बिहार में हाल में हुए जहरीली शराब कांड का तूफान अभी तक थमा नहीं है। इस तूफान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस बयान ने एक दुखद और अफसोसनाक पहलू जोड़ दिया है, जिसमें सीएम ने कहा है कि शराब पीकर मरनेवालों के परिजनों को सरकार मुआवजा नहीं देगी। इतना ही नहीं, जहरीली शराब से मरे लोगों के परिजनों के जले पर उन्होंने यह कह कर नमक छिड़क दिया है कि जो शराब पियेगा, वह मरेगा ही। इसमें सरकार कुछ नहीं कर सकती। नीतीश कुमार का यह स्टैंड अपरिपक्व और बचकाना ही नहीं, राजनीतिक रूप से असंवेदनशील है और सुशासन बाबू की उनकी छवि पर एक बदनुमा धब्बा भी है। जहरीली शराब से प्रभावित परिवार अब सवाल कर रहे हैं कि पीने वाला तो मर गया, लेकिन इसमें उनका क्या कसूर है। जहरीली शराब की बलि चढ़नेवाले मकानों पर पुताई करते थे, कबाड़ी का काम करते थे, दिहाड़ी मजदूर थे या छोटी सी दुकान चलाते थे। उनमें से कई नोएडा, दिल्ली, ओड़िशा और पंजाब में अपने घरों से दूर मजदूर थे, घर में शादी थी, तो आये थे। घर में शराब ने उन्हें मौत की नींद सुला दी और उनका परिवार अनाथ हो गया। बेसहारा विधवाएं और अनाथ हो गये बच्चे पूछ रहे हैं कि आखिर सरकार उन्हें किस बात की सजा दे रही है। इनका सवाल वाजिब है कि क्या जहरीली शराब कांड में सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। यदि सरकार इस पर ध्यान नहीं देगी, तो कौन देगा। आखिर कोई भी शराब कैसी भी शराब बिहार में बिक कैसे सकती है, जब पाबंदी लगी है। कहीं तो यह शराब बन रही होगी, बिक भी रही होगी। ऐसी जगहों का पता छुपाये नहीं छुपता है। यह तो सिस्टम का फेलियर है, नहीं तो प्रशसन अगर चाह ले, तो शराब का जखीरा क्या, एक बोतल तक बिहार में नहीं मिले। कहावत तो यह भी है कि पुलिस अगर चाह ले तो सुई भी ढूंढ़ लेती है, फिर वह तो जहरीली शराब की भट्ठी ही होगी, जहां से लोगों ने शराब लेकर पी होगी और काल के गाल में समा गये होंगे। बिहार की इन बेसहारा विधवाओं और अनाथ बच्चों के इन्हीं सवालों को टटोल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बिहार के जहरीली शराब कांड ने एक तरफ जहां नीतीश कुमार के नेतृत्ववाली महागठबंधन सरकार की शराबबंदी कानून की धज्जियां उड़ा दी हैं, वहीं इसके शिकार लोगों के परिजनों के प्रति नीतीश कुमार के स्टैंड ने बहुत गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है। सीएम नीतीश ने साफ कहा है कि जहरीली शराब पीकर मरे लोगों के परिजनों को सरकार कोई मुआवजा नहीं देगी। सीएम ने तो इससे एक कदम आगे बढ़ कर कह दिया कि जो शराब पियेगा, वो मरेगा ही। आखिर कोई सरकार से पूछ कर शराब पीने जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह स्टैंड किसी गंभीर और परिपक्व राजनेता का नहीं हो सकता, बल्कि यह जिम्मेदारी से भागने का प्रमाण है। यदि नीतीश जहरीली शराब कांड के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते हैं, तो क्या उनमें इतनी हिम्मत है कि वे उसी विधानसभा में खड़े होकर एलान करें कि शराब पीने वाले और उनके परिवार वाले उन्हें वोट भी न दें। इसके अलावा उन्हें यह भी समझना चाहिए कि मुआवजा मरने वालों को नहीं, मदद के तौर पर उनके परिवार वालों को दिया जाता है। ऐसे में जहरीली शराब पीकर मरे लोगों के परिजनों को मदद न देकर सरकार उन्हें भी कानूनन दोषी मान रही है। ये सवाल न केवल बिहार के लोग पूछ रहे हैं, बल्कि उन 75 परिवारों की विधवाएं और अनाथ बच्चे पूछ रहे हैं, जिनके पति या पिता जहरीली शराब के शिकार बन गये। इन्हें अपने परिजनों की असमय मौत का गम तो है ही, इस सरकार के असंवेदनशील रवैये के प्रति गुस्सा भी है और इस बात का दुख भी कि इस मुश्किल वक्त में वह सरकार ही गायब है, जिसे उन्होंने चुना था। वे पूछ रहे हैं कि सरकार ने उन्हें उस गुनाह के लिए दोषी ठहरा दिया है, जो उन्होंने किया ही नहीं। इन बच्चों के पिता नहीं रहे और अब सरकार ने इनके अनाथ होने को भी गैर-कानूनी करार दे दिया है। सीएम नीतीश के इस रवैये से मृतकों के वे परिवार निशाने पर हैं, जिनके पास शायद अब गुजारा करने के भी संसाधन नहीं बचे हैं। इस घटना से तीन अहम सवाल पैदा होते हैं। पहला सवाल यह है कि क्या शराब पीने की लत को अपराध माना जा सकता है और मरने के बाद उस शख्स के परिवार के मौलिक अधिकार को सरकार निलंबित कर सकती है। दूसरा सवाल यह है कि मरने वाले कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोग थे, 20-20 रुपये की शराब खरीद कर पीते थे। यह लत उन्हें कैसे लगी और उनका जीवन स्तर क्यों इसके लिए उन्हें मजबूर करता है, क्या इस नजरिये को दरकिनार किया जा सकता है। तीसरा और अंतिम सवाल यह है कि जहरीली शराब तो कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोगों की जान ले रही है, जो अंग्रेजी शराब पश्चिम बंगाल, झारखंड और यूपी-हरियाणा से आ रही है, उसे लेकर नीतीश-तेजस्वी चुप क्यों हैं। इन सवालों के जवाब इतनी आसानी से भले ही न मिलें, लेकिन भारतीय समाज का ताना-बाना ऐसा है, जहां मरनेवाले के प्रति कभी कोई गलत बात नहीं की जाती।
नीतीश ने इस तरह का बयान देकर केवल असंवेदनशीलता का ही परिचय नहीं दिया है, बल्कि बिहार में लागू सरकारी प्रावधानों के विपरीत भी स्टैंड लिया है। आमतौर पर बिहार में किसी की आकस्मिक मौत होती है, तो राज्य सरकार उनके परिजनों को चार लाख रुपये सहायता राशि देती है। नीतीश सरकार के मुलाजिम इस नियम का पालन भी ठीक-ठाक तरीके से करते हैं। कोरोना से हुई मौत पर भी राज्य सरकार की ओर से प्रत्येक पीड़ित परिवार को चार-चार लाख रुपये का मुआवजा दिया गया। जहरीली शराब से मरनेवाले ज्यादातर लोग भी समाज के निचले तबके से आते हैं। ऐसे में विपक्षी पार्टियां लगातार इस बात की मांग करती हैं कि पीड़ित के परिजनों को राज्य सरकार मुआवजा दे। इस मांग के पीछे तर्क यह है कि चूंकि शराबबंदी कानून का पालन कराना पुलिस-प्रशासन की जिम्मेदारी है और वह इस काम को ठीक से नहीं कर पाया। इसलिए राज्य सरकार को क्षतिपूर्ति करनी चाहिए। अगर प्रशासन से जुड़े लोग अपना काम ठीक से करते, तो लोगों की मौत नहीं होती।
लेकिन सवाल घूम-फिर कर वहीं आता है कि मौत चाहे जैसे भी हो, परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। कई बार तो घर के मुखिया की मौत के बाद परिवार ही उजड़ जाता है। लोग दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। जो पीछे छूट गये, उनको इससे क्या मतलब कि मौत की वजह क्या रही। वह जहरीली शराब से हुई या फिर हादसे में, या फिर कोई और वजह से। मौत तो मौत है, परेशानी तो परेशानी है। सहायता राशि मिल जाने से कम से कम पत्नी-बच्चों को उम्मीद मिल जाती है। उनके लिए सहारा का काम करता है। आगे के जीवन को संभालने में मदद मिलती है। घर-परिवार की गाड़ी पटरी पर आ जाती है। मरनेवाले की कोई भरपाई तो नहीं होती, मगर जीवन धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ लेता है। मानवता के लिहाज से सरकार की ओर से यह सहायता राशि दी जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि शराब पीने से मरने वालों के परिजनों के साथ भेदभाव कितना जायज है। इसमें घरवालों का क्या कुसूर है। जो बच्चे अनाथ हो गये, आखिर इसमें उनका क्या दोष है। उनकी मौत को भी तो प्राकृतिक नहीं कहा जा सकता। अगर राज्य में जो चीज प्रतिबंधित है और चोरी-छिपे उपलब्ध है, तो इसमें मृतकों के परिजनों का क्या दोष है। अगर सरकारी सिस्टम ठीक से काम करता, तो शायद यह नौबत ही नहीं आती। जहरीली शराब पीकर मरनेवालों में ज्यातार गरीब तबके के होते हैं। उनके परिजनों की आगे की जिंदगी मुश्किलों से भर जाती है। सवाल उठता है कि सरकार की सैकड़ों योजनाएं गरीबों का जीवन स्तर सुधारने के लिए चलती हैं, तो परिजनों को मदद नहीं करना कितना जायज है।