भारत से अपने खास रिश्ते को कई मौकों पर व्यक्त कर चुके हैं डोनाल्ड ट्रंप
पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप और मोदी की गहरी मित्रता देख चुकी है दुनिया

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभालते ही अमेरिकी इतिहास में दूसरे ऐसे राष्ट्रपति बन गये हैं, जिन्होंने गैर-लगातार कार्यकाल के लिए चुने जाने का गौरव प्राप्त किया। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप की वापसी वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रभाव डालने वाली है। साथ ही यह भारत के लिए अवसरों और चुनौतियों का मिश्रण प्रस्तुत करती है। ट्रंप की व्यापार, रक्षा और विदेशी संबंधों की नीतियां- विशेष रूप से दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत में- अमेरिका-भारत संबंधों की भविष्य की दिशा को आकार देंगी। पहले की प्रशासनिक नीतियों की तरह चीन को लेकर साझा चिंताओं और क्षेत्रीय सुरक्षा व आर्थिक स्थिरता में बढ़ती रुचि के कारण दोनों देशों के बीच रणनीतिक संबंध ट्रंप के कार्यकाल में और गहरे होने की संभावना है। ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका-भारत रणनीतिक साझेदारी में विशेष रूप से रक्षा और सुरक्षा क्षेत्र में निरंतर वृद्धि की संभावना है। चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर साझा चिंता दोनों देशों के लिए एक मजबूत एकीकृत कारक बनी हुई है। ट्रंप का क्वाड को मजबूत करने पर जोर भारत के हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण के साथ मेल खाता है। भारत को संयुक्त सैन्य अभ्यास, रक्षा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और खुफिया जानकारी साझा करने में अमेरिका से और अधिक समर्थन मिलने की उम्मीद है, जो भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा क्षमताओं को बढ़ायेगा। इसके अलावा पश्चिम एशिया में भी भारत के साथ अमेरिका के सहयोग बढ़ने की संभावना है, खासकर ऐसे समय में जब भारत-मध्य एशिया-यूरोप आर्थिक गलियारे जैसी पहलें चर्चा में हैं और इस्राइल-सऊदी अरब के संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयास जारी हैं। भारत के दृष्टिकोण से कैसा रहेगा डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी भारत नीति पर काफी चर्चा हो रही है। ज्यादातर बातचीत द्विपक्षीय मुद्दों पर केंद्रित है, जो महत्वपूर्ण तो हैं ही, लेकिन जैसा कि भारत सरकार ने पहले भी अनुभव किया है, किसी अमेरिकी राष्ट्रपति या प्रशासन का भारत के बारे में क्या नजरिया है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह होता है कि उनका दुनिया, प्राथमिकताओं और नीतियों के बारे में व्यापक नजरिया क्या है। इसका भारत पर गहरा असर पड़ता है।

भारत को ट्रंप के पहले कार्यकाल से ही इस बात का अंदाजा है, लेकिन भारत के लिए यह भी जरूरी होगा कि वह उन बहसों पर नजर रखे, जो ट्रंप प्रशासन के भीतर चलेंगी। इन बहसों में राष्ट्रपति ही अंतिम फैसला लेंगे। ये बहसें क्षेत्रीय और कार्यात्मक मुद्दों पर होंगी। इनके नतीजे भारत के विकल्पों और अमेरिका के भारत के प्रति नजरिये को प्रभावित करेंगे।

पिछले हफ्ते विदेशी मामलों की सीनेट समिति के रिपब्लिकन अध्यक्ष ने कहा कि जब किसी भी देश की बात आती है, तो उनके तीन सवाल होते हैं, अमेरिका को उस देश से क्या चाहिए, वह देश अमेरिका से क्या चाहता है और क्या अमेरिका जो दे रहा है, उससे अमेरिका को वह मिल रहा है, जो उसे चाहिए? ऐसे में भारत ट्रंप प्रशासन के उन सवालों के लिए तैयारी कर रहा है, जो पहले सवाल से निकल सकते हैं। जैसे कि रणनीतिक सहयोग, बाजार में पहुंच और टैरिफ में कमी, ज्यादा संख्या में भारतीयों का निर्वासन स्वीकार करना और अवैध अप्रवासियों और फेंटेनाइल के रासायनिक पदार्थों के प्रवाह को रोकना। भारत यह भी बताने की कोशिश करेगा कि तीसरे सवाल का जवाब हां है।
यह तीन तरफा रणनीति का हिस्सा होने की संभावना है। अमेरिका के साथ संबंधों को गहरा करने में निवेश करना, ट्रंप 2.0 और उसके अलग लहजे, तरीकों और दिग्गजों के साथ तालमेल बिठाना और अपनी साझेदारियों में विविधता लाकर चीन के साथ संबंधों को स्थिर करके और अपनी स्वतंत्र क्षमताओं को बढ़ाकर खुद को सुरक्षित रखना। लेकिन जैसा कि भारत ऐसा करता है, उसे वाशिंगटन में कई नीतिगत बहसों पर भी नजर रखने की जरूरत होगी, जो भारत के हितों, विकल्पों और आवश्यक नीतिगत प्रतिक्रियाओं को प्रभावित कर सकती है।

चीन, रूस और ईरान
इस मायने में सबसे महत्वपूर्ण बहसों में से एक अमेरिका की चीन नीति पर होगी। ट्रंप के खुद अलग-अलग विचार हैं। कभी वह चीन के बारे में भू-राजनीतिक या आर्थिक चिंता व्यक्त करते हैं या अमेरिका को इस रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करने का आह्वान करते हैं। कभी वह शी जिनपिंग के साथ समझौता चाहते हैं और हिंद-प्रशांत में अमेरिका की प्रतिबद्धताओं पर सवाल उठाते हैं।

ट्रंप के नामांकित और प्रभावशाली लोगों में कई चीन विरोधी शामिल हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जिनका चीन के प्रति अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण है। यह बहस कैसे और कब विकसित होती है, इसका भारत पर काफी प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि चीन के प्रति भारत की रणनीति में अमेरिका की भूमिका, बीजिंग के व्यवहार पर प्रभाव, अन्य देशों की चीन को संतुलित करने की इच्छा और इसका अन्य बहसों पर प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर अंतरराष्ट्रीय संगठनों में और वैश्विक दक्षिण के साथ कितना शामिल होना है।

एक और बहस, जो भारत के हितों को प्रभावित करेगी, वह रूस पर होगी, खासकर कि क्या, कैसे और कब ट्रंप प्रशासन रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने में मदद कर सकता है। ट्रंप ने हाल ही में कहा है कि समाधान बहुत अधिक जटिल होगा और उम्मीद से अधिक समय लेगा। अन्य सवाल होंगे कि रूस पर प्रतिबंधों और गहरी होती बीजिंग-मास्को साझेदारी पर कैसे ध्यान दिया जाये।

तीसरी बहस ईरान के प्रति अमेरिकी नीति पर हो सकती है। ट्रंप के कुछ करीबियों ने न केवल अधिकतम राजनयिक और आर्थिक दबाव, बल्कि तेहरान की परमाणु या क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिकी या इजराइली बल के संभावित उपयोग का भी तर्क दिया है। अन्य लोग अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप से सावधान हैं और ट्रंप ने वास्तव में हमेशा के लिए युद्धों से दूर रहने का प्रचार किया था। बाहरी विश्लेषकों से कुछ अटकलें भी लगायी गयी हैं कि क्या वह ईरान के साथ किसी समझौते के लिए तैयार हो सकते हैं।

भारत के लिए इस बहस का नतीजा मायने रखता है, क्योंकि वह क्षेत्रीय अस्थिरता नहीं देखना चाहेगा, बल्कि भारत उम्मीद कर रहा है कि इजरायल-हमास समझौता भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे और एक इजरायली-सऊदी समझौते का मार्ग प्रशस्त करेगा, जिससे भारत को भी लाभ हो सकता है।

भारत से व्यापारिक संबंध
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत के लिए निहितार्थों के साथ कार्यात्मक पक्ष पर भी कई बहसें होंगी। उदाहरण के लिए ट्रंप अपने व्यापार एजेंडे को कैसे अंजाम देंगे। क्या टैरिफ पूरे बोर्ड पर होंगे या क्षेत्र या देश विशिष्ट होंगे। क्या रणनीतिक कारणों से देशों के लिए अपवाद करने की इच्छा होगी और उन्हें किस तरह के सौदे पर्याप्त लगेंगे। इसके अलावा औद्योगिक नीति पर बहस होगी, जिसमें प्रशासन हर पहलू के बीच संतुलन देखना चाहेगा। ऊर्जा क्षेत्र से संबंधित बहसें भी होंगी कि क्या ट्रंप प्रशासन केवल जीवाश्म ईंधन पर ध्यान केंद्रित करेगा या क्या वह रणनीतिक (सुरक्षित आपूर्ति शृंखला), आर्थिक (प्रतिस्पर्धात्मकता) और राजनीतिक (निवेश और रोजगार सृजन) कारणों से अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियों की सुविधा प्रदान करना जारी रखेगा। इसके अलावा और कई प्रौद्योगिकी संबंधी बहसें होंगी, जो भारत को प्रभावित कर सकती हैं, जिनमें निर्यात नियंत्रण, परिनियम, बाह्य और आंतरिक निवेश नियम, आपूर्ति शृंखला समन्वय और प्रतिभा अधिग्रहण शामिल हैं। जैसा कि पहले ही स्पष्ट हो चुका है, उच्च-कुशल आव्रजन पर ट्रंप जगत में अलग-अलग गुट हैं।

इन बहसों का परिणाम कई कारकों पर निर्भर करेगा, जिनमें राष्ट्रपति का अपना दृष्टिकोण, प्रतिस्पर्धी हितधारकों के प्रभाव का स्तर और विभिन्न देश कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, शामिल हैं। ट्रंप का पहला कार्यकाल बताता है कि एक बार कोई निष्कर्ष निकलने का मतलब यह नहीं है कि बहस खत्म हो गयी है। राष्ट्रपति अपना विचार बदल सकते हैं या परिस्थितियां बदल सकती हैं। इस प्रकार भारत और अन्य देशों को इन बहसों और वे कैसे विकसित होती हैं, इस पर लगातार नजर रखने की आवश्यकता होगी। और कुछ शायद उनके परिणामों को आकार देने की भी कोशिश करेंगे।

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में जहां अमेरिका दुनिया में अपनी स्थिति को और मजबूत करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ेगा, वहीं ट्रंप का राष्ट्रवाद दुनिया भर में जोर पकड़ेगा। इससे भारत के साथ उसके रिश्ते को मजबूती मिलेगी, जैसा कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में दुनिया देख चुकी है। निजी रूप से प्रधानमंत्री मोदी और ट्रंप की नजदीकी भी दोनों देशों के कूटनीतिक रिश्ते को नया आयाम दे सकते हैं।

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