विशेष
दिल्ली में एक बार फिर शून्य पर बोल्ड हो गये राहुल गांधी
पीएम मोदी ने लोकसभा चुनाव की बढ़त को वापस छीना
देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह आत्ममंथन का समय
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। इससे पहले झारखंड को छोड़ दें, तो हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा था। पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने जरूर अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया था और 52 से बढ़ कर 99 सीटों पर पहुंची थी। तब ऐसा लगा था कि कांग्रेस के पुराने दिन लौट रहे हैं, लेकिन आम चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में पीएम मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जोरदार वापसी की है। लोकसभा चुनाव के बाद पिछले आठ महीने में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए। यहां कुल सीटों की संख्या 624 है। इनमें कांग्रेस ने 328 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 75 सीटें जीतीं, यानी उसका स्ट्राइक रेट महज 23 प्रतिशत रहा। दिल्ली में तो कांग्रेस पूरी तरह से खत्म ही हो चुकी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी और कांग्रेस को मिली सफलता नरेंद्र मोदी ने वापस कैसे छीन ली और क्या आने वाले बिहार और बंगाल चुनाव में कांग्रेस इन पराजयों से कुछ सीख सकती है। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने समझ लिया था कि वह भाजपा को अपने दम पर नहीं हरा सकती। इसलिए इंडी ब्लॉक बनाया गया। तमाम उठापटक के बावजूद जनता के बीच एकजुटता का संदेश दिया। इससे सारे भाजपा विरोधी वोट एकजुट हो गये। लेकिन पहले हरियाणा और फिर दिल्ली में इंडी ब्लॉक का टूटना ही कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा कारण बन गया। दिल्ली में लगातार तीसरी बार हार के बाद अब कांग्रेस के लिए क्या रास्ता हो सकता है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में 27 साल बाद भाजपा की शानदार जीत और आम आदमी पार्टी (आप) की हार का असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ने वाला है। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों, जिसने लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले तगड़े झटके के बाद उसे एक नयी गति प्रदान की थी, की तुलना में यह चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण है। दिल्ली का चुनाव देश की राजनीति के लिए और भाजपा और आप के लिए तो अहम है ही, यह कांग्रेस के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है।
कांग्रेस के भविष्य पर सवाल
आज लोग भाजपा की शानदार जीत और आम आदमी पार्टी की हार की ही बातें नहीं कर रहे हैं, बल्कि दिल्ली के सियासी गलियारों में ज्यादा चर्चा कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर हो रही है। लोग पूछ रहे हैं कि कांग्रेस ने इतना खराब प्रदर्शन क्यों किया। लोकसभा चुनाव के विपरीत विधानसभा चुनाव में आप से अलग होकर लड़ने का कांग्रेस का फैसला कितना सही था? इस निर्णय के पीछे मकसद यह था कि यदि आप खत्म हो जाये, तो फिर दिल्ली में उसे पनपने के लिए खुली जगह मिल जायेगी। लेकिन क्या राजनीति ऐसे काम करती है? आज अगर कांग्रेस कम से कम चार-पांच सीटें जीत जाती और अपने वोट शेयर में 10-15 प्रतिशत का इजाफा करती, तो इस तरह का दावा वह कर सकती थी। लेकिन कांग्रेस का वोट शेयर दो प्रतिशत भी नहीं बढ़ा है और वह लगातार तीसरी बार एक भी सीट नहीं जीत पायी है।
कांग्रेस में कई लोग ऐसे हैं, जो मानते हैं कि आप के साथ चुनाव नहीं लड़ने का फैसला सही था। हम देखते हैं कि 13 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस प्रत्याशी को जितना वोट मिला, उससे कम मतों के अंतर से आम आदमी के प्रत्याशियों की हार हुई है। अरविंद केजरीवाल समेत आप के बड़े-बड़े नेता विधानसभा चुनाव हार गये हैं और इसके पीछे कांग्रेस का अलग होकर चुनाव लड़ना प्रमुख वजह है। अगर दोनों मिल कर इकट्ठे लड़ते, तो खासकर उन सीटों पर इसका खासा असर पड़ता, जहां मुसलमान या दलित बहुल आबादी है। इन दोनों समुदायों का आप और कांग्रेस की तरफ झुकाव था, जो दोनों के अलग-अलग लड़ने के कारण बंट गया। ठीक है कि लोकसभा चुनाव में मिलकर लड़ने के बावजूद आप और कांग्रेस कुछ हासिल नहीं कर पायी, लेकिन विधानसभा चुनाव का गणित लोकसभा से अलग रहता है। जब 2015 में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी, तब भी आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटों पर जीत दर्ज की थी। फिर 2020 में 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि लोकसभा चुनावों में लगातार भाजपा दिल्ली की सातों सीटों पर जीत रही थी।
कांग्रेस को आत्म विश्लेषण की जरूरत
अब कांग्रेस को आत्म विश्लेषण करना होगा कि क्या इस समय अकेले चुनाव लड़ना उसके भविष्य के लिए फायदेमंद है? कांग्रेस के भीतर इसको लेकर भारी कश्मकश की स्थिति है। क्या दिल्ली में उसका दुश्मन नंबर एक भाजपा थी या आप? इन चीजों को लेकर स्पष्टता नहीं है। भ्रम की स्थिति है। इस वजह से सब गड़बड़ हो रहा है।
इंडी गठबंधन की रणनीति समझ से परे
अब दूसरी बात इंडी गठबंधन को लेकर है, क्योंकि दिल्ली के नतीजे का असर उस पर भी पड़ेगा, क्योंकि किसी भी विपक्षी पार्टी के कमजोर होने का मतलब है भाजपा का और मजबूत होना। यह सभी विपक्षी दलों को प्रभावित करेगा। इंडी गठबंधन में इससे दरार आयी है। उमर अब्दुला ने तो खुलेआम तंज कसते हुए कहा कि ‘और लड़ो आपस में, देखो क्या होता है।’ तो क्या इंडी गठबंधन की यह रणनीति है कि लोकसभा में हम मिल कर भाजपा से लड़ेंगे और विधानसभा चुनाव में आपस में लड़ेंगे? तो जब राज्यों में अलग-अलग ही लड़ना है, तो फिर इंडी गठबंधन की जरूरत क्या है? जहां तक संसद में मुद्दे उठाने की बात है, तो वह तो विपक्षी दल पहले भी मिलकर उठा ही रहे थे। इंडी गठबंधन की भूमिका क्या है, प्रासंगिकता क्या है, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है।
अगर कांग्रेस को लगता है कि उसे इंडी गठबंधन की जरूरत नहीं है और उसे अकेले चुनाव लड़ना चाहिए, तो उस तरह की तैयारी करनी चाहिए, चाहे इसमें पांच साल लगे या दस साल। उसे जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत करना चाहिए और 2029 के बारे में नहीं सोचना चाहिए। अगर उसे 2029 के बारे में सोचना है, तो गठबंधन को प्रमुखता देनी होगी। विश्वनाथ प्रताप सिंह जब 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के संयोजक बने, तो उन्होंने सभी गैर-कांग्रेस पार्टियों को इकट्ठा किया था। जब प्रचार के दौरान भाजपा और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद उभरे थे, तो उन्होंने भाजपा के बड़े नेता गोविंदाचार्य को कहा था कि हमें इस बात को लेकर स्पष्ट होना पड़ेगा कि पहले इकट्ठा होकर कांग्रेस को मात देनी है। जब कांग्रेस से निपट लेंगे, तब आपसी मतभेद से हम निपटेंगे। उसमें जो बेहतर होगा, वह जीतेगा। वही रणनीति आज विपक्षी दलों को अपनानी होगी भाजपा से लड़ने के लिए।
पार्टी संगठन पर ध्यान जरूरी
तीसरी बात, कांग्रेस के जो प्रत्याशी हारे हैं, वे भी और बाकी लोग भी यही बात कर रहे हैं कि बूथ लेवल तक पार्टी का संगठन ही नहीं है। कार्यकर्ता हैं नहीं, तो कौन मतदाताओं को वोट देने के लिए बूथ तक लायेगा? जो मजबूत प्रत्याशी थे, वे भी कार्यकर्ताओं के अभाव में प्रचार नहीं कर पाये और चुनाव हार गये। 60 सीटों पर जमानत जब्त होना और किसी भी सीट पर दूसरे नंबर पर नहीं आना, फिर भी आप को हराकर दिल्ली में अपनी पैठ बनाने के सपने देखना ख्याली पुलाव पकाना ही है। जाहिर है, संगठन को निचले स्तर तक खड़ा करना कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। और यह चुनाव से ठीक पहले नहीं हो सकता। उसके लिए बहुत पहले से तैयारी करनी होती है। बिहार का चुनाव नवंबर से पहले होना है, तो अभी से कांग्रेस को वहां अपनी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। वहां तो कांग्रेस का संगठन ध्वस्त हो चुका है। इसके अलावा, अगर गठबंधन सहयोगी मजबूत है, तो उसे जीतने योग्य सीट देनी चाहिए।
भाजपा और कांग्रेस में अंतर
भाजपा की जीत का कारण है कि उसकी चुनावी मशीनरी मजबूत है और जमीनी स्तर पर संघ के हजारों-लाखों कार्यकर्ता उसके लिए काम करते हैं। यदि कांग्रेस को भाजपा को मात देनी है, तो अपने रवैये में बदलाव करना होगा। उसे जमीनी स्तर पर संगठन को खड़ा करना होगा, सहयोगी दलों को प्रमुखता देनी होगी, निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी करनी होगी, अन्यथा उसके लिए मुश्किलें ही हैं। चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के अनुभवों पर विचार-विमर्श करना होगा, अन्यथा यही कहानी चलती रहेगी।