रांची। बात कुछ साल पुरानी है। तब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। रांची के महात्मा गांधी नगर भवन में कांग्रेस का कार्यक्रम था। उसमें राजेश पायलट शिरकत कर रहे थे। जैसे ही वह अपना भाषण देने के लिए उठे, हॉल में बैठे कांग्रेसी कार्यकर्ता अपने-अपने नेताओं के समर्थन में नारेबाजी करने लगे। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि मंच पर खड़े नेता अपने-अपने समर्थकों को हाथ के इशारे से नारेबाजी तेज करने के लिए कह रहे थे। तब के अखबारों में एक तस्वीर छपी थी, जिसमें मंच पर खड़े सभी नेता हाथ उठाये हुए थे। उस दिन राजेश पायलट ने कहा था कि यह पार्टी के जीवंत और लोकतांत्रिक होने का सबूत है।
आज झारखंड बने हुए 18 साल हो गये हैं। कांग्रेस भी 118 साल पुरानी हो गयी है, लेकिन खेमेबंदी की परंपरा खत्म नहीं हुई है। पार्टी की पहली कतार के नेताओं का अपना-अपना खेमा है, अपने-अपने समर्थक हैं। किसी भी केंद्रीय नेता के आगमन पर यह खेमेबंदी हवाई अड्डे से प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय और कार्यक्रम स्थल तक पर स्पष्ट दिखती है। ऐसे में लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि खेमों में विभाजित कांग्रेस किस तरह देश और समाज को दिशा दे सकेगी।
हाल के दिनों में प्रदेश कांग्रेस की खेमेबंदी गहरा गयी है। यहां श्रमिकों के संगठन इंटक पर कब्जे को लेकर राजेंद्र सिंह और ददई दुबे के बीच प्रतिद्वंद्विता अब अतीत की बात हो गयी है। कभी कोयला क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में राजेंद्र सिंह आज भी हालांकि अपना प्रभाव रखते हैं और पार्टी के एक धड़े का नेतृत्व करते हैं, लेकिन अब उनका वह असर नहीं रह गया है। चाहे सुखदेव भगत हों या प्रदीप बलमुचू, ददई दुबे हों या सुबोधकांत सहाय, पार्टी का कोई भी नेता अब पूरे प्रदेश में एक समान प्रभाव वाला नहीं बचा है। एक समय था, जबसुबोधकांत सहाय पूरे प्रदेश में प्रभाव रखते थे, लेकिन समय के साथ और पार्टी में खेमेबंदी के कारण उनकी भूमिका को रांची तक ही सीमित कर दिया गया। वहीं सुखदेव भगत की लोहरदगा-गुमला-सिमडेगा में पकड़ है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ अजय कुमार कोल्हान में थोड़े-बहुत असरदार हैं, तो संथाल में फुरकान अंसारी अपने विधायक पुत्र डॉ इरफान अंसारी के साथ पार्टी का झंडा थामे हुए हैं।
पार्टी विधायक दल के नेता आलमगीर आलम भी संथाल के एक हिस्से पर दबदबा बनाये हुए हैं। कोयला क्षेत्र में राजेंद्र सिंह और ददई दुबे का असर है, तो पलामू में पार्टी को एक प्रभावशाली नेता की तलाश है। उस जगह को लेने की कोशिश पूर्व मंत्री केएन त्रिपाठी कर रहे हैं, लेकिन उनका प्रभाव अभी बहुत प्रभावशाली नहीं हो पाया है। कांग्रेस नेता प्रदीप बलमुचू धीरज साहू के साथ मिल कर एक कोण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी राह में भी बहुत कांटे हैं। नेताओं के अलग-अलग प्रभाव क्षेत्र के कारण पार्टी आलाकमान को पूरे प्रदेश के लिए एक जैसी नीति बनाने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पार्टी के खराब चुनावी प्रदर्शन का यह एक बड़ा कारण है।
इधर हाल के दिनों में कांग्रेस के भीतर खेमेबंदी और भी तेज हुई है। जब से झारखंड में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी महागठबंधन के लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला हुआ है, पार्टी का हरेक खेमा अपने-अपने तरीके से सक्रिय हो गया है। राजनीतिक सक्रियता वैसे तो अच्छा संकेत है, लेकिन कांग्रेस के लिए यही सक्रियता घाटे का सौदा बन जाती है, क्योंकि नेताओं के कार्यक्रमों में कभी कोई समन्वय नहीं होता। पार्टी का एक खेमा हमेशा दूसरे खेमों की बखिया उधेड़ने में लगा होता है। पार्टी को मजबूत करने की बजाय उसकी अधिकांश ऊर्जा दूसरे खेमे की जड़ खोदने में खर्च हो जाती है। इसके कारण विरोधियों को बैठे-बिठाये मुद्दा मिलता है और कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती है।
पिछले दिसंबर में कोलेबिरा में हुए विधानसभा उपचुनाव के दौरान भी पार्टी का अंतरविरोध खुल कर सामने आया था। हालांकि कांग्रेस वह सीट जीतने में कामयाब रही और डॉ अजय कुमार का उससे कद बढ़ा, लेकिन सच यही है कि प्रदेश कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता वहां चुनाव प्रचार के लिए नहीं गये। सुबोधकांत सहाय अपवाद रहे, जो बराबर वहां दौरा करते रहे। इसके बाद लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई और तभी से पार्टी के भीतर खेमेबंदी और तेज हो गयी। गोड्डा सीट को लेकर तो पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा हो गयी है। जामताड़ा विधायक डॉ इरफान अंसारी के विद्रोही तेवर ने प्रदेश कांग्रेस के साथ-साथ पार्टी आलाकमान के लिए भी बड़ी चुनौती पेश कर दी है। बताया जाता है कि यदि बगावत के इस स्वर पर मरहम नहीं लगा, तो कांग्रेस के लिए पलामू, गिरिडीह और जमशेदपुर में भी मुश्किल खड़ी हो जायेगी। तब पार्टी आलाकमान को सभी खेमों को एक मंच पर लाने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
इन तमाम राजनीतिक परिस्थितियों के बीच कांग्रेस खुद को कैसे चुनाव के लिए तैयार करती है और कितनी मजबूती से चुनाव मैदान में उतरती है, यह तो समय के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल पार्टी नेतृत्व के सामने यह चुनौती सबसे बड़ी है कि वह पार्टी के भीतर की खेमेबंदी को खत्म करे। राहुल गांधी ने अपनी कार्यशैली से पार्टी की इस बीमारी का इलाज तो शुरू किया है, उन्होंने कांग्रेस प्रभारी आरपीएन सिंह के माध्यम से इस बीमारी को जड़ से खत्म करने का प्रयास तो किया है, लेकिन इसे ठीक करने में अभी वक्त लगेगा।