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झारखंड सरकार की नियोजन नीति को हाइकोर्ट ने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है। अदालत ने कहा है कि इस नीति के आधार पर जितनी भी नियुक्तियां की गयी हैं या प्रक्रिया चल रही है, वे सभी इस फैसले से प्रभावित होंगी और नियुक्तियां रद्द मानी जायेंगी। यह पहली बार नहीं है, जब झारखंड की नियोजन नीति को अदालत में मुंह की खानी पड़ी है। इससे पहले 2016 की नियोजन नीति को पहले हाइकोर्ट ने और फिर सुप्रीम कोर्ट में असंवैधानिक ठहराया जा चुका है। हाइकोर्ट के ताजा फैसले के बाद करीब दस हजार पदों पर नियुक्तियों के लिए चल रही प्रक्रिया पर ब्रेक लग गया है और कई अन्य नियुक्ति प्रक्रियाएं अब नये सिरे से शुरू होंगी। लेकिन इस फैसले के बाद एक बड़ा सवाल उठता है कि आखिर सरकारी अधिकारियों की गलती या लापरवाही की सजा झारखंड के बेरोजगार कब तक भुगतते रहेंगे। यह सभी जानते हैं कि सरकार की कोई भी नीति तैयार करने में अधिकारियों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि कानूनी पेंचीदगियों से वे अच्छी तरह परिचित होते हैं। इसके बावजूद बार-बार सरकार की नीतियां अदालती दलीलों की कसौटी पर बिखर क्यों जाती हैं, यह सवाल इन अधिकारियों से पूछा जाना चाहिए। लेकिन विडंबना यही है कि इस तरह की गलती के लिए कभी किसी अधिकारी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व पर सवाल खड़े किये जाते हैं। इसके कारण यह पूरा मामला प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक रंग ले लेता है और कुछ दिन बाद सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट जाता है। बेरोजगार ठगे रह जाते हैं। नियोजन नीति पर हाइकोर्ट के आदेश के बाद पैदा हुई इसी स्थिति का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड सरकार द्वारा 2021 में लागू की गयी नियोजन नीति को हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया है। इस फैसले के साथ ही राज्य के 10 हजार से अधिक बेरोजगार युवाओं के नौकरी पाने के सपने टूट कर बिखर गये हैं। इतना ही नहीं, जिन कुछ लोगों की नियुक्ति इस नीति के आधार पर हो चुकी है, उनके भी बेरोजगार होने का खतरा मंडराने लगा है। यह पहली बार नहीं है, जब झारखंड सरकार की नियोजन नीति अदालत ने रद्द कर दी है। इससे पहले 2016 की नियोजन नीति को हाइकोर्ट ने और फिर सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी है। इस नियोजन नीति के तहत झारखंड के 13 अनुसूचित जिलों के सभी तृतीय व चतुर्थवर्गीय पदों को उसी जिले के स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षित किया गया था, वहीं गैर अनुसूचित जिले में बाहरी अभ्यर्थियों को भी आवेदन करने की छूट दी गयी थी। इस बार की नियोजन नीति में झारखंड से 10वीं और 12वीं पास का मामला था।
हाइकोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब सवाल यह उठ रहा है कि आखिर झारखंड सरकार बार-बार ऐसी नीति क्यों तैयार करती है, जो कानून की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है। इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले उन बेरोजगारों की मनोदशा को ध्यान में रखना होगा, जिनके सपने उनकी किसी गलती के बिना ही बिखर गये हैं। इन बेरोजगारों ने फीस देकर आवेदन फॉर्म भरा होगा, परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग को मोटी फीस दी होगी, दिन-रात खून-पसीना बहा कर तैयारी की होगी, लेकिन हाइकोर्ट के इस फैसले से वे फिर एक अनिश्चित भविष्य के दोराहे पर आकर खड़े हो गये हैं। ये बेरोजगार पूछ रहे हैं कि आखिर अधिकारियों की लापरवाही का खामियाजा वे क्यों भुगत रहे हैं।
बेरोजगारों का यह सवाल पूरी तरह वाजिब है। सरकार की कोई भी नीति या नियम तैयार करने की जिम्मेवारी अधिकारियों की होती है। ये अधिकारी ही होते हैं, जिन्हें कानूनी पेचीदगी और दूसरे नियमों की जानकारी होती है। राजनीतिक नेतृत्व तो केवल नीतियों की घोषणा करता है। लेकिन झारखंड में किसी अदालती फैसले की जिम्मेवारी अधिकारियों पर नहीं होती।
यह झारखंड के साथ बड़ी विडंबना है कि यहां किसी भी गलती को हमेशा राजनीतिक चश्मे से ही देखा जाता है, जबकि होना यह चाहिए कि अदालती फैसले की समीक्षा करते समये अधिकारियों की भूमिका और जिम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए। ऐसा नहीं होता है और गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है।

विधि विभाग ने जतायी थी आपत्ति
हाइकोर्ट ने जिस नियोजन नीति को रद्द किया है, उसके बारे में कहा जाता है कि 17 महीने पहले जब यह नीति बन रही थी, तब विधि विभाग ने इसे मौलिक अधिकारों का हनन बताया था। इसमें सुधार करने की बात कही थी, लेकिन कुछ अधिकारियों की लापरवाही के आगे विधि विभाग की आपत्ति दरकिनार कर दी गयी और नियमावली बना दी गयी। इस नियोजन नीति को पिछले साल 29 जुलाई को कैबिनेट से पारित किया गया था। कैबिनेट में इस नीति को मंजूरी मिलने से पहले विधि विभाग ने परामर्श देते हुए कहा था कि यह नियमावली भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। विधि विभाग ने अपनी टिप्पणी में कहा था कि नियमावली की अधिसूचना प्रारूप के नियम-2 में वर्णित केवल झारखंड राज्य के शैक्षणिक संस्थान से ही शैक्षणिक योग्यता हासिल किये गये अभ्यर्थी को पात्र बनाये जाने का प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इसके साथ ही विधि विभाग ने कहा था कि वैसे अभ्यर्थी, जो झारखंड राज्य में मात्र शिक्षा ग्रहण किये हों और उनके माता-पिता दूसरे राज्य के निवासी हों, वे पात्र हो सकते हैं। जबकि इस राज्य के निवासी अगर अन्य राज्य से शैक्षणिक योग्यता प्राप्त किये हो, तो वे पात्र नहीं हो सकते हैं। ऐसे में यह प्रावधान व्यावहारिक एवं विधि सम्मत प्रतीत नहीं हो रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के मामले का भी दिया था रेफरेंस
विधि विभाग ने अपनी सलाह में सुप्रीम कोर्ट में चले मामले का भी संदर्भ दिया था। विभिन्न मामलों का हवाला देते हुए विधि विभाग ने कहा था कि इन्हीं मामलों की तरह नयी नियुक्ति नियमावली भी अनुच्छेद 16 (2) से प्रभावित है और नयी नियुक्ति नियमावली पर उक्त मामलों से संबंधित सुप्रीम कोर्ट का आदेश आच्छादित है।

हिमाचल प्रदेश की नकल थी राज्य की नियमावली
जिस नियोजन नीति को झारखंड हाइकोर्ट ने रद्द किया है, उस नीति की अहम शर्त को सरकार ने हिमाचल प्रदेश से लिया था। इसे लेने की सलाह महाधिवक्ता ने दी थी। उन्होंने सलाह देते हुए लिखा था कि इस तरह का प्रावधान हिमाचल प्रदेश के नियोजन नियम में है। महाधिवक्ता के परामर्श के बाद राज्य सरकार ने अपनी नियोजन नीति में राज्य से 10वीं और 12वीं की पढ़ाई करने की शर्त को शामिल किया, जबकि हिमाचल प्रदेश की नियमावली से राज्य सरकार ने आधे नियम को ही उठाया।
महाधिवक्ता ने नियमावली पर सरकार को जो परामर्श दिया था, उसमें हिमाचल प्रदेश नियुक्ति नियमावली का रेफरेंस दिया गया है। इसके अनुसार हिमाचल प्रदेश में तीसरी श्रेणी की नौकरी करने के लिए उम्मीदवार का हिमाचल प्रदेश से ही मैट्रिक पास होना जरूरी है। वहीं चौथी श्रेणी की नौकरी करने के लिए हिमाचल प्रदेश से इंटर होना जरूरी है। सबसे अहम बात यह है कि हिमाचल सरकार ने अपनी नियमावली में बोनाफाइड हिमाचली को इस शर्त से छूट दी है। हिमाचली बोनाफाइड श्रेणी में वो लोग आते हैं, जिनका हिमाचल में स्थायी आवास हो या हिमाचल में 20 साल या इसे अधिक समय से रहते हों या हिमाचल प्रदेश में स्थायी आवास हो, लेकिन पेशेवर कारणों से प्रदेश से बाहर रहते हों। झारखंड सरकार की नियोजन नीति में हिमाचल प्रदेश नियुक्ति नियमावली के एक हिस्से को लगभग हू-ब-हू लिया गया, जिसके आधार पर कहा गया कि झारखंड में क्लास तीन और चार श्रेणी की नौकरी करने के लिए इसी राज्य से उम्मीदवार का क्रमश: मैट्रिक और इंटर पास होना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश नियुक्ति नियमावली के दूसरे हिस्से, जिसमें बोनाफाइड हिमाचली का जिक्र है, उस तरह का प्रावधान यहां की नियमावली में नहीं रखा गया। अधिकारियों की यही गलती हाइकोर्ट में सामने आ गयी और पूरी की पूरी नीति ही रद्द कर दी गयी।
भले ही सरकार हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करे, लेकिन इससे मामला सुलझनेवाला नहीं है। झारखंड के अधिकारियों को अब इस तरह की गलती से सबक लेकर नये सिरे से नीति तैयार करनी चाहिए। इससे बेरोजगारों में भी नयी आशा का संचार होगा और राजनीतिक नेतृत्व पर भी सवाल नहीं उठाये जा सकेंगे।

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