विशेष
सलाहकारों के कारण एक बार फिर से दोराहे पर फंस गये हैं राहुल गांधी
अपने कोर वोटरों को नजरअंदाज करने की बड़ी कीमत चुकायेगी पार्टी

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
देश की सियासत के केंद्र में अभी दिल्ली का विधानसभा चुनाव है, जिसमें मुख्य मुकाबला आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच होता दिख रहा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस दिल्ली चुनाव में फिलहाल क्षेपक की भूमिका में ही नजर आ रही है, क्योंकि इंडी गठबंधन के उसके सहयोगियों ने उसे अकेला छोड़ दिया है। ऐसे में कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती राष्ट्रीय राजधानी में अपना वजूद बचाने की है। लोकसभा चुनाव में और उसके बाद लगातार ओबीसी-दलित राजनीति को केंद्र में लाने की कोशिश में जुटे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दिल्ली में भी यही फार्मूला लागू करने की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। उनकी यह कोशिश वास्तव में कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर विपरीत असर डालनेवाली हो सकती है। राहुल गांधी और कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में दलितों और ओबीसी वोटरों पर फोकस तो किया है, लेकिन इस क्रम में उसने अपने कोर वोटर, यानी ब्राह्मण और मुस्लिम को नजरअंदाज कर दिया है। इसका सीधा फायदा आम आदमी पार्टी और भाजपा को मिलता हुआ दिखाई दे रहा है, क्योंकि मुस्लिम जहां अरविंद केजरीवाल की पार्टी को समर्थन देने का मन बना चुके हैं, वहीं ब्राह्मण वोटरों का झुकाव भाजपा की तरफ दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस के लिए दलित-ओबीसी वोटरों पर ध्यान केंद्रित करना आत्मघाती साबित हो सकता है, जिसका असर इस साल के अंत में होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव में भी पड़ सकता है। क्या है दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सामाजिक रणनीति और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

दिल्ली में अगले महीने होनेवाले विधानसभा चुनाव में एक साथ कई सियासी घटनाक्रम हो रहे हैं। इंडी गठबंधन टूट गया है, तो भाजपा के भीतर नये उत्साह का संचार हुआ है। उधर सत्ताधारी आम आदमी पार्टी हर दिन नये-नये विवाद में घिरती जा रही है, तो कांग्रेस के सामने रास्ता लगातार मुश्किल होता दिखने लगा है। ऐसे में आज बात करते हैं कांग्रेस की, जो दिल्ली के चुनावी मैदान में क्षेपक की भूमिका में नजर आ रही है।

दरअसल कांग्रेस इस समय ऐसे दोराहे पर खड़ी है, जहां से उसे कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा है। पार्टी ने जातीय राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया था, तो दिल्ली चुनाव में यह रणनीति ही उसके लिए आत्मघाती साबित होती दिख रही है। अपने युवराज राहुल गांधी की रणनीति अब कांग्रेस पर ही भारी पड़ने लगी है। ऐसे लग रहा है कि कांग्रेस की गाड़ी एक बार फिर गलत ट्रैक पर चल पड़ी है।

देश की राजनीति के मैदान में राहुल गांधी को लगातार गलतियां करने वाले नेता के तौर पर जाना जाता है। कई बार तो राहुल गांधी जीता हुआ चुनाव भी हार जाते हैं। आरोप तो यहां तक लगाया जाता है कि राहुल गांधी के इर्द-गिर्द जो नेता रहते हैं, वे चाहते ही नहीं हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव जीते। इसलिए कांग्रेस के नेता लगातार राहुल गांधी को अजब-गजब फैसले लेने के लिए उत्साहित और प्रेरित करते रहते हैं। राहुल गांधी कई बार चुनावी मैदान में सेल्फ गोल करते दिखाई देते हैं, तो कई बार गलत ट्रैक पर जाकर रास्ता ही भटक जाते हैं। दिल्ली विधानसभा जैसे महत्वपूर्ण चुनाव में भी एक बार फिर से राहुल गांधी गलत ट्रैक पर जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

यह बात बिल्कुल सौ फीसदी सही है कि कांग्रेस के वोट बैंक को छीन कर ही आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपराजेय पार्टी के तौर पर स्थापित हुई है, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि कांग्रेस पार्टी अपना वह पुराना वोट बैंक आप से पूरी तरह से छीनने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में बेहतर तो यह होता कि कांग्रेस अपने पुराने वोट बैंक को पाने के लिए चरणबद्ध तरीके से रणनीति बना कर उसे अमल में लाती, लेकिन इसकी बजाय कांग्रेस रणनीतिक तौर पर एक बहुत बड़ी गलती करती हुई दिखाई दे रही है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी खोयी जमीन पाने के लिए कांग्रेस ‘एमओज’ (मुस्लिम, ओबीसी आदि) फार्मूला अपनाने जा रही है। यानी कांग्रेस दिल्ली में अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिम बहुल सीटों के साथ ही उन विधानसभा सीटों पर फोकस करेगी, जहां-जहां ओबीसी और दलित मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। हकीकत में कांग्रेस यहीं सबसे बड़ी गलती करने जा रही है। राहुल गांधी के करीबियों ने उन्हें यह सलाह देकर एक बार फिर से उनके नेतृत्व में पूरी कांग्रेस पार्टी को गलत ट्रैक पर डाल दिया है। मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर के बाद ओबीसी, यानी अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाता पूरी तरह से कांग्रेस से विमुख हो चुके हैं और इनकी वापसी की संभावना फिलहाल दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। ऐसे में कांग्रेस के इस फार्मूले का असफल होना तय माना जा रहा है।

दरअसल राहुल गांधी को कांग्रेस को फिर से मजबूत करने के लिए एमओएस की बजाय बीडीएम के फार्मूले को अपनाना चाहिए, जिसके बल पर पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और मनमोहन सिंह तक देश पर राज कर चुके हैं।

बीडीएम फार्मूले का मतलब है-ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम। इसी समीकरण के बल पर कांग्रेस ने लंबे समय तक देश पर राज किया है। लोकसभा चुनाव के समय से ही मुस्लिम मतदाताओं के बड़े वर्ग ने कांग्रेस की तरफ लौटना शुरू कर दिया है। दिल्ली में भी इस बार के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का वोट बड़े पैमाने पर कांग्रेस को मिलने की संभावना है और अगर कांग्रेस भाजपा को हराती हुई नजर आयी, तो पूरा मुस्लिम समाज कांग्रेस उम्मीदवारों को वोट देते हुए नजर आयेगा। लेकिन इसके लिए कांग्रेस को बीडीएम फार्मूले के बी और डी, यानी ब्राह्मण और दलित को भी अपने साथ जोड़ना होगा। दिल्ली का दलित आज की तारीख में अरविंद केजरीवाल के साथ खड़ा है और उन्हें अपने पाले में लाने के लिए राहुल गांधी को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के मान-सम्मान की लड़ाई को और ज्यादा तेज करना पड़ेगा। ब्राह्मण मतदाताओं की बात करें, तो दिल्ली में यह समाज आज की तारीख में भाजपा, आप और कांग्रेस- तीनों ही पार्टियों में बंटा हुआ है। राहुल गांधी अगर थोड़ी सी कोशिश भी करेंगे, तो अन्य राजनीतिक दलों के ओबीसी राग से नाराज ब्राह्मण समाज पूरी तरह से कांग्रेस के पाले में खड़ा नजर आयेगा।

राहुल गांधी ने सोमवार को पहली बार दिल्ली के चुनावी मैदान में उतर कर पहली जनसभा की है। इसमें अच्छी भीड़ भी हुई। उनको जोर-शोर से दिल्ली में चुनावी जनसभाएं, रोड शो और रैलियां करनी ही चाहिए। लेकिन उन्हें कांग्रेस के पूरे चुनाव प्रचार अभियान को बीडीएम केंद्रित ही बनाना चाहिए और इसे जमीनी धरातल पर उतर कर क्रियान्वित भी करना चाहिए। गौर करने वाली बात यह है कि ब्राह्मण मतदाताओं का बड़े पैमाने पर साथ आना अन्य अगड़ी जातियों को भी कांग्रेस उम्मीदवारों को वोट देने के लिए प्रेरित कर सकता है। यानी कांग्रेस को नये वोटरों को जोड़ने की कोशिश में अपने कोर वोटरों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।

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