रांची। चुनावी रणभेरी धीरे-धीरे गति पकड़ रही है। भाजपा हो या महागठबंधन, सभी अपने-अपने योद्धा को तैयार कर रहे हैं। झारखंड में भी भाजपा ने तेरह में से अपने दस योद्धाओं की सूची को अंतिम रूप दे दिया है। इन दस सीटों के लिए कई स्तर के मंथन के बाद प्रत्याशियों के नाम घोषित किये गये हैं। शुक्रवार को दिल्ली में देर रात तक संपन्न भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में झारखंड की 10 लोकसभा सीटों के लिए प्रत्याशियों के नाम का चयन कर लिया गया। जैसा कि पहले से तय था भाजपा इस बार 75 पार के सांसदों को टिकट नहीं दे रही है।
यह बात तब और पुख्ता हो गयी, जब भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कड़िया मुंडा जैसे नेताओं को लोकसभा चुनाव में उतारने पर विचार नहीं किया। झारखंड में चतरा, रांची और कोडरमा सीट को छोड़कर बाकी 10 सीटों पर प्रत्याशी के नाम की घोषणा हो चुकी है। भाजपा झारखंड के भीष्म पितामह कड़िया मुंडा की जगह पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को खूंटी से उम्मीदवार बनाया गया है। कड़िया मुंडा का झारखंड में सबसे ज्यादा दिनों का संसदीय इतिहास है। वह आठ बार खूंटी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। खूंटी लोकसभा क्षेत्र की जनता का अब तक तीन नेताओं को ही साथ मिला है।
16 वीं लोकसभा चुनाव में से 14 बार तीन नेता जयपाल सिंह मुंडा, एनइ होरो और कड़िया मुंडा पर जनता ने विश्वास दिखाया है। वर्ष 1984 में साइमन तिग्गा एवं 2004 में सुशीला केरकेट्टा यहां से विजयी रही थीं। जयपाल सिंह मुंडा, एनइ होरो झारखंड के दिग्गज आदिवासी नेता थे। इनके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता कड़िया मुंडा को यहां की जनता का लगातार स्नेह मिला। कड़िया मुंडा की पहचान राष्ट्रीय स्तर के बड़े आदिवासी नेता की रही है। कड़िया मुंडा केंद्रीय मंत्री से लेकर लोकसभा के उपाध्यक्ष तक रहे हैं। वर्ष 1989 से लेकर 2009 तक हुए चुनाव में मात्र एक बार ही कड़िया मुंडा को हार का सामना करना पड़ा।
कड़िया मुंडा वर्ष 1977 में भी खूंटी से चुनाव जीते थे। इसके बाद लगातार दो चुनावों में एनइ होरो एवं साइमन तिग्गा जीते थे। वर्षों से भाजपा की इस परंपरागत सीट की जिम्मेदारी भाजपा आलाकमान ने पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा पर सौंपी है। भाजपा के लिए यह सीट काफी अहम है। झारखंड की राजनीति में अर्जुन मुंडा का अपना एक अलग वजूद है। अर्जुन मुंडा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके है। महज 35 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले अर्जुन मुंडा के नाम देश में सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड है। मुंडा का राजनीतिक जीवन 1980 से शुरू हुआ। उस वक्त अलग झारखंड आंदोलन का दौर था। अर्जुन मुंडा ने राजनीतिक पारी की शुरुआत झारखंड मुक्ति मोर्चा से की। आंदोलन में सक्रिय रहते हुए अर्जुन मुंडा ने जनजातीय समुदायों और समाज के पिछड़े तबकों के उत्थान की कोशिश की। 1995 में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार के रूप में खरसावां विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुन कर बिहार विधानसभा पहुंचे। बतौर भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी 2000 और 2005 के चुनावों में भी उन्होंने खरसावां से जीत हासिल की।
वर्ष 2000 में अलग झारखंड राज्य का गठन होने के बाद अर्जुन मुंडा बाबूलाल मरांडी के कैबिनेट में कल्याण मंत्री बनाये गये। वर्ष 2003 में विरोध के कारण बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा। यही वक्त था कि एक मजबूत नेता के रूप में पहचान बना चुके अर्जुन मुंडा पर भारतीय जनता पार्टी आलाकमान की नजर गयी। 18 मार्च 2003 को अर्जुन मुंडा झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री चुने गये। उसके बाद 12 मार्च 2005 को दुबारा उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन निर्दलीयों से समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण उन्हें 14 मार्च 2006 को त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद मुंडा झारखंड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें जमशेदपुर लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया। पार्टी के भरोसे पर अर्जुन मुंडा खरा उतरे। उन्होंने लगभग दो लाख मतों के अंतर से जीत हासिल की। उनकी खूबियों को देखते हुए पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी थी। 11 सितंबर 2010 को वह तीसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। लेकिन वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में वह हार गये।
विधानसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी आलाकमान को शायद यह लगने लगा था कि वर्तमान समय में झारखंड में मुंडा की अहमियत नहीं है। लेकिन झारखंड में अर्जुन मुंडा ने पार्टी के भीतर जो अपना कद बना रखा है, उसे देखकर कार्यकर्ताओं को यह लगता था कि इन्हें संगठन में कोई बड़ा पद दिया जायेगा। चार वर्षों तक जिन राज्यों में भी विधानसभा के चुनाव हुए पार्टी ने वक्ता के रूप
में इनका उपयोग किया, लेकिन किसी भी तरह की जिम्मेवारी नहीं दी। इस दौरान अर्जुन मुंडा एक गंभीर राजनेता की तरह पार्टी के लिए काम करते रहे। यही वजह है कि बिना किसी पद पर रहते पार्टी कार्यकर्ताओं के चहेते बने रहे। भाजपा का एक बड़ा वर्ग इनके साथ है। मौजूदा सरकार में जो हैं, उनके साथ भी इनके संबंध मधुर हैं और विरोधियों से भी अच्छे संबंध हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अर्जुन मुंडा आदिवासियों का एक बड़ा चेहरा हैं।
इसके आलावा संगठन और भाजपा विधायकों में भी इनकी अच्छी पकड़ है। मालूम हो कि अर्जुन मुंडा झामुमो की संस्कृति से निकल कर भाजपा में चमके। अर्जुन मुंडा को पार्टी नेतृत्व द्वारा एक बार फिर सक्रिय करने के पीछे यह कहा जा रहा है कि आदिवासियों के बीच भाजपा की छवि को दोबारा स्थापित करना है। जातीय समीकरण के आधार पर जो वर्ग भाजपा से बिदके हुआ है, उसे जोड़ने में अर्जुन मुंडा पार्टी के तारणहार बन सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अर्जुन मुंडा चुनाव जीतते हैं तो उन्हें देश की राजनीति में एक बड़ा ब्रेक मिल सकता है। ऐसे अर्जुन मुंडा के समक्ष चुनौती भी कम नहीं है। जीत की राह में रोड़े ही रोड़े हैं। अब समय बतायेगा कि अर्जुन इस परीक्षा में पास होते हैं या नहीं।