आजाद सिपाही संवाददाता
रांची। झारखंड परंपरा और जनजातीय लोगों के कारण ही देश में जाना जाता है। विभिन्न त्योहारों रीतियों और मान्यताओं के कारण ये राज्य केवल प्रवासियों को ही नहीं, बल्कि शोधकतार्ओं को भी अपनी ओर सदैव आकर्षित करता है। ऐसी ही एक परंपरा 133 सालों से चली आ रही है, जिसे हिजला मेला के नाम से जानते हंै। बता दें कि आज से ही झारखंड के दुमका में इस मेले की शुरूआत हो गयी है और यह मेला 3 मार्च तक चलेगा। मालूम हो कि 130 वर्षों से अधिक समय से लगने वाले इस मेले में लोगों की भीड़ उमड़ने लगी है। इस मेले का आयोजन दुमका में मयूराक्षी नदी के तट पर और हिजला पहाड़ी की ढलान पर होता है। इस मेले के इतिहास की बात करें तो संताल परगना के तत्कालीन अंग्रेज उपायुक्त जॉन राबर्ट्स कास्टेयर्स के समय 3 फरवरी सन 1890 ई. में इस ऐतिहासिक मेले की मजबूत नींव रखी गयी थी। इस मेले के आयोजन का उद्देश्य स्थानीय परंपरा, रीति-रिवाज और लोगों से सीधा संवाद स्थापित करने हेतु किया गया था। वहीं हिजला शब्द की उत्पत्ति हिज लॉज से मानी जाती है। इसके साथ ही एक मान्यता यह भी है कि स्थानीय गांव हिजला के आधार पर हिजला मेला का नामकरण किया गया है। समय के अनुसार इसके नामों में भी बदलाव आया और वर्ष 1975 में संताल परगना के तत्कालीन उपायुक्त गोविंद रामचंद्र पटवर्धन की पहल पर हिजला मेला के आगे जनजातीय शब्द जोड़ दिया गया। वहीं झारखंड सरकार ने इस मेले की लोकप्रियता को देखते हुए 2008 से एक महोत्सव रूप में मनाने का निर्णय लिया। 2015 में इस मेला को राजकीय मेला का दर्जा प्रदान किया गया, जिसके पश्चात यह मेला राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव के नाम से जाना जाता है। एक बड़ी बात तो इस मेले से जुड़ी हुई है। किसी भी राजकीय मेले या महोत्सव का उद्घाटन नेता, मंत्री या अफसर करते हैं और मंत्री-नेता और पदाधिकारी अतिथि बनने या फीता काटने के लिए तैयार रहते हैं। वहीं इस मेले के उद्घाटन से सभी कतराते हैं। बता दें कि अब से तीन दशक पहले तक राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी इस मेले के उद्घाटन समारोह में शामिल हुआ करते थे। लेकिन मेले के उद्घाटन के बाद राजनेताओं की कुर्सी हाथ से निकल जाने पर कई तरह की भ्रांतियां बन गयीं, जिसके कारण अब राजनेता और अधिकारी इस मेले का फीटा काटने से कतराते हैं। मेले का उदघाटन अब ग्राम प्रधान के हाथों होता है।