रांची। झारखंड की राजधानी रांची से नेशनल हाइवे 75 पर चंदवा से पलामू प्रमंडल के मुख्यालय मेदिनीनगर की ओर बढ़ते समय सड़क किनारे पेड़ पर एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल का झंडा और बैनर टंगा देख कर ऐसा आभास होता है कि राज्य के गांव अब राजनीतिक रूप से पिछड़े नहीं रह गये हैं, बल्कि उन्होंने अपनी ताकत पहचान ली है। इसी हाइवे पर लातेहार अवस्थित है, जहां से आगे बढ़ने पर मनिका या लहलहे में चाय की दुकानों पर राजनीतिक चर्चाएं आम हो गयी हैं। इन चर्चाओं के केंद्र में चुनाव और उसके संभावित परिणाम हैं। हाइवे के किनारे अवस्थित ढाबों और चाय-पान की दुकानों को छोड़ भी दिया जाये, तो चार-पांच किलोमीटर अंदर अवस्थित गांवों की चौपालों में भी यही मुद्दा आजकल बहस के केंद्र में है। गांवों के लोग जैसे ही जानते हैं कि आप राजधानी से आये हैं, उनका पहला सवाल होता है, अगले चुनाव में क्या होगा।
बातचीत आगे बढ़ने पर वे कहते हैं, हम लोकसभा की नहीं, विधानसभा चुनाव की बात कर रहे हैं।झारखंड में विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में होनेवाले हैं। इससे पहले अप्रैल-मई में लोकसभा के चुनाव होंगे। लोकसभा की 14 सीटों को जीतने के लिए जहां दो प्रमुख दल, भाजपा और कांग्रेस में जोर-आजमाइश चल रही है, वहीं विधानसभा की 81 सीटों के लिए इन दोनों दलों के साथ-साथ झामुमो, झाविमो और आजसू भी ताल ठोक रहे हैं।
इन सभी दलों के साथ एक बात कॉमन है कि ग्रामीण इलाकों में इनके कार्यकर्ता चुनाव लड़ने और संभावित परिणाम के प्रति अधिक संवेदनशील और जागरूक नजर आ रहे हैं। इसका कारण जानने के लिए जब हमने विश्रामपुर के जगन्नाथ पांडेय से बात की, तो उन्होंने कहा, आज गांवों के कार्यकर्ता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से पूरी तरह कट गये हैं। उन्हें पार्टी की गतिविधियों की जानकारी देर से मिलती है और वह भी किसी दूसरे माध्यम से। पार्टी नेतृत्व से उनका संवाद भी कभी-कभार ही हो पाता है। इसलिए उनमें बेचैनी अधिक है। पांडेय खुद भी एक राजनीतिक दल से जुड़े हैं, लेकिन उनकी बातें, उनके अंदर की बेचैनी बहुत कुछ साफ करती हैं।
यह हकीकत है कि पिछले दो दशक में क्षेत्रीय पार्टियां कुछ ज्यादा ही मजबूत हुई हैं और वे केंद्रीय राजनीति को प्रभावित करती दिख रही हैं। हालांकि देश की राजनीति में इन क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका हमेशा बनी रही, लेकिन जबसे भाजपा का उभार तेजी से हुआ, क्षेत्रीय पार्टियां और भी सबल हुईं और सत्ता के करीब पहुंचने के काबिल भी हो गयीं। क्षेत्रीय पार्टियों की चर्चा उन राजनीतिक संगठनों के रूप में हमेशा होती रही है, जो क्षेत्रीय मिजाज, भाषा और जातीय आधार पर बनती रहीं। देश में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहां क्षेत्रीय पार्टिया खड़ी नहीं हों। इन पार्टियों का संगठन गांवों में अधिक मजबूत दिखता है। इसलिए हाइवे के किनारे पेड़ पर भी उनके बैनर और झंडे नजर आ जाते हैं।
झारखंड में स्वाभाविक तौर पर झामुमो सबसे बड़ा क्षेत्रीय दल है। आजसू भी काफी ताकतवर है। इधर बाबूलाल मरांडी द्वारा झाविमो के गठन के बाद से इसके प्रभाव क्षेत्र में भी खासा विस्तार हुआ है। अब भाजपा हो या कांग्रेस, कोई भी राष्टय दल राज्य के भीतरी इलाकों में इनके महत्व और प्रभाव को कम आंकने की भूल नहीं कर सकता। भाजपा और कांग्रेस को पता है कि इन क्षेत्रीय दलों की मदद के बिना चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल ही नहीं, लगभग असंभव है। इसलिए चुनावी तैयारी में इन दलों के प्रभाव क्षेत्र का भी ध्यान रखा जाता है। चाहे पलामू प्रमंडल का रेहला-विश्रामपुर का इलाका हो या गिरिडीह के गांव, धनबाद कोयलांचल के सीमावर्ती इलाके के गांव हों या सिमडेगा के जनजातीय बहुल इलाके, हर जगह क्षेत्रीय दलों के लोग मजबूती से कायम हैं। शहरी इलाकों में सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ये कार्यकर्ता अधिक सक्रिय होते हैं। इसलिए उनमें चुनाव परिणामों को लेकर बेचैनी भी अधिक है।
ऐसी कुछ पार्टियों की स्थापना का आधार दूसरी पार्टियों से निकलना रहा है तो अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियां किसी पार्टी को तोड़कर बनी हैं। पहले इन पार्टियों को अकसर क्षेत्रीय पार्टियां ही लोग कहते थे। इनकी कोई बड़ी राजनीतिक सोच नहीं थी। जात और क्षेत्र की राजनीति करना और सत्ता सरकार में शामिल होना रहा। हालांकि इन पार्टियों की अहमियत तब भी थी, लेकिन कांग्रेस के बाद बीजेपी की बढ़ती ताकत ने इन क्षेत्रीय पार्टियों को और भी ताकतवर किया है। ये क्षेत्रीय पार्टियां जान गयी हैं कि केंद्र में या तो बीजेपी की सरकार बनेगी या फिर कांग्रेस की। या तो एनडीए की या फिर यूपीए की। वक्त के साथ ये पार्टियां अपना ईमान बदलती हंै और सत्ता सुख का आनंद लेती रही हैं। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से तो देश में इन क्षेत्रीय पार्टियों का रवैया कुछ ऐसा ही रहा है।
एक बात और गौर करने वाली है। झारखंड में पिछले दो दशक में कुछ क्षेत्रीय पार्टियां काफी सशक्त भी हु। झामुमो ने तो सरकार भी बना डाली। झारखंड बनने से ठीक पहले झामुमो ने एकीकृत बिहार में लालू जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप के साथ मिल कर एक नयी राजनीतिक शक्ति के उदय का संकेत दिया था। उस वक्त तो कहा जाने लगा था कि बिहार में लालू का और दक्षिण बिहार में झामुमो का राज है। आजसू ने भी अपने कार्य क्षेत्र का फैलाव किया और झारखंड में बननेवाली हर सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। केवल झाविमो ही एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी है, जिसे सत्ता का सुख भोगने का मौका अब तक नहीं मिला है।
अब चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, क्षेत्रीय दलों की भूमिका भी साफ होने लगी है। स्वाभाविक तौर पर इनके कार्यकर्ताओं में बेचैनी भी बढ़ने लगी है। ऐसे में यदि दलों का नेतृत्व अब भी ग्रामीण कार्यकर्ताओं से कटा रहता है, तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। अब तक के चुनावों का ट्रेंड बताता है कि ग्रामीण इलाकों में अधिक मतदान होता है, इसलिए गांवों की उपेक्षा राजनीतिक दलों को भारी पड़ सकती है।