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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»खतरनाक है केंद्रीय एजेंसियों को लेकर केंद्र-राज्य के बीच का टकराव
    स्पेशल रिपोर्ट

    खतरनाक है केंद्रीय एजेंसियों को लेकर केंद्र-राज्य के बीच का टकराव

    दोनों संवैधानिक इकाइयों के बीच बढ़ती दूरी से विकट हो जायेगी स्थिति | इसे पाटने की पहल नहीं हुई, तो खत्म हो जायेगी संघवाद की अवधारणा
    adminBy adminDecember 16, 2022No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    झारखंड सरकार ने प्रवर्तन निदेशालय (इडी) के अधिकार क्षेत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है। इसमें कहा गया है कि भारतीय दंड विधान, यानी आइपीसी की किसी धारा में दर्ज मामले की जांच में इडी की कोई भूमिका नहीं है। याचिका पर सुनवाई जनवरी में होगी, लेकिन झारखंड सरकार के इस कदम के साथ ही एक बार फिर केंद्रीय जांच एजेंसियों को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच बढ़ती दूरी का मुद्दा गरम हो गया है। इडी हाल के दिनों में उन राज्यों में विशेष रूप से सक्रिय है, जहां विपक्षी दलों की सरकार है। इसलिए इस संस्था की विश्वसनीयता पर अकसर सवाल उठने लगे हैं। इडी के अधिकार क्षेत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने वाला झारखंड हालांकि पहला राज्य है, लेकिन इसकी भूमिका को लेकर कई राज्यों ने सवाल खड़े किये हैं। केरल, तेलंंगाना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और पंजाब में भी इडी की कार्रवाइयों पर सवाल खड़े किये जा चुके हैं। इससे पहले देश की सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसी सीबीआइ पर कम से कम आठ राज्यों में रोक लगायी जा चुकी है। केंद्रीय जांच एजेंसियों को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच इस बढ़ते फासले से एक गंभीर सवाल यह पैदा हो गया है कि क्या भारतीय संघवाद की अवधारणा एक-एक कर बिखर रही है। केंद्र और राज्यों के रिश्तों की बुनियाद पर खड़ी भारतीय संघ की परिकल्पना को कौन कमजोर बना रहा है। निश्चित रूप से इसकी पूरी जिम्मेवारी केंद्र सरकार की है। इसलिए एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच के संबंधों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत आ गयी है। यदि इस बारे में तत्काल पहल नहीं की गयी, तो सब कुछ खत्म हो जायेगा और तीन दशक पहले दुनिया की महाशक्ति के रूप में प्रख्यात सोवियत संघ के बिखराव का खतरा विश्वगुरु बनने की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहे भारत पर भी मंडराने लगेगा। आखिर इस रिश्ते की डोर में इतनी गांठें कहां और किस वजह से पड़ गयीं। यह एक ऐसा सवाल दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने पैदा हो गया है, जिसका जवाब खोजना अब अनिवार्य हो गया है। केंद्र और राज्यों के बीच तल्ख होते रिश्तों और इसके संभावित परिणामों का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के राज्य समन्वय संपादक अजय शर्मा।

    पिछले कुछ दिनों से झारखंड में अवैध खनन समेत कई मामलों की जांच कर रही प्रवर्तन निदेशालय (इडी) एक बार फिर सवालों के घेरे में है। झारखंड सरकार ने इस केंद्रीय एजेंसी के अधिकार क्षेत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दी है। इस याचिका में कहा गया है कि इडी को भारतीय दंड विधान के तहत दर्ज किसी मामले में जांच का अधिकार नहीं है। भारतीय दंड विधान, यानी आइपीसी ही वह ग्रंथ है, जिस पर भारत की कानून-व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा निर्भर है। झारखंड सरकार की याचिका पर जनवरी में सुनवाई होगी, लेकिन तब तक राज्य के पुलिस अधिकारियों को इडी के सामने पेश होने से राज्य सरकार ने मना कर दिया है। याचिका पर फैसला बाद में आयेगा, लेकिन फिलहाल सवाल यह है कि केंद्रीय एजेंसियों को लेकर केंद्र और राज्य के बीच के इस टकराव का परिणाम क्या होगा।
    अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में ‘एमएडी’ नामक एक सिद्धांत बहुत प्रचलित है। इसका अर्थ है म्युचुअली एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन, यानी परस्पर विनाश की सहमति। इस सिद्धांत के अनुसार यदि एक देश दूसरे के खिलाफ परमाणु हथियार का इस्तेमाल करे, तो जवाब में तीन हमले किये जायेंगे, क्योंकि दोनों युद्धरत पक्षों को यकीन होगा कि तबाही दोतरफा होगी, इसलिए शांति बहाल रहेगी। यह सिद्धांत इतना कारगर है कि इसने पिछले 75 वर्षों से बड़ी वैश्विक ताकतों के बीच शांति कायम रखी है।
    भारत के संदर्भ में इस सिद्धांत को झारखंड सरकार की इस याचिका से आसानी से समझा जा सकता है। इडी वह परमाणु हथियार है, जिससे झारखंड पर हमला हो रहा है, तो इसके जवाब में झारखंड की ओर से जवाबी हमला याचिका के रूप में किया गया है। इसका परिणाम यह होगा कि झारखंड के साथ भारत भी तबाह होगा। इडी की कार्रवाई को लेकर सवाल करनेवाला झारखंड पहला राज्य नहीं है। इतना जरूर है कि इसके अधिकार क्षेत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाला वह पहला राज्य है। इससे पहले नौ राज्यों ने इडी की कार्रवाई पर सवाल खड़े किये हैं और अब तो संसद में भी यह मामला उठाया गया है।
    केवल इडी ही नहीं, देश की सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसी सीबीआइ पर कम से कम आठ राज्यों की सरकारों ने रोक लगा रखी है। इसलिए अब यह मुद्दा उस चरम बिंदु पर पहुंच गया है, जहां आज से तीन दशक पहले दुनिया की महाशक्ति सोवियत संघ खड़ा था। सोवियत संघ के बिखराव का राजनीतिक कारण भले ही कुछ और रहा हो, इसकी जड़ में संघीय सरकार का प्रांतीय सरकारों के कामकाज में बढ़ता हस्तक्षेप था।
    यह कहना मुश्किल है कि इस विवाद की शुरूआत किसने की, लेकिन इतना तो तय है कि इस विवाद से यदि कुछ खत्म होगा, तो वह भारत का संघवाद है।
    लेकिन यहां बड़ा सवाल यह उठता है कि कोई राज्य केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई पर सवाल क्यों करता है। इससे पहले झारखंड समेत कम से कम आठ राज्यों ने देश की सर्वश्रेष्ठ और सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी सीबीआइ के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिये थे। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन सभी राज्यों में विरोधी दलों की सरकार है। अलग-अलग राज्यों का यह फैसला जितना राजनीतिक है, उससे कहीं अधिक प्रशासनिक और केंद्र के साथ राज्यों के तल्ख होते रिश्तों का परिचायक है।
    इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले 9 मई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है, जिसमें उसने सीबीआइ को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। सर्वोच्च अदालत ने कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि सीबीआइ पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गयी है, जो अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है, जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। अदालत ने सीबीआइ को बाहरी प्रभावों और दखल से मुक्त करने के लिए सरकार से कानून बनाने को भी कहा था। उसने कहा कि सीबीआइ को सभी दबावों से निपटना आना चाहिए। अदालत इतने पर ही नहीं रुकी। उसने सीबीआइ अधिकारियों से कहा था, ‘आप इतने संवेदनशील मामले में भी अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आपको 15 साल पहले (विनीत नारायण मामले में) ताकतवर बनाया था। आपको खुद को चट्टान की तरह सख्त बनाना चाहिए, लेकिन आप रेत की तरह भुरभुरे हैं। हम बहुत प्रोफेशनल, बहुत उच्च कोटि की और बेहद सटीक जांच चाहते हैं।’
    सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वर्तमान स्थिति के संदर्भ में एकदम सटीक प्रतीत होती है। आज सीबीआइ और इडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कहां और कैसे होता है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में यह स्वाभाविक लगता है कि केंद्र के साथ राज्यों का संबंध तल्ख हो जाये।
    लेकिन राजनीति से अलग हट कर देखा जाये, तो यह भारतीय संघ के लिए किसी गंभीर संकट का संकेत है। केंद्र और राज्यों के बीच जिस मजबूत रिश्ते की परिकल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी, यह उसे तार-तार किये जाने का प्रमाण है। और इसकी पूरी जिम्मेवारी केंद्र के कंधे पर ही है, क्योंकि देश को चलाने की जिम्मेवारी उसकी होती है।
    यह स्थापित सत्य है कि परिवार का मुखिया अपना पेट सबसे अंत में भरता है। इसके साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों से जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार उसका अधिकार होता है। परिवार का कोई सदस्य यदि अपनी जिम्मेवारी नहीं निभाता है, तो उसके प्रति कड़ा रुख अख्तियार करना भी मुखिया का अधिकार होता है। ऐसा लगता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस स्थापित अवधारणा के विपरीत रास्ते पर चल पड़ा है, जिसके खतरनाक परिणामों के प्रति भी वह लापरवाह हो गया है। केंद्र और राज्य की हर समस्या को राजनीति के चश्मे से देखना कहीं से भी उचित नहीं हो सकता। इसलिए आज जो संकट खड़ा हुआ है, उसे दूर करने की पहल केंद्र को ही करनी होगी।
    अब भी देर नहीं हुई है। केंद्र और राज्यों के बीच रिश्तों की डोर में जो गांठें पड़ गयी हैं, उन्हें खोलने की पहल तत्काल शुरू किये जाने की जरूरत है। रहीम ने हालांकि कहा है कि रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाये, लेकिन सभी को यह समझना चाहिए कि धागा अभी टूटा नहीं है, सिर्फ उलझा है और इसे सुलझाया जा सकता है।

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