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    Home»विशेष»चंपाई सोरेन की परीक्षा का समय शुरू होता है अब
    विशेष

    चंपाई सोरेन की परीक्षा का समय शुरू होता है अब

    shivam kumarBy shivam kumarAugust 29, 2024No Comments17 Mins Read
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    चुनाव में साफ हो जायेगा टाइगर की उपाधि गुरुजी के विश्वासपात्र रहने से मिली थी, या खुद के दमखम पर
    -बाबूलाल मरांडी और चंपाई सोरेन की तुलना बेमानी
    -बाबूलाल झारखंड के नेता हैं, चंपाई सोरेन कोल्हान की कुछ सीटों तक सीमित हैं
    पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा में शामिल होने जा रहे चंपाई सोरेन की कोल्हान के राजनीतिक फलक पर पकड़ की परीक्षा 28 अगस्त से शुरू हो गयी। चार दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट के जरिये लिखा था कि वक्त आने दे दिखा देंगे तुझे ए आसमां, हम अभी से क्यों बतायें क्या हमारे दिल में है। इस पोस्ट के माध्यम से चंपाई सोरेन ने अपने विरोधियों को यह जताने की कोशिश की कि झारखंड की राजनीति खासकर कोल्हान क्षेत्र में उनका महत्व क्या है। और जब समय आयेगा, तब वह दिखा देंगे कि कोल्हान टाइगर उन्हें ऐसे ही नहीं कहा जाता। लेकिन अब मोटिवेशनल स्पीच नहीं, चंपाई सोरेन को यह साबित करना होगा कि क्या उन्हें कोल्हान टाइगर की उपाधि गुरुजी शिबू सोरेन और जेएमएम के कारण मिली थी, या खुद के दम-खम से उन्होंने हासिल किया था। जब से चंपाई सोरेन के भाजपा में आने की बात चली है, तब से चंपाई सोरेन और बाबूलाल मरांडी को लेकर राजनीतिक गलियारे में कई सवाल उठाये जा रहे हैं। तरह-तरह की बातें भी की जा रही हैं। लोग दोनों में तुलना भी कर रहे हैं। जाहिर है बाबूलाल मरांडी का झारखंड की राजनीति में जो कद है और उनके पास झारखंड के मुद्दों की जो समझ है, उसकी तुलना चंपाई सोरेन से नहीं की जा सकती। बाबूलाल मरांडी की पहचान झारखंड नेता के रूप में स्थापित है। वहीं चंपाई सोरेन का प्रभाव खासकर कोल्हान की सात सीटों पर सीमित है। यहां यह भी समझना जरूरी है कि पहले की बात कुछ और थी, तब चंपाई सोरेन जेएमएम के नेता थे, वह गुरु जी शिबू सोरेन को अपना आदर्श मानते थे और जेएमएम उनके लिए सर्वोपरि था। पहले उन्हें हेमंत सोरेन के नेतृत्व में पूरी आस्था थी और वह जेएमएम के समर्पित सिपाही होने के कारण पार्टी का हर आदेश मानते थे। उनके गुरुजी के प्रति विश्वास और पार्टी के प्रति निष्ठा को देखते हुए, कोल्हान के जेएमएम समर्थकों ने उन्हें टाइगर की उपाधि से नवाजा था। चंपाई के इसी विश्वास और लगन के कारण, हेमंत सोरेन को जब जेल हुई, तब उन्होंने परिवार में अपनों की जगह, चंपाई सोरेन पर विश्वास किया और अपने उत्तराधिकारी के रूप में चंपाई सोरेन को सीएम की कुर्सी सौंप दी। हेमंत के जेल से बाहर आने के बाद झारखंड के बदले राजनीतिक हालात के कारण झामुमो और कांग्रेस ने यह तय किया कि सीएम पद की कुर्सी फिर से हेमंत सोरेन को सौंप दी जाये। उसका आधार बना हाइकोर्ट का वह आदेश, जिसमें हाइकोर्ट ने कहा था कि जमीन घोटाले में हेमंत सोरेन की संलिप्तता का सीधा और कोई ठोस सबूत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग केस में शामिल होने के ठोस सबूत अभी तक सामने नहीं आये हैं। हेमंत सोरेन को जमानत देते हुए हाइकोर्ट ने कहा था कि वह प्रिवेंशन आॅफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत जमानत की दोनों शर्तों को पूरा करते हैं। उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। हाइकोर्ट का यह आदेश महागठबंधन और खासकर जेएमएम के लिए सुकून देनेवाला था। लिहाजा हेमंत सोरेन की पुन: ताजपोशी की तैयारी होने लगी। महागठबंधन की बैठक हुई, हेमंत सोरेन को नेता चुना गया और मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन को जेएमएम ने इस्तीफा सौंपने को कहा। इस्तीफा सौंपने के निर्देश पर चंपाई सोरेन नाराज भी हुए और कुछ दिनों के लिए खुद को अकेलेपन में कैद कर लिया। जब हेमंत सोरेन ने फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो उन्होंने चंपाई सोरेन को अपनी कैबिनेट में फिर से जगह दी। चंपाई ने उसे सहर्ष स्वीकार भी किया और विभाग के कामकाज में लग गये। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीता, उन्हें ये एहसास हुआ कि उन्हें अपमानित किया गया है, और उनकी भावना को ठेस पहुंचायी गयी है। उनके इस अहसास में तब और वृद्धि हुई, जब भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने यह बयान दिया कि चंपाई का अपमान हुआ है। अब चंपाई सोरेन इन बयानों के बाद प्रभावित हुए या इस बीच भाजपा नेताओं के संपर्क में थे, इसे तो चंपाई ही बेहतर बता पायेंगे। फिलहाल चंपाई सोरेन हिमंता बिस्व सरमा के साथ गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात और उसके बाद भाजपा में शामिल होने की घोषणा और पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में आस्था जताने के बाद, झारखंड के राजनीतिक क्षितिज पर कुछ सवाल तैर रहे हैं। एक सवाल यह भी किया जा रहा है कि क्या चंपाई सोरेन के पार्टी में आने के बाद बाबूलाल मरांडी की पार्टी में कद पर असर पड़ेगा? यहां सवाल भी उठ रहे हैं कि एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि हाल के दिनों में भाजपा आदिवासी समाज पर ही फोकस कर रही है, जो उसके कोर मतदाता हैं, यानी हिंदू और बिहारी मतदाताओं पर फोकस नहीं है। यही सवाल लोकसभा चुनाव में भी उठा था, जिसका जवाब भाजपा के कोर मतदाताओं ने देश भर में दे दिया। जाहिर है, जब ऐसे सवाल उठेंगे, तो बाबूलाल मरांडी और चंपाई सोरेन के बीच फर्क की पड़ताल भी होगी। बाबूलाल मरांडी ऐसे आदिवासी नेता हैं, जिनकी पकड़ आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों में समान रूप से है। बाबूलाल मरांडी झारखंड के नेता हैं और चंपाई सोरेन की पैठ कोल्हान की कुछ सीटों तक ही सीमित है। नक्सलियों का सफाया करने के क्रम में बाबूलाल मरांडी ने झारखंड के लिए अपने पुत्र को कुर्बान कर दिया था, लेकिन यहां तो अधिकतर नेता अपने पुत्र को टिकट दिलाने की पैरवी में लगे रहते हैं। शिबू सोरेन ने जब हेमंत सोरेन को आगे बढ़ाया, तो चंपाई सोरेन भी अब अपने पुत्र को टिकट दिलाना चाहते हैं। क्या अंतर है बाबूलाल मरांडी और चंपाई सोरेन के बीच और कैसे अब जेएमएम से अलग होकर चंपाई सोरेन के समक्ष अपने प्रभाव का एहसास दिलाने की चुनौती है, इस पर विस्तार से बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    बात, जो बाबूलाल मरांडी को दूसरे नेताओं से अलग करती है
    दरअसल, बाबूलाल मरांडी झारखंड की वह संपदा हैं, जिसका बार-बार दोहन हुआ, लेकिन उनके राजनीतिक चेहरे पर चमक आज भी बरकरार है। वह राजनीति के कठोर झंझावातों से होकर गुजरे हैं। उनके चेहरे पर हर समय मुस्कान तो दिखती है, लेकिन उसके पीछे कई दर्द की शृंखला भी है। झारखंड को अव्वल बनाने की चाहत ने उनसे कई बलिदान भी लिये हैं। बाबूलाल मरांडी शुरू से ही पार्टी और संगठन को मजबूत बनाने में विश्वास रखते रहे हैं। जब बाबूलाल मरांडी हाइस्कूल में पढ़ रहे थे, उसी समय से संघ से उनका संपर्क होना शुरू हुआ। जब वह कॉलेज आये, तब वह नियमित रूप से शाखा में आना-जाना करने लगे। वर्ष 1983 में गंगा जल लेकर गिरिडीह में विश्व हिंदू परिषद का जो कार्यालय था, वहां यात्रा निकालने की जिम्मेदारी बाबूलाल के ऊपर थी। यही वह दौर था, जब बाबूलाल पूरी तरह से संघ से जुड़ गये। उन्होंने वर्ष 1981 में इंटर पास करने के बाद एक साल तक शिक्षक की नौकरी की, प्राइमरी स्कूल में। शिक्षक की नौकरी के दरम्यान एक घटना ने बाबूलाल को अंदर से हिला कर रख दिया। पसरे भ्रष्टाचार का पहला अनुभव उन्होंने वहीं किया और नौकरी को ठोकर मार दी। वर्ष 1998 का लोकसभा चुनाव। बाबूलाल के सामने थे झारखंड के सबसे ताकतवर आदिवासी नेता शिबू सोरेन। इस चुनाव में बाबूलाल मरांडी ने शिबू सोरेन को हरा कर अपना लोहा मनवाया। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी, लेकिन वह सरकार 13 दिन में ही गिर गयी। उस सरकार में उन्हें वन पर्यावरण राज्यमंत्री बनाया गया था। उसके बाद 1999 में फिर चुनाव हुआ। उस चुनाव में शिबू सोरेन नहीं लड़े। उनकी पत्नी रूपी सोरेन चुनाव मैदान में थीं। उस समय भी बाबूलाल मरांडी जीते और अटल जी की सरकार में उन्हें वन पर्यावरण राज्यमंत्री बनाया गया। इसी बीच 2000 में अलग राज्य की घोषणा हो गयी। भाजपा को मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव करना था। इस दौड़ में कड़िया मुंडा सबसे आगे थे। बात तो यहां तक सामने आयी कि उन्हें दिल्ली से रांची लाने के लिए कोल इंडिया का विमान भी तैयार था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की दूरदर्शिता के कारण बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने बेहतरीन काम किये, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। 28 महीनों में ही बाबूलाल मरांडी ने सड़क से लेकर बिजली, परिवहन व्यवस्था, ट्रेन और उसकी कनेक्टिविटी की सुविधा तक को दुरुस्त करने पर काम किया। उन्होंने रूरल कनेक्टिविटी पर ध्यान दिया। उनका विजन था कि झारखंड की सिर्फ राजधानी स्मार्ट नहीं हो, शहर सिर्फ स्मार्ट नहीं हों, बल्कि गांव भी स्मार्ट हों। बाबूलाल ने मेरे द्वारा लिये गये एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में भी भ्रष्टाचार था। कहा था कि भ्रष्टाचार की बात सोच कर हमें रात में नींद नहीं आती थी। उस पर उन्होंने लगाम लगाने का बहुत प्रयास किया था। 2002 के अगस्त महीने में जब इंडिया टुडे ग्रुप ने देश के मुख्यमंत्रियों पर जनता की राय ली थी, तब चंद्रबाबू नायडू सबसे बेहतर मुख्यमंत्री पाये गये थे, दूसरे स्थान पर नारायण दत्त तिवारी थे और तीसरे स्थान पर झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी। यह अपने आपमें बहुत बड़ी उपलब्धि थी। झारखंड जैसा राज्य, जो गरीबी और नक्सली समस्या की मार झेल रहा था, वहां पर इतने कम समय में बाबूलाल मरांडी ने अपने काम के बूते झारखंड को एक अलग पहचान दिलायी। तब के और अभी के सर्वे में बहुत अंतर है। तब मीडिया पर यह आरोप नहीं लगता था कि वह मैनेज होती है और यह भी प्रचलन में नहीं था कि नेता पैसा खिला कर अपनी वाहवाही बटोरे।

    नक्सलियों पर लगाम लगाने की कीमत चुकायी बाबूलाल ने
    झारखंड में नक्सलियों का आतंक चरम पर था। बाबूलाल मरांडी ने उन पर लगाम लगाने की पूरी कोशिश की थी। उन्हें कामयाबी भी हासिल हुई, लेकिन नक्सलियों ने इसका बदला, उनके बेटे की हत्या कर लिया। बाबूलाल को झारखंड की जनता की सुरक्षा की कीमत अपने बेटे को गंवा कर चुकानी पड़ी। उन दिनों बाबूलाल मरांडी का नाम नक्सलियों की हिटलिस्ट में सबसे ऊपर था। दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम था और तीसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का नाम था।

    कुर्सी छोड़ दी, लेकिन गलत दबाव नहीं माने
    मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने 28 महीनों तक बेदाग सरकार चलायी। उनके कार्यकाल के दौरान गठबंधन सरकार के तत्कालीन नेताओं लालचंद महतो, मधु सिंह, रमेश सिंह मुंडा और जलेश्वर महतो, समरेश सिंह ने बिजली बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन राजीव कुमार को हटाने की मांग रख दी। राजीव कुमार उस समय बिजली विभाग में अच्छा काम कर रहे थे और उनके काम में कोई गलती नहीं थी। बाबूलाल ने उन नेताओं का प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया और नतीजा यह हुआ कि उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी।

    बाबूलाल मरांडी को अन्य नेताओं से अलग करती है उनकी चल्लेंजिंग स्पिरिट। वह कभी भी आदिवासी नेताओं का हक मार चुनावी मैदान में नहीं उतरे। जब बाबूलाल मरांडी झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बने, तो उन्हें झारखंड विधानसभा का सदस्य बनने के लिए चुनाव लड़ना था। चाहते तो वह पार्टी के किसी विधायक को कह कर अपने मनमाफिक सीट से चुनाव लड़ सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने किसी का हक नहीं मारा। उन्होंने रामगढ़ की सामान्य सीट से चुनाव लड़ा और जीते। उस समय वह सीट खाली थी। यहां से चुनाव लड़ने का मुख्य कारण यही था कि वह बताना चाहते थे कि वह सबके नेता हैं। उस समय जब बाबूलाल मरांडी को चुनाव लड़ना था, तो उस समय भाजपा के कद्दावर नेता कैलाशपति मिश्र ने उन्हें बहुत मना किया था कि रामगढ़ से वह चुनाव नहीं लड़ें। उन्होंने कहा था कि बहुत रिस्क है। लेकिन बाबूलाल ने कहा कि उन्हें रिस्क में ज्यादा मजा आता है। कैलाशपति मिश्र ने कहा कि हार जाने पर पता है न क्या करना पड़ेगा। फिर बाबूलाल ने कहा कि मुख्यमंत्री पद से रिजाइन करना पड़ेगा और क्या होगा। उप चुनाव में वह रामगढ़ से लड़े और जीत गये।

    एक और उदाहरण। 2019 में जब बाबूलाल मरांडी जेवीएम में थे, तो विधानसभा लड़ने की बात हुई। उस समय भी वह सुरक्षित सीट की खोज में नहीं गये। वह राजधनवार की सामान्य सीट से चुनाव लड़े और जीते। झारखंड में संथाल और आदिवासियों के बीच सबसे अधिक लोकप्रिय शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के बाद किसी दूसरे नेता का नाम अगर आता है, तो वह बाबूलाल मरांडी ही हैं। जब बाबूलाल मरांडी ने अपनी अलग पार्टी जेवीएम बनायीं थी, तब उन्होंने खुद को साबित भी किया था। उन्हें विधायक बनाने की फैक्ट्री भी कहा जाता था। बिना धनबल के उनकी पार्टी ने झारखंड विधानसभा के चुनावों में अलग छाप छोड़ी थी। 2009 के विधानसभा चुनाव में बाबूलाल की पार्टी ने 11 विधानसभा सीटें जीती थीं। 2014 में आठ और 2019 में तीन। यही नहीं, लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने किसी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की जगह कोडरमा सामान्य सीट से 2004 और 2009 में चुनाव लड़े और जीते।

    अब बात चंपाई सोरेन की
    चंपाई सोरेन ने 90 के दशक में अलग झारखंड राज्य आंदोलन के जरिये राजनीति में कदम रखा था। पहली बार वर्ष 1991 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनावी राजनीति में कदम रखा। वह सरायकेला विधानसभा के उपचुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज कर विधायक बने। वर्ष 1995 में चंपाई सोरेन ने जेएमएम के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते। चंपाई सोरेन ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक बार वर्ष 2000 में हार का मुंह देखा। वह भाजपा के अनंत राम टुडू से चुनाव हार गये थे। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वह अभी भी कोल्हान टाइगर के नाम से जाने जाते हैं। चंपाई सोरेन का पूरा राजनीतिक जीवन शिबू सोरेन की छात्र छाया में गुजरा। वह शिबू सोरेन को अपना आदर्श भी मानते हैं। कोल्हान की 14 सीटों में चंपाई का प्रभाव सात सीटों पर देखने को मिलता है। लेकिन उन सीटों पर शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन का प्रभाव भी रहा है। जेएमएम के लिए संथाल से सुरक्षित कोल्हान को माना जाता है। यहां सवाल यह उठता है कि अब जब चंपाई सोरेन पर शिबू सोरेन, हेमंत सोरेन और जेएमएम कार्यकर्ताओं का साथ नहीं रहेगा, तब क्या वह अपना जादू उसी प्रकार बिखेर पायेंगे जैसा पहले बिखेरने में कामयाब रहे। क्या चंपाई सोरेन भाजपा में आने के बाद कोल्हान को बचा पायेंगे। क्योंकि चंपाई सोरेन का पूरा कार्यकाल तो झारखंड मुक्ति मोर्चा की छत्रछाया में रहा है। अब तो चंपाई सोरेन को साबित करना होगा कि कोल्हान में उनका असली कद क्या है।

    चंपाई के सामने पहली चुनौती:
    चंपाई जब जेएमएम में थे, तब जेएमएम के सभी कार्यकर्ता उनकी सुना करते थे, लेकिन क्या पार्टी से अलग होने के बाद, उन जेएमएम कार्यकर्ताओं, जिनके भरोसे वह परफॉर्म करते रहे हैं, क्या उनका सहयोग उन्हें हासिल होगा। सवाल तो यह भी उठेगा कि क्या भाजपा के कार्यकर्ता उन्हें कोल्हान में सहयोग करेंगे। जो पार्टी से सालों उम्मीद लगाये हुए हैं, क्या वे नेता या कार्यकर्ता दिल से चंपाई का समर्थन करेंगे। सीता सोरेन का उदाहरण सामने है। झामुमो छोड़ सीता सोरेन भाजपा में आयीं। भाजपा ने उन्हें पूर्व में घोषित उम्मीदवार और तत्कालीन सांसद सुनील सोरेन का टिकट काट कर सीता सोरेन को दे दिया। उस चुनाव में क्या हुआ। इधर उधर की छोड़िये, खुद सीता सोरेन ने भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं का सहयोग नहीं मिला था। भाजपा में शामिल होते समय सीता सोरेन को उम्मीद थी कि दुर्गा सोरेन की पत्नी और गुरुजी की बहू होने के कारण उन्हें दुर्गा सोरेन के प्रति समर्पित झामुमो कार्यकर्ताओं का साथ मिलेगा। लेकिन चुनाव में उलट पड़ गया। जेएमएम का एक नेता भी उनके साथ नहीं आया। वैसे चुनाव से पूर्व यह माना जा रहा था कि दुमका सीट भाजपा के लिए आसान है। कारण 2019 के चुनाव में भाजपा के सुनील सोरेन ने दुमका सीट करीब 20 हजार मतों से जीता था। जब परिणाम सामने आया, तो स्पष्ट हो गया कि वह बीस हजार वोट तो सीता सोरेन से छिटका ही, बीस हजार और वोट उनके खिलाफ पड़ गया। इस प्रकार वह नलिन सोरेन से हार गयीं।

    दूसरा उद्धाहरण:
    चंपाई सोरेन अपने ऊपर हुए अन्याय और अपमान को मुद्दा बना रहे हैं। सीता सोरेन ने भी लोकसभा चुनाव में इसे ही मुद्दा बनाया था। उन्होंने तो खुल कर हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन पर इल्जाम लगा कर पार्टी छोड़ी थी। वह चुनावी सभाओं में कह रही थीं कि उन्हें बार-बार अपमानित किया गया। आरोप तो उन्होंने उस शिबू सोरेन पर भी लगा दिया, जिन्हें वह आदर्श मानती थीं। इसकी भारी प्रतिक्रिया हुई। सीता सोरेन को गलती का एहसास हुआ। उन्होंने माफी तक मांगी। लेकिन बात जुबां से निकल जाने के बाद वापस नहीं होती। नतीजा क्या हुआ? जनता को वह समझाने में विफल रहीं। इसके उलट वहां के लोगों और कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं ने सुनील सोरेन के साथ हुए अन्याय की बात उठा डाली। सुनील सोरेन को तो टिकट भी मिल गया था। वह सीटिंग सांसद भी थे। उसके बाद भी भाजपा द्वारा उनका टिकट काटा गया और सीता सोरेन को पार्टी में शामिल करा कर टिकट दिया गया। अंतत: सीता सोरेन चुनाव हार गयीं।

    अब बात कल्पना सोरेन की
    हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने लोकसभा चुनाव के वक्त हेमंत सोरेन के जेल भेजे जाने पर अन्याय की बात जनता के समक्ष रख दी। उन्होंने कहना शुरू किया आपके भाई को भाजपा ने इसलिए जेल भिजवाया, क्योंकि वह आपके हित की बात करते थे। आपकी खातिर उन्होंने समझौता नहीं किया। वे झुके नहीं। कल्पना सोरेन की यह व्यथा जनता में असर कर गयी। कई सभाओं में उनकी आंखों से आंसू भी निकले। वे आंसू चूंकि बनावटी नहीं थे, इसलिए उसका जबरदस्त असर पड़ा। कल्पना सोरेन की सभाओं में भारी भीड़ होने लगी। देखते ही देखते उन्होंने राजनीति में धमाकेदार इंट्री कर दी। इससे जेएमएम के साथ-साथ कांग्रेस को भी दो सीटों का फायदा हो गया। इसका मतलब यही है कि जनता भी आंकती है कि किस लेवल का अन्याय हुआ है। किसकी व्यवस्था जेनुइन है। किसके आंसू असली हैं और किसके बनावटी। किसकी आंसुओं में ज्यादा सच्चाई है। अब देखने वाली बात यह होगी कि चंपाई सोरेन अपने साथ हुए अन्याय की बात को किस तरह जनता के समक्ष रखते हैं और जनता उन पर कितना विश्वास करती है।

    तीसरा उद्धारण:
    चंपाई के सामने एक और उदाहरण है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बहरागोड़ा से समीर मोहंती का टिकट काट जेएमएम के तेज तर्रार नेता कुणाल षाड़ंगी पर भरोसा जताया और उन्हें टिकट दे दिया गया। नतीजा क्या हुआ। तमाम प्रयास के बावजूद कुणाल चुनाव हार गये। कुणाल की पहचान जेएमएम से थी, कुणाल के प्रचार में रघुवर दास से लेकर अमित शाह भी आये थे। तब भी परिणाम उलटा रहा।

    चौथा उदाहरण गीता कोड़ा का भी है। गीता कोड़ा कांग्रेस के टिकट से सांसद थीं। लेकिन उन्होंने भी 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का दामन थामा। गीता कोड़ा को उनके ही कार्यकर्ताओं के साथ-साथ भाजपा के कार्यकर्ताओं का भी पूरा साथ नहीं मिला। गीता चुनाव हार गयीं। माना जाता है कि कोड़ा दंपति का चाइबासा में अपना बड़ा जनाधार है। हो जाति के लोग उनके साथ हैं, लेकिन भाजपा में आते ही हो समुदाय के लोग उनसे दूर चले गये और यहां गीता फेल हो गयीं।
    मौजूदा परिस्थितियों में एक तरफ जहां विधानसभा चुनाव में चंपाई सोरेन के सामने अपनी सरायकेला सीट बचाने की चुनौती होगी, वहीं भाजपा की उम्मीदों पर खरा उतरने की भी चुनौती होगी। उनके सामने परेशानी यह है कि सरायकेला से भाजपा से रमेश हांसदा भी अपनी तैयारी में लगे थे। अब चंपाई प्रकरण के बाद उन्हें भी ठगा हुआ महसूस हो रहा होगा। उनके दिल से अगर कसक नहीं गयी तो वह भी अपना रुख किसी और दिशा में बदल सकते हैं। कहीं कुणाल षाड़ंगी और समीर मोहंती वाला केस न हो जाये।

    निष्कर्ष: अगर चंपाई सोरेन कोल्हान में सीट निकाल पाये, भाजपा को विधानसभा चुनाव में कोल्हान में फायदा हुआ, तो निश्चित ही पार्टी में उनका कद बढ़ेगा, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती तब सामने आयेगी, जब परिणाम आशाजनक नहीं होगा। इस बातों के लिए चंपाई सोरेन को तैयार रहना होगा।

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