जन्मदिन के बहाने बधाई संदेशों का लगा रहा तांता
राजनीति में चर्चा उन्हीं की होती है, जिनमें दम होता है। झारखंड की राजनीति में बार-बार खुद को साबित करने वाले बाबूलाल मरांडी की भाजपा में वापसी की सुगबुगाहट ने उनकी टीआरपी का ग्राफ हाई कर दिया है। उनके लिए बधाई संदेशों का तांता लगा है। सोशल मीडिया में भी उनके प्रति प्यार दर्शाने वालों की होड़ मची है। बीते 11 जनवरी को उनका जन्मदिन था। इस मौके पर विपक्ष के साथ-साथ भाजपा के वरीय नेताओं ने भी उन्हें बधाई दी। भाजपा के नेताओं ने यह भी जताने की कोशिश की है कि वे बाबूलाल के हैं और आगे भी उनके ही रहेंगे। संभावना यह जतायी जा रही है कि खरमास के बाद बाबूलाल भाजपा में शामिल होने की आॅफिशियल घोषणा करेंगे और पार्टी उन्हें विधायक दल का नेता बना कर उनकी ताजपोशी करेगी। इस संभावना के बाद वैसे नेता, जो बाबूलाल को कभी अछूत समझते थे, वे भी बाबूलाल से फोन पर बात कर खुद को उनका हितैषी बताने से नहीं चूक रहे।
वर्ष 2006 में बाबूलाल मरांडी ने अपनी पार्टी बनायी थी और भाजपा से अलग होकर यह दिखा दिया था कि वे अकेले भी राजनीति की रपटीली राहों पर अपने नेतृत्व का करिश्मा दिखा सकते हैं। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनावों में भी उनकी पार्टी ने अपने दम पर 81 सीटों पर चुनाव लड़ा। हालांकि विगत चुनावों की तुलना में पार्टी की सफलता का प्रतिशत थोड़ा कम रहा, लेकिन उनकी टीआरपी अच्छी बनी रही। बाबूलाल के अलावा उनकी पार्टी के दो अन्य प्रत्याशी प्रदीप यादव और बंधु तिर्की जुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। पार्टी का वोट शेयर 5.45 फीसदी रहा। इधर भाजपा के हाथ से झारखंड की सत्ता फिसली तो पार्टी नेतृत्व की निगाहें बाबूलाल पर गड़ गयीं। हालांकि चुनाव के नतीजे आने के पहले से ही भाजपा के शीर्ष नेताओं ने बाबूलाल से संपर्क साधा था।
बाबूलाल को साधना चाहते हैं भाजपा के नेता
बाबूलाल के आने की खबर के बाद वैसे नेता अलर्ट मोड में हैं, जो किसी पद की लालसा लिये हुए हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि पार्टी में बाबूलाल आते हैं और यह साफ हो चुका है कि आयेंगे ही, तो माना जा रहा है कि आनेवाले वक्त में झारखंड भाजपा में बाबूलाल से पावरफुल दूसरा कोई नेता नहीं होगा। ऐसे में भाजपा नेता बाबूलाल से संपर्क कर उन्हें ये बताने में जुटे हैं कि उनके करीबी होने के कारण पार्टी में उनकी उपेक्षा हुई है। ऐसे नेताओं की कोशिश है कि बाबूलाल का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर पार्टी में अपनी स्थिति मजबूत की जाये। प्रयास है कि उनकी ओर बाबूलाल नजर-ए- इनायत करें। ऐसे नेताओं में वे भी शामिल हैं, जो झाविमो के गठन के समय उनके साथ चले गये थे, पर बाद में वे भाजपा में लौट गये थे। भाजपा में बाबूलाल के करीबी नेताओं की लंबी कतार है। जो उनके साथ नहीं भी थे, वे भी उनसे बातचीत करते थे और उनके व्यवहार का गुणगान करते थे।
भाजपा की जरूरत बन गये हैं बाबूलाल मरांडी
वर्ष 2006 में जब बाबूलाल मरांडी ने भाजपा छोड़ी थी और अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का गठन किया था, तभी से भाजपा चाहती थी कि वे पार्टी में लौट आयें, पर विविध कारणों से बाबूलाल नहीं लौटे। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा 25 सीटों पर सिमटी और झारखंड की 28 आदिवासी सीटों में से 26 पर पार्टी को करारी हार मिली, तो पार्टी को यह समझ में आ गया कि आगे पार्टी झारखंड मेें लीड तभी कर सकती है, जब बाबूलाल मरांडी सरीखे आदिवासी नेता पार्टी में हों। इसकी एक वजह तो यह है कि बाबूलाल कुशल संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता तो हैं ही, उनकी छवि भी साफ-सुथरी है। उन्हें मूल्यों और आदर्शों की राजनीति करनेवाले नेताओं में शुमार किया जाता है। वे लंबे समय तक भाजपा में रहने के कारण भाजपा की कार्यशैली से तो परिचित हैं ही, संघ परिवार से भी उनके संपर्क अच्छे हैं। पार्टी नेताओं के साथ भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी उनकी स्वीकार्यता जबरदस्त है। साथ ही वह इकलौते आदिवासी चेहरा हैं, जो आदिवासियों और मूलवासियों के अलावा समस्त झारखंडी जनता में अपनी कार्यशैली के कारण लोकप्रिय हैं। उनका मुख्यमंत्री के रूप में 28 महीने का कार्यकाल भी जनता के जेहन में ताजा है। वर्ष 2014 में 37 सीटें जीतनेवाली पार्टी, जब इस वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर सिमट गयी तो इस हार ने भाजपा को सोचने पर मजबूर कर दिया। पार्टी ने जब हार के कारणों पर मंथन किया तो एक निष्कर्ष यह निकला कि गैर आदिवासी सीएम होना भाजपा के लिए महंगा पड़ा। विपक्ष को यह बड़ा मुद्दा मिला और बाहरी मुख्यमंत्री का प्रचार विपक्षियों के लिए कामयाब रहा। इसके बाद भाजपा बाबूलाल को मनाने में पूरी ताकत से जुट गयी और पार्टी का यह प्रयास कामयाब भी रहा।
बाबूलाल की वापसी से भाजपा बनायेगी आदिवासियों में पैठ
झारखंड की राजनीति के जानकारों का कहना है कि बाबूलाल की भाजपा में वापसी से पार्टी में नयी जान आयेगी। उनके आने का सबसे बड़ा फायदा तो भाजपा को यह मिलेगा कि एक कद्दावर आदिवासी नेता पार्टी को मिल जायेगा। दूसरा उनके कुशल नेतृत्वकर्ता और संगठनकर्ता होने का भी फायदा पार्टी को मिलेगा। झारखंड विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद अब भाजपा की कोशिश राज्यसभा चुनाव तथा 2024 में होनेवाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को फिर से सत्ता में वापस लाने की है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को उम्मीद है कि बाबूलाल पार्टी को न सिर्फ सत्ता में वापस ले आयेंगे, बल्कि उनके नेतृत्व में पार्टी लंबे समय तक झारखंड में राज करने में भी सफल हो सकेगी। चुनाव के नतीजे से हताश पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए भी बाबूलाल भाजपा की जरूरत बन गये हैं। वहीं हेमंत सोरेन के मुकाबले में झारखंड में कोई दूसरा आदिवासी नेता भाजपा को दिखता है, तो वह बाबूलाल ही हंै। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में लक्ष्मण गिलुआ कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाये हैं। ऐसे में भाजपा को लगता है कि बाबूलाल के आने के बाद वे एक ऐसा प्रदेश अध्यक्ष तय करेंगे, जो विजनरी होगा और जिससे पार्टी भविष्य में बेहतर कर सकेगी। वहीं बाबूलाल भाजपा में इसलिए वापस आ रहे हैं, क्योंकि वे यह अच्छी तरह समझ गये हैं कि उनके लिए राजनीति का सबसे सही प्लेटफार्म भाजपा ही है और यही वह पार्टी है, जिसमें रहकर सत्ता का सर्वोच्च पद हासिल कर सकते हैं। ऐसे में बाबूलाल भाजपा की और भाजपा बाबूलाल की जरूरत बन गयी है। इस चुनौती की घड़ी में बाबूलाल ने भी भाजपा में लौटना अपने लिए उचित समझा, जो उनके लिए दूरदर्शी साबित हो सकता है।
भाजपा में वापसी की एक वजह यह भी
2006 में भाजपा से अलग होने के बाद लगातार 14 सालों तक बाबूलाल मरांडी ने एक तरह से राजनीतिक संघर्ष ही किया। इस दौरान वह भाजपा पर जितने हमलावर रहे, उतना शायद अन्य विपक्षी पार्टियां भी नहीं। हर एक मुद्दे पर बाबूलाल ने भाजपा पर खुल कर हमला बोला। प्रतिदिन भाजपा की नीतियों और सिद्धांतों की आलोचना भी करते रहे। सरकार के कामकाज पर उंगली उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इधर, भाजपा भी अपनी ओर से लगातार बाबूलाल मरांडी को तोड़ने और कमजोर करने की कोशिश करती रही। बावजूद इसके बाबूलाल डिगे नहीं। उन्हें हमेशा ही उम्मीद रही कि मुस्लिम और इसाई उनके साथ हैं। वह हमेशा इन दोनों वर्गों के लिए एक पैर पर खड़े रहे। सुख हो या दुख उनके साथ खड़े नजर आये। परंतु इन दोनों वर्गों का साथ उनके लिए कभी मतों के रूप में तब्दील नहीं हो सका। जब जब चुनाव हुए मुस्लिम और इसाई बाबूलाल से दूर ही नजर आये। जबकि इन्हीं दोनों के सहारे वह भाजपा से लड़ रहे थे। पर जब ये दोनों वर्ग चुनाव के दौरान उनसे ही दूरी बनाते रहे, तब उनके सामने पुरानी दुश्मनी को भुलाने के अलावा चारा ही नहीं रहा।