विशेष
-दोनों ने अपने-अपने पिता की विरासत संभाल रखी है
-मोदी लहर में टिके रहे तेजस्वी, कहां चूक गये अखिलेश
-लगभग समान हैं दोनों की परिस्थितियां, पर क्यों है इतना अंतर

आज बात करेंगे हिंदी पट्टी के दो सबसे बड़े राज्यों, उत्तरप्रदेश और बिहार की राजनीति के दो युवा चेहरों की, जो अपने-अपने पिता की विरासत को संभाल रहे हैं और उनकी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन इनमें से एक बार-बार अपनी सफलता के झंडे गाड़ रहा है, तो दूसरा सफलता के इंतजार में है। जी हां, हम बात कर रहे हैं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और राजद नेता और बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की। इन दोनों युवा नेताओं की तुलना करने से पहले इस संयोग को ध्यान में रखना होगा कि दोनों की परिस्थितियां लगभग समान हैं और दोनों राजनीति की लगभग एक जैसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। तब इन दोनों की सफलता की दर में इतना बड़ा अंतर कैसे पैदा हो गया है, यह राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय हो सकता है। सामाजिक न्याय और धुर सांप्रदायिकता के खिलाफ दोनों की राजनीति चल तो रही है, लेकिन तेजस्वी की राजनीतिक उपलब्धियों के सामने अखिलेश यादव बौने नजर आ रहे हैं, जबकि अखिलेश को एक बार सीएम की कुर्सी पर बैठने का अवसर मिल चुका है। तेजस्वी अब तक वहां नहीं पहुंचे हैं, लेकिन रोजमर्रा की राजनीति और नीतियों में तेजस्वी हमेशा ‘बीस’ ही नजर आते हैं। कहा जा सकता है कि दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि में अंतर के कारण ही यह सब हो रहा है, लेकिन दोनों पार्टियों की नीतियों में इतना अधिक अंतर कुछ हजम नहीं हो रहा है। अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव की राजनीति की तुलना के साथ इसके कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के दो सबसे बड़े राज्यों, उत्तरप्रदेश और बिहार में वैसे तो राजनीतिक रूप से कई समानताएं हैं, लेकिन यह एक अनोखा संयोग है कि दोनों राज्यों की परिस्थितियां भी लगभग एक जैसी हैं। इन समान परिस्थितियों में दोनों राज्यों में दो ऐसे युवा नेता इन दिनों चर्चा में हैं, जिनका सक्सेस रेट अलग-अलग है। इनके नाम तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव हैं। तेजस्वी यादव जहां राजद सुप्रीमो लालू यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, वहीं अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के बड़े पुत्र हैं। ये दोनों अपने-अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे तो बढ़ा रहे हैं, लेकिन इनकी सफलता की दर एकदम अलग है। दोनों की राजनीतिक परिस्थितियां और चुनौतियां समान होने के बावजूद सफलता में इतना अंतर थोड़ा अजीब लगता है।

तेजस्वी और अखिलेश होने का फर्क
2014 में केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद उत्तर भारत के दो बड़े नेताओं, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ने अलग अलग रणनीति पर काम किया और दोनों को अलग तरह के नतीजे मिले। तेजस्वी यादव ने भाजपा, सांप्रदायिकता और खासकर सामाजिक न्याय को लेकर अपने स्वर लगातार तीखे रखे, रोहित वेमुला की घटना से लेकर एससी-एसटी एक्ट पर राजद सड़कों पर रहा और कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी लहर में बिहार में हुए दोनों विधानसभा चुनावों के बाद उनकी पार्टी विधानसभा में सबसे प्रमुख दल बनकर उभरीष एक युवा नेता के लिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है, क्योंकि इस पूरे दौर में उनके पिता और पार्टी अध्यक्ष लालू प्रसाद ज्यादातर समय या तो जेल में या फिर अस्पताल में रहे। 2020 के विधानसभा चुनाव में तो उन्हें प्रचार करने का भी मौका नहीं मिला। फिर भी राजद ने उन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया। तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता लगातार जाहिर करते रहते हैं और इसका लाभ उन्हें चुनावों में मिलता है।
लेकिन यही बात अखिलेश यादव के लिए नहीं कही जा सकती। 2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से समाजवादी पार्टी ने कोई चुनाव नहीं जीता है। 2017 में तो 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में सपा की सीटें घटकर सिर्फ 47 रह गयी थीं। 2022 में सपा की सीटें बढ़ीं और आंकड़ा 111 तक पहुंचा, लेकिन बहुमत से यह संख्या बहुत दूर है। मामला सिर्फ चुनाव हारने का होता, तो सपा को ज्यादा परेशानी नहीं होती। चुनावों में पार्टियों की जीत-हार होती रहती है। भाजपा ने भी अपनी जबरदस्त ढलान देखी है। सपा की असली समस्या यह है कि उसका राजनीतिक विचार और एजेंडा खो गया है। खासकर सामाजिक न्याय का एजेंडा तो उसने तब खोया, जब अखिलेश यादव सत्ता में थे। 2013 में सपा के एक सांसद ने एससी-एसटी के समर्थन में आरक्षण बिल फाड़ दिया, जिससे सपा को लेकर काफी दलित अब भी नाराज हैं और यह नाराजगी वाजिब भी है। अगर पार्टी ने ये सोचा था कि ऐसा करने से सवर्ण वोटर उसकी तरफ आयेंगे, तो यह नहीं हुआ, क्योंकि तब तक मोदी का उभार शुरू हो चुका था और सवर्ण भाजपा के खेमे में जा चुके थे।
अखिलेश से यह चूक इसलिए हो रही है, क्योंकि सामाजिक न्याय की कोई मजबूत विरासत उनके पास नहीं है। उनका लोहियावादी समाजवाद काफी हद तक नारा ही है। दूसरी तरफ तेजस्वी ने सामाजिक न्याय के समानांतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ अभियान चला कर खुद को राजनीति में अगली पंक्ति में कायम रखा है। यहां यह बात भी जानना जरूरी है कि जब मंडल कमीशन लागू हुआ और चंद्रशेखर ने वीपी सिंह की सरकार गिराने के लिए गोलबंदी की, तो मुलायम सिंह चंद्रशेखर के खेमे में खड़े हुए, जबकि लालू शुरू से ही वीपी सिंह के साथ थे।

पारिवारिक परंपरा भी एक कारण
तेजस्वी और अखिलेश के लिए राजनीतिक परिस्थितियां भले एक जैसी हैं, लेकिन दोनों की पारिवारिक परिस्थितियां और परंपरा अलग-अलग हैं। मुलायम सिंह यादव का कुनबा इतना बड़ा और बिखरा हुआ है कि उनकी विरासत को लेकर अखिलेश को अक्सर घर के भीतर से ही चुनौती मिलने लगती है। कभी शिवपाल यादव, तो कभी अपर्णा यादव, तो कभी कोई और उनके सामने आ जाता है। इस मायने में तेजस्वी किस्मत वाले हैं, क्योंकि लालू की विरासत को संभालने के मामले में उन्हें चुनौती देनेवाला कोई नहीं है। यहां तक कि उनकी बहन मीसा भारती या बड़े भाई तेजप्रताप भी नहीं।
अब अगर अखिलेश यादव सपा को सामाजिक न्याय के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, तो उन्हें नयी शुरूआत करनी होगी। उनकी पार्टी के पिछले काम और विरासत से उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलेगा। उनके लिए सामाजिक न्याय का चैंपियन बन पाना आसान नहीं होगा। उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को एक नयी लाइन थमा दी है और राजनीतिक हलके में इसके चर्चे हैं। उन्होंने अपना और पार्टी का फोकस सामाजिक न्याय, जातिवाद विरोधी और जाति जनगणना पर लगाने का संकेत दिया है और इसी के अनुसार पार्टी संगठन में भी फेरबदल करके पूरा दारोमदार ओबीसी और एससी पर सौंप दिया है। लेकिन इससे उन्हें तेजस्वी जितनी सफलता मिलेगी, इसमें संदेह है।
अखिलेश को समझना होगा कि 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने के बाद उत्तर भारत, खासकर यूपी का सामाजिक और जातीय समीकरण काफी बदल गया, क्योंकि भाजपा ने इस दौरान ओबीसी मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली। इसके लिए भाजपा ने कई रणनीतियां अपनायीं। तेजस्वी ने भी बिहार की राजनीति का अध्ययन कर यही सब करने का फैसला किया और इसका नतीजा सामने है।

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