बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार ने अपने दो प्रमुख विश्वस्तों को पार्टी के बाहर का रास्ता दिखा कर साबित कर दिया है कि वह अपने तरीके से अपनी राजनीति करते हैं। जदयू के बाहर देश के राजनीतिक हलकों में पीके के नाम से चर्चित प्रशांत किशोर और पवन कुमार वर्मा का जदयू से निष्कासन उस कॉरपोरेट राजनीतिक संस्कृति की समाप्ति का संकेत है, जिसकी शुरुआत राजीव गांधी के जमाने में सैम पित्रोदा और मणिशंकर अय्यर सरीखे लोगों से हुई थी और अमर सिंह तथा प्रेमचंद गुप्ता से होते हुए पीके तक पहुंची। यह उस सफारी संस्कृति के अवसान का संकेत भी है, जिसने खादी और गांधी टोपी को भारत के राजनीतिक पटल से ओझल कर दिया था। पीके के राजनीति में सक्रिय होने से दलों के भीतर सुगबुगाहट तो हुई थी, लेकिन कोई सामने आने को तैयार नहीं था। आखिर क्या था इस पीके में, जिसे उसकी वास्तविक हैसियत बताने की हिम्मत न तो भाजपा में थी और न कांग्रेस में। क्षेत्रीय दलों, मसलन सपा, राजद या जदयू की तो बात ही छोड़ दें। नीतीश ने पहली बार इस नये पैदा हुए कल्चर पर विराम लगाया है, तो इसका कुछ न कुछ तो असर जरूर होगा। भारत की, खास कर हिंदी पट्टी की राजनीति पर नीतीश के इस कदम के संभावित असर का आकलन करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

किसी भी दल ने नहीं दिखायी थी इन्हें औकात बताने की हिम्मत

वह 2014 की गर्मियों का वक्त था, जब देश में आम चुनाव की गहमा-गहमी थी। यूपीए के 10 साल के शासन का अंत हो चुका था और भाजपा के नेतृत्व में नयी सरकार ने कामकाज संभाल लिया था। उस चुनाव में भाजपा की जीत का श्रेय पार्टी के देश भर में फैले कार्यकर्ताओं को नहीं देकर एक ऐसे शख्स को दिया गया, जो कहीं से राजनीति में नहीं था। वह शख्स था प्रशांत किशोर, जिसे लोग पीके के नाम से जानते थे।
मूल रूप से पूर्वांचल के रहनेवाले इस शख्स को भारतीय राजनीति के नये कॉरपोरेट अवतार के रूप में स्थापित कर दिया गया। समय का चक्र चलता रहा और भाजपा से पीके का रिश्ता टूट गया। पीके ने कांग्रेस का दरवाजा खटखटाया और यूपी चुनाव में पार्टी के लिए काम करने का प्रस्ताव दिया। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस प्रस्ताव पर आगे कदम बढ़ाया भी, लेकिन प्रदेश कांग्रेस ने पीके की इंट्री का कड़ा प्रतिरोध किया और उसके साथ ही कांग्रेस-पीके का रिश्ता बनने से पहले ही टूट गया। उस दौर में पीके के लिए भाजपा और कांग्रेस से बुरी पार्टी कोई नहीं थी। दोनों दलों की नीतियों की बखिया उधेड़ते हुए पीके ने नीतीश से संपर्क साधा और संयोग ऐसा हुआ कि नीतीश की सत्ता में वापसी हो गयी और इसके साथ ही पीके का सिक्का भी चल निकला। भारत की राजनीति में एक नये शब्द ‘पॉलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट’ का उदय हुआ और पीके को देश का पहला ‘पॉलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट’ कहा जाने लगा।
खुद प्रशांत किशोर को लगा कि अब राजनीति उनके बिना नहीं हो सकती है। नीतीश ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाने के साथ बिहार योजना पर्षद का भी उपाध्यक्ष बना दिया। पार्टी के भीतर पनपे असंतोष को नजरअंदाज कर नीतीश ने पीके को वह सब कुछ दिया, जिसकी कल्पना दशकों तक पार्टी का झंडा ढोनेवाला भी नहीं कर सकता। समय का चक्र फिर भी नहीं थमा और भारतीय राजनीति का यह नया अवतार दिल्ली, लखनऊ और पटना से आगे जाने की रणनीति पर काम करने लगा। उसने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी से संपर्क साधा। सौदा तय हो गया और पीके का नया पता कोलकाता बन गया। कई मुद्दों पर नीतीश और ममता के बीच मतभेद के कारण पीके को संतुलन बनाये रखने में परेशानी महसूस होने लगी, तो उन्होंने नीतीश से अलग होने का मन बना लिया, ताकि बंगाल में उनकी नयी दुकान चमक सके।
सीएए के रूप में उन्हें अवसर मिला और वह एक और पीके, यानी पवन कुमार वर्मा के साथ मिल कर नीतीश का विरोध करने लगे। उन्हें शायद यकीन था कि नीतीश भी दूसरे नेताओं की तरह उनके आगे हाथ जोड़ेंगे और गिड़गिड़ायेंगे, लेकिन यहीं वे चूक गये। उन्हें बिहार की राजनीति की समझ तो थी, लेकिन इसकी संवेदनशीलता को आंकने में उनसे गलती हो गयी। नीतीश ने दोनों को उनकी हैसियत बता दी।
इस तरह प्रशांत किशोर एक बार फिर चर्चा में हैं। बेशक वह बेहद प्रतिभाशाली हैं, तकनीकी रूप से रणनीति बनाने में माहिर हैं, लेकिन राजनीति में केवल यही दो चीजें मुख्य नहीं है। प्रशांत किशोर ने पहले भाजपा के लिए काम किया, फिर जदयू के लिए काम किया और दोनों पार्टियों ने चुनाव जीता, तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पीके हर चुनाव में सफलता की गारंटी दे सकता है। लेकिन पीके से यही चूक हुई कि वह खुद को राजनीतिक दलों और यहां तक कि भारतीय राजनीति से खुद को ऊपर समझ बैठे। राजनीतिक हलकों में यह सवाल तब भी उठा था और अब भी उठ रहा है कि शुद्ध रूप से अपनी दुकान चमकाने के लिए भारत आये प्रशांत किशोर को इतनी अहमियत क्यों मिली।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्रशांत किशोर एक व्यवसायी हैं और राजनीति उनके लिए अपनी दुकान का साइन बोर्ड मात्र है। इस साइन बोर्ड पर वह मौका देख कर कमल का फूल लगाते हैं, तो कभी पंजा और कभी तीर। अब उनके साइन बोर्ड पर तृणमूल कांग्रेस का प्रतीक चिह्न अंकित हो गया है। तो फिर उनके खिलाफ कोई भी राजनीतिक दल क्यों स्टैंड नहीं लेता। पीके का उदय भारतीय राजनीति के उस युग के अंत का प्रतीक था, जिसके केंद्र में आदर्श, विचारधारा, कार्यकर्ता और जनता नाम की चीज हुआ करती थी। अब जबकि पीके की हिंदी पट्टी की राजनीति से विदाई हो चुकी है, यह उम्मीद तो बंध ही गयी है कि राजनीति पुरानी लीक पर लौट आयेगी। उस पुरानी लीक पर, जिसमें कार्यकर्ता होते थे, जनता होती थी और नीतियों-आदर्शों और विचारधारा की बात होती थी। और इस राजनीति को दोबारा मुख्य धारा में लाने का श्रेय निश्चित तौर पर नीतीश कुमार को मिलना ही चाहिए। राजनीतिक रूप से संवेदनशील बिहार इस अध्याय को भी देख रहा है और वह अपनी राय जरूर व्यक्त करेगा।

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