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    Home»Jharkhand Top News»झारखंड को महंगा पड़ेगा माननीयों का आवास प्रेम
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    झारखंड को महंगा पड़ेगा माननीयों का आवास प्रेम

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJuly 8, 2020No Comments6 Mins Read
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    झारखंड एक बार फिर चर्चा में है और यह चर्चा इसके उन माननीयों की वजह से हो रही है, जो सरकारी बंगले का मोह नहीं छोड़ रहे हैं। मंत्री बने, तो अपने नाम एक बंगला आवंटित करा लिया, उसमें लाखों-करोड़ों खर्च कर अत्याधुनिक सुविधाएं लगवा लीं, बंगले की खाली जमीन पर खेती करने लगे और गाय-भैंस का तबेला भी बनवा लिया। मंत्री पद से हटे, तो अब सरकारी बंगला खाली करने के लिए तैयार नहीं हैं। हाइकोर्ट में याचिका दायर कर दी या फिर अधिकारियों को ताकत दिखाने की चुनौती देने लगे। यह सब उस जनता का अपमान है, जिसने उन्हें वोट देकर विधायक तो बनाया, लेकिन सत्ता से बेदखल कर दिया। झारखंड को अपने माननीयों का यह मोह बेहद महंगा पड़ रहा है। इस पूरे खेल का दूसरा पहलू यह है कि इनमें से शायद ही कोई ऐसा माननीय होगा, जिनके पास रांची में अपना मकान या फ्लैट नहीं है। लेकिन उसमें रहने से इनकी मर्यादा शायद कम हो जायेगी। यह सब ऐसे राज्य में हो रहा है, जहां सरकार का खजाना खाली है और उसे भरने के लिए तरह-तरह के उपायों पर विचार किया जा रहा है। जिस राज्य के 20 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहने के लिए अभिशप्त हैं, वहां के हुक्मरानों का यह व्यवहार कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। सरकारी आवासों पर कब्जा बनाये रखने की यह होड़ झारखंड के लिए घुन साबित हो रहा है, जो इसे भीतर ही भीतर खोखला करता जा रहा है। झारखंड के इसी खेल पर रोशनी डालती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    कहा जाता है कि संसदीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता की होती है। जनता जिसको चाहती है, वह सत्ता में बैठता है और सत्ता सुख का भोग करता है। और जनता जिसे नापसंद करती है, वह बाहर से सत्ता सुख हासिल करने के लिए कोशिश में जुटा रहता है। भारत में 1952 के पहले आम चुनाव से यह सिलसिला शुरू हुआ और आज भी लगातार तमाम-उतार चढ़ावों के बावजूद जारी है। झारखंड में और देश के दूसरे राज्यों में भी दुनिया की तमाम शासन प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जानेवाली यही व्यवस्था लागू है। लेकिन इस व्यवस्था को तब बेपटरी होने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जब कुछ लोग अपनी मनमानी पर उतर आते हैं या व्यवस्था को तोड़ने की खुंटचाल में लग जाते हैं।
    यहां बात हो रही है झारखंड में सरकारी आवासों को लेकर शुरू हुई रस्साकशी की। छह महीने पहले विधानसभा का चुनाव हुआ। वैसे कई लोग चुनाव हार गये, जो पांच साल तक विधायक-मंत्री रहे।
    कई नये लोग चुन कर आये और मंत्री भी बने। व्यवस्था है कि चुन कर आये सभी विधायकों और मंत्रियों को मुफ्त में सरकारी आवास दिया जायेगा। व्यवस्था तो अच्छी है, लेकिन इसकी सूरत तब बिगड़ जाती है, जब कुछ विधायक और मंत्री अपने नाम आवंटित सरकारी आवास को निजी संपत्ति मानने लगते हैं और उसे खाली नहीं करने पर आमादा हो जाते हैं। इसका ताजा उदाहरण अमर कुमार बाउरी, विरंची नारायण और नवीन जायसवाल हैं। बाउरी पांच साल तक मंत्री रहे, लेकिन अभी केवल विधायक हैं। विरंची और नवीन पहले भी विधायक थे और इस बार भी चुने गये हैं। लेकिन ये तीनों पूर्व में आवंटित आवास को खाली नहीं करने पर अड़ गये हैं। विरंची और नवीन तो इसे लेकर हाइकोर्ट में चले गये हैं, जबकि बाउरी ने अधिकारियों को ताकत से आवास खाली कराने की चुनौती दे डाली है।
    यह बेहद दुखद स्थिति है। नवीन जायसवाल हटिया के विधायक हैं और स्वाभाविक तौर पर उनके पास अपना घर भी जरूर होगा। इसके बावजूद सरकारी आवास को कब्जे में रखने के लिए इतनी जुगत वह क्यों लगा रहे हैं, यह समझ से परे है। उधर विरंची ने अपने सरकारी आवास पर गाय-भैंसों का तबेला बना रखा है। इसलिए वह इसे खाली करने में आनाकानी कर रहे हैं। बाउरी ने तो कहा है कि राज्य सरकार के अधिकारी अपने एक पूर्व मंत्री की प्रतिष्ठा का ध्यान नहीं रख रहे हैं।
    आखिर पूर्व मुख्यमंत्रियों और पूर्व मंत्रियों को सरकारी आवास क्यों दिया जाये। इसके पीछे का हर तर्क अदालती लड़ाई में हार चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में ही आदेश दिया था कि पूर्व मुख्यमंत्रियों और पूर्व मंत्रियों के कब्जे से सरकारी आवासों को मुक्त कराया जाये। जो इसमें आनाकानी करे, उस पर बल प्रयोग भी किया जाये। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद झारखंड में आज भी पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास की सुविधा मिली हुई है। बाउरी अपनी जिस प्रतिष्ठा का राग अलाप रहे हैं, झारखंड की जनता उससे इत्तेफाक नहीं रखती है। इसलिए उनकी पार्टी सत्ता से बेदखल कर दी गयी है और इसका भी ध्यान उन्हें रखना चाहिए।
    बात यहीं खत्म नहीं होती। जब ये माननीय पहली बार आवास में आते हैं, तो वे इसे सजाने-संवारने पर लाखों रुपये खर्च करते हैं। यह खर्च सरकारी खजाने से होता है। रंग-रोगन से लेकर पर्दे, सोफा और एसी से लेकर फ्रिज तक सब कुछ नये सिरे से होता है। कई बार तो सरकारी आवासों में नये निर्माण भी करा लिये जाते हैं। यही कारण है कि जब इन माननीयों को आवास छोड़ने के लिए कहा जाता है, तो वे आनाकानी करने लगते हैं। पूर्व मंत्रियों या पूर्व विधायकों द्वारा सरकारी आवास खाली नहीं करने से दिक्कत यह होती है कि नये मंत्रियों-विधायकों को आवास नहीं मिल पाता और सरकार की तरफ से उन्हें ठहरने का इंतजाम करना होता है, जिस पर अनावश्यक खर्च होता है। लेकिन इस मुद्दे को मानने के लिए कोई तैयार ही नहीं है। अब झारखंड में यह व्यवस्था खत्म होनी चाहिए, क्योंकि इस शाह खर्ची से कम से कम राज्य को कोई लाभ नहीं हो रहा है। आर्थिक नुकसान के साथ-साथ उसके माथे पर बेवजह कलंक का टीका भी लगता है और दुनिया भर में खिल्ली उड़ायी जाती है। इसलिए अब यह व्यवस्था बननी चाहिए कि सरकारी आवास तभी मिलेगा, जब तक वह विधायक या मंत्री है। चुनाव हारने या पद से हटने के 24 घंटे के भीतर उसे सरकारी आवास खाली करना होगा। यदि सरकार नयी है, तो आवास आवंटन भी नये सिरे से होगा। जब तक यह व्यवस्था नहीं बनेगी, झारखंड अपने इन माननीयों के बोझ तले इसी तरह कराहता रहेगा।

    Jharkhand will be expensive due to the love of the honorable
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