देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के आधुनिक इतिहास में तीन तारीखों का खासा महत्व है। पहली तारीख है 14 मार्च 1998। उस दिन कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय में तत्कालीन अध्यक्ष के तख्ता पलट की पटकथा लिखी गयी थी और सीताराम केसरी को लगभग धक्का देकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। दूसरी ऐतिहासिक तारीख थी 16 दिसंबर, 2017, जब राहुल गांधी को उत्सवी माहौल में कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। ऐसा ही एक इतिहास तीन जुलाई, 2019 को रचा गया, जब राहुल गांधी ने औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही लगातार दो आम चुनावों में करारी शिकस्त पानेवाली कांग्रेस न केवल अध्यक्ष विहीन हो गयी, बल्कि एक बार फिर गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व से भी दूर हो गयी। राहुल ने ऐलान कर दिया है कि वह अब पार्टी अध्यक्ष नहीं बनेंगे और न ही अपनी बहन प्रियंका को यह पद संभालने की सलाह देंगे। ऐसे में यह साफ हो गया है कि कांग्रेस की कमान अब गांधी-नेहरू परिवार से बाहर होगी।
राहुल के इस्तीफे के साथ ही यह कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा का दौर है। यह सच है कि आज कांग्रेस के भीतर की कांग्रेस मर चुकी है। पार्टी के लोग इतने आलसी हो गये हैं कि वे अपने पैरों पर खड़े होना नहीं चाहते। वे दरबार के नेता तो हैं, मैदान के नहीं। वे चाहते हैं कि गांधी-नेहरू परिवार का कोई सदस्य आयेगा, चुनाव जीतायेगा, प्रधानमंत्री बनेगा और फिर वे मंत्री बन जायेंगे। यूं कहा जाये कि कांग्रेस निराश नहीं, थकी हुई पार्टी है। राहुल ने इस स्थिति में बदलाव की कोशिश की, लेकिन पुराने कांग्रेसियों ने उनकी कोशिश को नाकाम कर दिया। यही कारण है कि राहुल ने अपने पत्र में लिखा है कि वह हमेशा उस विचारधारा के खिलाफ लड़ते रहे, जिसका कांग्रेस विरोध करती है और कई बार इस लड़ाई में वह अकेले खड़े रहे। जिस पार्टी के अध्यक्ष को अकेले लड़ने की बात कहनी पड़ी, उसके दूसरे नेताओं के लिए यह शर्म की बात है, लेकिन राहुल की चिट्ठी की इन पंक्तियों का असर शायद ही किसी कांग्रेसी पर पड़ा। राहुल को सबसे बड़ा धक्का मध्यप्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्री को लेकर लगा। पार्टी के दो युवा नेता सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन बूढ़े कांग्रेसियों ने दबाव देकर अशोक गहलोत और कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बैठा दिया। दुष्परिणाम लोकसभा चुनाव में मिला।
कांग्रेस के लिए राहुल का इस्तीफा इसलिए भी आत्ममंथन का दौर है, क्योंकि पार्टी में अध्यक्ष पद संभालनेवाला कोई नेता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। यह सच भी है कि न तो कांग्रेस पार्टी ने और न ही गांधी-नेहरू परिवार ने ऐसा कोई नेता तैयार करने की कोशिश की, जो पार्टी प्रमुख के पद पर आसीन हो सके।
खूब मेहनत की राहुल गांधी ने
साल 2017 में सोनिया गांधी के लगातार बीमार रहने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी हुई। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी के पास पार्टी की बुनियाद मजबूत करने के साथ ही मौजूदा स्थिति बेहतर करने और लोकसभा चुनाव 2019 में अच्छा प्रदर्शन करने की बड़ी जिम्मेदारियां थीं। जहां एक तरफ साल 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद एक-एक करके पार्टी के सीनियर नेता या तो पार्टी से इस्तीफा दे रहे थे या जिम्मेदारी लेने से घबरा रहे थे, वहीं एक के बाद एक कांग्रेस शासित राज्यों में भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करते हुए वहां की सत्ता पर कब्जा कर रही थी। यूपीए के घटक दलों में भी कांग्रेस की छवि धूमिल हो रही थी। ऐसे समय में कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को सौंपी गयी।
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी ने पार्टी की स्थिति बेहतर करने की पूरी कोशिश की। उन्होंने पार्टी के अंदर प्रमुख पदों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट समेत कई युवाओं को मौका दिया और कांग्रेस की दिशा-दशा बेहतर करने के लिए कई बड़े फैसले लिये, हालांकि कई मौकों पर राहुल गांधी के फैसले गलत साबित हुए, जिसके लिए उनकी पार्टी के अंदर और बाहर आलोचना भी हुई। लेकिन राहुल गांधी इन आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए अथक मेहनत करते रहे। इसका नतीजा दिखा साल 2018 में तीन हिंदी भाषी बड़े राज्य में कांग्रेस की जीत के बाद। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को मात देने वाली कांग्रेस में उम्मीद जगी।
यहां एक बात का जिक्र करना बेहद जरूरी है कि भले ही राहुल गांधी के ऊपर वंशवाद के आरोप लगते हों, लेकिन राहुल गांधी आलोचकों का कड़ा जवाब देते हुए संसदीय चुनाव लड़कर संसद पहुंचे। उन्हें विरासत में भले ही राजनीति की कश्ती पर सवार होने का मौका मिला हो, लेकिन पतवार हमेशा राहुल गांधी ने अपनी मेहनत से चलायी। राहुल गांधी को गांधी-नेहरू परिवार के बाकी प्रमुख नेताओं वाला विशेषाधिकार नहीं मिला। राहुल गांधी ने कांग्रेस की नैया पार कराने की पूरी कोशिश की और संसद से लेकर सड़क तक पार्टी के एजेंडे को लोगों के सामने रखने के साथ ही भाजपा, आरएसएस और नरेंद्र मोदी सरकार को जमकर घेरा। लेकिन जैसा उन्होंने खुद स्वीकार किया है, कई अवसरों पर वह अकेले पड़ गये।
कहीं यह राहुल की रणनीति तो नहीं
अब राहुल के इस्तीफे के बाद चर्चा यह भी हो रही है कि कहीं यह राहुल की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है। कहा जा रहा है कि यह नौटंकी कांग्रेस को नये अवतार में प्रभावशाली राजनीतिक दल के तौर पर उभारने के लिए की गयी है। वास्तव में बागडोर तो नेहरू-गांधी परिवार के पास ही रहेगी।
कांग्रेस की मौजूदा चुनौती
ताजा आम चुनाव में करारी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर ही राहुल ने इस्तीफा देने की न सिर्फ घोषणा की, बल्कि अपने इस फैसले पर अड़े रहे। कांग्रेस की पराजय के अलावा राहुल गांधी के लिए अमेठी से हारना भी उनकी प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। अमेठी में गांधी परिवार का प्रवेश 1975 में तब हुआ, जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे और राहुल के चाचा संजय गांधी ने इसके अति पिछड़े गांव खेरौना में युवा कांग्रेसियों के साथ श्रमदान करके राजनीति में आने का बिगुल बजाया। इसके बाद संजय गांधी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी ने भी अमेठी का प्रतिनिधित्व किया। पिछले तीन दशक से ज्यादा की अवधि में गांधी परिवार के सदस्यों ने ही सबसे ज्यादा समय अमेठी के लोगों का प्रतिनिधित्व किया। ऐसे में राहुल गांधी की हार ने उनकी अमेठी में प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। इसी तरह पार्टी स्तर पर कांग्रेस के महज 52 सीटों पर सिमटने से उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा पर गंभीर सवाल खड़ा हो गया।
आखिर क्या है कांग्रेस की रणनीति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत भाजपा नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी पर नामदार कहकर तीखा हमला बोला और बार-बार परिवारवाद का आरोप लगाते हुए उन्हें घेरा। भाजपा ने यह संकेत देने का प्रयास किया कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस चल नहीं पायेगी। जबकि राहुल गांधी लगातार यह कहते रहे हैं कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस पहले की तरह इस बार भी संकट से न सिर्फ उभरेगी, बल्कि और मजबूत होकर वापसी करेगी। माना जाता है कि राहुल ने भाजपा के इस राजनीतिक हथियार को बेअसर करने के लिए अध्यक्ष पद त्यागने का फैसला किया है। उन्हें उम्मीद है कि पार्टी में अनुभवी और कुशल नेताओं की कोई कमी नहीं है। गांधी परिवार के नाम बिना भी मजबूती से आगे बढ़ सकती है।
क्या होगा कांग्रेस का नया मॉडल
समय-समय पर पार्टी के भीतर भी यह मांग उठती रही कि आंतरिक चुनाव समुचित तरीके से कराये जायें और किसी को भी चुनाव में न सिर्फ खड़े होने की अनुमति दी जाये, बल्कि इसके लिए माहौल बनाया जाये। माना जा रहा है कि कांग्रेस इस बार इसी रणनीति पर काम कर रही है। राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद हो सकता है कि कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए पूरे विधि-विधान से चुनाव होंगे और जो भी जीत कर आयेगा, उसे अध्यक्ष बनाया जायेगा।
अभी चुनौतियां बहुत हैं राहों में
कांग्रेस के सामने अभी ढेर सारी चुनौतियां हैं। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद निराश-हताश पार्टी जनों में नये उत्साह के संचार के साथ इस साल के अंत में पांच राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव का सामना उसे करना है। ऐसे में पार्टी के लिए नेतृत्व की चुनौती से जल्दी निपटना होगा। सवाल यह भी है कि यदि पार्टी की कमान गांधी-नेहरू परिवार के पास नहीं होगी, तो फिर क्या पार्टी को एकजुट रखा जा सकेगा। इस बात की संभावना कम ही है कि परिवार का हाथों से बाहर निकलने के बाद कांग्रेस एकजुट रहे, कारण गांधी-नेहरू परिवार ने कांग्रेस को संघर्ष का रास्ता सिखाया ही नहीं।
21 साल बाद फिर गांधी-नेहरू परिवार बिन कांग्रेस
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