था, हालांकि यह तल्ख हकीकत है कि इस फैसले ने बिहार में शराब के अवैध कारोबार को संस्थागत रूप प्रदान कर दिया और भ्रष्टाचार का दानव कुछ और विकराल हो गया। राज्य को करीब चार हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान हुआ, सो अलग। अब जहरीली शराब कांड ने एक बार फिर नीतीश कुमार के शराबबंदी के फैसले पर सवालिया निशान लगा दिया है। विपक्ष के साथ-साथ सत्ता पक्ष से हमदर्दी रखनेवाले संगठन और लोग भी इस फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने लगे हैं। इनका कहना है कि आखिर जब चोरी-छिपे शराब बिक ही रही है, तो फिर इस पर रोक लगा कर राजस्व का नुकसान क्यों झेला जाये। वहीं कभी नीतीश के उत्तराधिकारी रहे जीतन राम मांझी ने तो यहां तक कह दिया कि बिहार के 60 फीसदी जन प्रतिनिधि और राजनीतिक लोग शराब का नियमित सेवन करते हैं। बिहार के बड़े-बड़े अधिकारी, विधायक, एमपी, मंत्री सब लोग रात 10 बजे अच्छी शराब पीते हैं। अब यह अच्छी शराब आती कहां से है, पता नहीं। ये लोग बॉर्डर क्रॉस कर थोड़े जाते होंगे रोज शराब पीने। ऐसे आम आदमी बॉर्डर पार कर थोड़ा टिका कर जरूर आता है बिहार में। टिकाने के बाद उसके मुंह से यह निकलने लगता है कि बिहार में बहार है। जो बॉर्डर नहीं क्रॉस करते हैं, वे जहरीली शराब की चपेट में आ जाते हैं। अब शराब पिया है, तो मरेगा ही। यह मैं नहीं कह रहा, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बयान है। बिहार में शराबबंदी के सच की परत-दर-परत उधेड़ने के साथ इसके सियासी असर का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
भगवान बुद्ध और तीर्थंकर महावीर की धरती बिहार एक बार फिर चर्चा में है और यह चर्चा हाल ही में राज्य के कई जिलों में जहरीली शराब से हुई मौतों के कारण से हो रही है। छपरा, सिवान, सारण और बेगूसराय समेत राज्य के कई जिलों में जहरीली शराब ने तांडव मचा रखा है। इस घटना ने राज्य में 1 अप्रैल, 2016 से घोषित पूर्ण शराबबंदी के फैसले को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। नीतीश कुमार ने जब शराबबंदी का फैसला किया था, तब उसे आधुनिक भारत का सबसे बड़ा और कठोर फैसला बताया गया था और इस एक फैसले ने नीतीश की लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचा दिया था। लेकिन इस फैसले की हकीकत बेहद कड़वी है। गुजरात, त्रिपुरा और मणिपुर के बाद शराबबंदी करनेवाले चौथे राज्य बिहार में शराब की खपत आज भी महाराष्ट्र, तेलंगाना और गोवा की तुलना में ज्यादा है।
शराबबंदी लागू होने के कुछ दिन पहले ही एक कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से एक महिला ने बिहार में शराब की दुकानों को लेकर शिकायत की थी। नीतीश कुमार ने उस महिला को आश्वस्त किया था कि वह बिहार में शराबबंदी कानून लागू करेंगे। नीतीश ने वादा पूरा तो किया, लेकिन अब यही कानून उनके गले का फांस बन चुका है। शराबबंदी के समय नीतीश कुमार राजद के साथ मिल कर सरकार चला रहे थे और संयोग से आज भी सरकार का स्वरूप यही है। लेकिन जहरीली शराब का सारा ठीकरा नीतीश कुमार पर फूट रहा है। सत्ता में साझीदार राजद सरकार के मुखिया की मजबूरी पर केवल मुस्कुरा रहा है। उसके दोनों हाथों में राजनीतिक लड्डू है। 2017 में नीतीश राजद से अलग हुए और तेजस्वी यादव नेता प्रतिपक्ष बने, तब उन्होंने शराबबंदी को लेकर नीतीश कुमार को घेरना शुरू कर दिया। तेजस्वी यादव ने तो यहां तक कहा था कि बिहार में शराब की होम डिलीवरी नीतीश कुमार की पुलिस ही करवा रही है। इसके अलावा कांग्रेस, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा समेत महागठबंधन में शामिल कुछ और दलों ने भी कठोर शराबबंदी कानून की आलोचना की। कभी नीतीश के उत्तराधिकारी रहे जीतन राम मांझी ने तो यहां तक कह दिया कि बिहार के 60 फीसदी जन प्रतिनिधि और राजनीतिक लोग शराब का नियमित सेवन करते हैं। बिहार के बड़े-बड़े अधिकारी, विधायक, एमपी, मंत्री सब लोग रात 10 बजे अच्छी शराब पीते हंै।
जहरीली शराब कांड के बाद लोग कटाक्ष भरे लहजे में कहते हैं कि बिहार में शराब ईश्वर की तरह है, जो मौजूद तो हर जगह है, लेकिन दिखाई सिर्फ उन्हें देता है, जो उसके सच्चे भक्त हैं। यानी लोगों का यह कहना है कि बिहार में हर जगह शराब मौजूद है और पीने वाले को आसानी से उपलब्ध हो जाती है। लोगों का यह भी कहना है कि पुलिस प्रशासन की मिलीभगत की वजह से शराब माफिया धड़ल्ले से बिहार में शराब की बड़ी खेप पहुंचा रहे हैं। शहर में तो शराब चोरी-छिपे बेची जा रही है, लेकिन गांवों में तो हालात बदतर है। खुलेआम पुलिस की नाक के नीचे न सिर्फ शराब बेची जा रही है, बल्कि लोग वहां शराब पी भी रहे हैं।
यह भी एक हकीकत है कि 2005 से 2015 के बीच बिहार में शराब दुकानों की संख्या दोगुनी हो गयी। शराबबंदी से पहले बिहार में शराब की करीब छह हजार दुकानें थीं और सरकार को इससे करीब चार हजार करोड़ रुपये का राजस्व आता था। बिहार में शराबबंदी कानून के प्रावधान काफी कड़े हैं। यही वजह रही कि बीते साढ़े पांच साल में करीब तीन लाख लोगों को शराबबंदी के उल्लंघन पर जेल हुई। इनमें करीब चार सौ से अधिक लोगों को सजा मिली। आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि कोई भी दिन ऐसा नहीं बीतता, जब राज्य के किसी ना किसी कोने से शराब की बरामदगी और शराबबंदी कानून तोड़ने की खबरें सुर्खियां ना बनती हों।
बिहार के जनजीवन में शराब का स्थान जानने के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2020 की रिपोर्ट काफी है। इसके अनुसार ड्राइ स्टेट होने के बावजूद बिहार में महाराष्ट्र से ज्यादा लोग शराब पी रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 15.5 प्रतिशत पुरुष शराब पीते हैं। महाराष्ट्र में शराब प्रतिबंधित नहीं है, लेकिन शराब पीने वाले पुरुषों की तादाद वहां 13.9 फीसदी ही है। अगर शहर और गांव के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में 15.8 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 14 फीसदी लोग शराब पीते हैं।
यह भी हकीकत है कि शराबबंदी के बावजूद बिहार में शराब आसानी से उपलब्ध है। यह अलग बात है कि लोगों को दो या तीन गुनी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे शराब देशी हो या विदेशी। पीने का शौक पूरा करने के लिए लोग झारखंड, यूपी या नेपाल तक चले जाते हैं। शराब पीने के शौकीन लोगों को अगर झारखंड या उत्तरप्रदेश से किसी समारोह का निमंत्रण मिलता है, तो वे अंदर ही अंदर बहुत खुश होते हैं। वैसे शराबबंदी के बावजूद बिहार में शराब के शौकीनों के लिए होम डिलिवरी की भी व्यवस्था है। यह सब कानून लागू होने के बाद हुआ। शुरू में कुछ दिनों तक लगा कि वाकई लोगों ने शराब से तौबा कर ली है। इसका सबसे ज्यादा फायदा निचले तबके के लोगों को मिला। परिवारों में खुशियां लौटीं। हालांकि समय के साथ धीरे-धीरे शराब शहर क्या, दूरदराज के इलाकों तक पहुंचने लगी। हालत यह है कि पुलिस और मद्य निषेध विभाग की टीम राज्य में हर घंटे औसतन 1341 लीटर शराब जब्त कर रही है। जाहिर है, इतना बड़ा खेल संगठित होकर ही किया जा रहा है। भारी मात्रा में शराब की बरामदगी से साबित होता है कि शराब व्यापारियों के सिंडिकेट को सरकार नहीं तोड़ पा रही है। आज तक किसी बड़ी मछली को नहीं पकड़ा जा सका है। पकड़े गये अधिकतर लोग या तो शराब पीने वाले हैं या फिर इसे लाने के लिए कैरियर का काम करने वाले हैं। यही कारण है कि बिहार में जहरीली शराब भी बिकती है और लोग इसे पीकर मर भी रहे हैं। इस अवैध कारोबार के फलने-फूलने में पुलिस भी पीछे नहीं है। इसका पता तब चला, जब साल 2018 में कैमूर में जब्त कर रखी गयी 11 हजार बोतल शराब के बारे में पुलिस ने अदालत को बताया कि चूहों ने शराब की बोतलें खराब कर दीं। एक अन्य घटना में पुलिस ने नौ हजार लीटर शराब खत्म होने का दोष चूहों के मत्थे मढ़ दिया। छपरा में जहां इस बार जहरीली शराब कांड हुआ, वहां के थाने से 25 हजार लीटर स्प्रिट ही गायब हो गयी थी। आशंका है कि इसी स्प्रिट से जहरीली शराब बनायी गयी थी।
बिहार की सच्चाई यही है कि शराब का अवैध कारोबार करने वालों ने समानांतर अर्थव्यवस्था कायम कर ली है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार में किसी भी ब्रांड की शराब की एक बोतल की कीमत पड़ोसी राज्यों के मुकाबले तीन सौ रुपये अधिक है। यह कारोबार अवैध है, लेकिन धड़ल्ले से चल रहा है।
इन तमाम नकारात्मक पहलुओं ने शराबबंदी के फैसले को वापस लेने की मांग को मजबूती प्रदान की है। विपक्ष ने इस तरह के दोषपूर्ण फैसले के लिए नीतीश कुमार को घेरा है और कहा है कि शराबबंदी अब प्रतिष्ठा में प्राण गंवाने जैसा हो गया है। इसलिए इसे वापस लिया जाना चाहिए। सरकार और नीतीश कुमार की नीतियों के समर्थक संगठन भी कहते हैं कि आज दो-तीन गुना कीमत पर लोग शराब खरीद कर पी रहे हैं। महंगी देशी-विदेशी शराब खरीदने के कारण गरीब परिवार भी आर्थिक बोझ से दब गया है। सरकार को चार से पांच हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान हो रहा है, वहीं इससे दोगुनी राशि शराब माफिया और उससे जुड़े लोगों की जेब में जा रही है। इस कानून की हकीकत अब कुछ और ही है, इसलिए इसकी समीक्षा कर शराब की कीमत दो-तीन गुना बढ़ा कर शराबबंदी खत्म की जाये।