15 नवंबर, 2000 को झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से ही लगातार भाजपा की सहयोगी की भूमिका में रही आजसू पार्टी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दूर हो गयी थी। दोनों दलों में दूरियां इतनी बढ़ गयीं कि विधानसभा चुनाव में दोनों की मिट्टी पलीद हो गयी। भाजपा जहां अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन से महज 25 सीटों पर सिमट गयी, वहीं आजसू भी केवल दो सीट ही जीत सकी। विधानसभा चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया कि भाजपा और आजसू की दोस्ती टूटने के कारण दोनों को कम से 15 सीटों का नुकसान हुआ। यदि दोस्ती कायम रहती, तो आज झारखंड का राजनीतिक परिदृश्य कुछ और होता। विधानसभा चुनाव के तीन महीने बाद अब भाजपा को, और आजसू को भी इस दोस्ती के महत्व का आभास हुआ है। राज्यसभा चुनाव से पहले भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व आजसू सुप्रीमो को बातचीत के लिए बुलाता है और पार्टी के प्रत्याशी खुद चल कर आजसू नेता के दरवाजे पर पहुंचते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि विधानसभा चुनाव हारने के बाद अब भाजपा को अपने पुराने सहयोगी की याद आयी है। भाजपा समझ गयी है कि आजसू के बिना उसका पुराने दिनों में लौटना असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर है। उधर आजसू नेतृत्व को भी इस बात का एहसास हो गया है कि भाजपा के साथ मिल कर ही वह अपनी अलग तरह की राजनीति को अंजाम तक पहुंचा सकता है। तो क्या इन दोनों दलों की नजदीकी झारखंड की राजनीति में नये युग का आगाज है या यह केवल राज्यसभा चुनाव के लिए ही है। भाजपा और आजसू की बढ़ती नजदीकियों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
झारखंड की हाल की राजनीति में तीन तारीखों को हमेशा याद रखा जायेगा। ये तारीखें हैं 2019 की आठ मार्च और 20 नवंबर और 2020 की 15 मार्च। बहुत से लोगों को इन तीन तारीखों का मर्म समझ नहीं आया, तो हम आपको बताते हैं कि ये तारीखें झारखंड की राजनीति के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं। आठ मार्च 2019 को लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के बुलावे पर आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो दिल्ली गये थे और दोनों नेताओं के बीच चुनावी तालमेल पर मुहर लगी थी। अप्रैल-मई में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा-आजसू ने मिल कर पूरी ताकत झोंकी और 14 में से 12 सीटों पर जीत दर्ज की। इसके बाद भाजपा को लगा कि यह कमाल वह विधानसभा चुनाव में भी दोहरा सकती है। इसलिए उसने 65 प्लस का लक्ष्य तय किया और आजसू को धीरे-धीरे दरकिनार करना शुरू कर दिया। दोनों की दूरियां इस कदर बढ़ीं कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 20 नवंबर को यह रिश्ता ही टूट गया। भाजपा के रणनीतिकार उस समय यह नहीं समझ सके कि झारखंड की राजनीति के सबसे ताकतवर जातीय समूह कुरमी का समर्थन उसे केवल आजसू के सहारे ही मिल सकता है। विधानसभा चुनाव का नतीजा आया और भाजपा 25 सीटों पर सिमट गयी। उसके बड़े-बड़े दिग्गज चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सके। आजसू को भी दोस्ती टूटने का खासा नुकसान हुआ और वह महज दो सीटें ही जीत सकी। तब भाजपा को उसकी गलती का एहसास हुआ और आजसू की दोस्ती की कीमत का उसे पता चला।
तीसरी तारीख 15 मार्च, 2020 को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो को दिल्ली बुलाया और पुराने रिश्ते का हवाला देकर राज्यसभा चुनाव में समर्थन मांगा। इसके अगले ही दिन राज्यसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी दीपक प्रकाश अपने विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी और संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह के साथ सुदेश महतो के पास पहुंचे और समर्थन मांगा। इससे पहले आजसू के एक विधायक डॉ लंबोदर महतो भाजपा प्रत्याशी के प्रस्तावक बन चुके थे। सुदेश ने दीपक प्रकाश को समर्थन का ऐलान कर दिया, जिससे उनकी जीत लगभग पक्की हो गयी है। भाजपा के लिए यह समर्थन बेहद जरूरी था, क्योंकि अपने दम पर वह राज्यसभा की एक भी सीट जीतने की स्थिति में नहीं है। इस तरह एक साल में झारखंड की राजनीति का यह चक्र पूरा घूम गया।
भाजपा की ओर से रिश्ता कायम करने की पहल को आजसू ने सिर-आंखों पर लिया, क्योंकि उसे भी विधानसभा चुनाव में दोस्ती टूटने की कीमत अदा करनी पड़ी थी। भाजपा को पता चल गया कि आजसू के बिना उसकी चुनावी गाड़ी कम से कम झारखंड में सरपट नहीं दौड़ सकती है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को कम से कम 10 सीटों का नुकसान केवल आजसू से दोस्ती टूटने के कारण उठाना पड़ा। बड़कागांव, ईचागढ़ और खिजरी जैसे कुरमी बहुल क्षेत्रों पर उसे हार का मुंह देखना पड़ा, जबकि लोहरदगा और कोल्हान में उसे आजसू के वोट नहीं मिले और उसका सूपड़ा साफ हो गया। मांडू में भाजपा किसी तरह हार टाल सकी। कुरमी बहुल सीटों पर भाजपा को अपना कैडर वोट भी नहीं मिला, क्योंकि उसके मतदाता बाहर निकले ही नहीं। लोकसभा चुनाव में इन मतदाताओं को बाहर निकालने में जबरदस्त मेहनत की थी।
लोकसभा चुनाव के बाद ही यह साफ हो गया था कि झारखंड के सबसे ताकतवर जातीय समूह कुरमी का कोई बड़ा चेहरा भाजपा के पास नहीं है। ले-देकर एक रामटहल चौधरी थे, जिन्हें इस बार रांची से टिकट नहीं दिया गया। दूसरी तरफ आजसू की इस जातीय समूह पर पकड़ बेहद मजबूत है। भाजपा को लोकसभा चुनाव में इसका लाभ मिला, क्योंकि आजसू ने पूरी ईमानदारी से अपने बड़े भाई के लिए मेहनत की और थोक में वोट दिलाया। उसके बाद विधानसभा चुनाव में भाइयों के अलग होने का खामियाजा आजसू को भी भुगतना पड़ा। रामगढ़, जुगसलाई और तमाड़ सीट उसके हाथ से निकल गयी। आजसू ने सिल्ली और गोमिया सीट पर कब्जा जमा कर हालांकि साबित किया कि कुरमी मतदाताओं पर उसकी पकड़ लगातार मजबूत हो रही है। अब भाजपा की नजर 2024 पर है और उसके लिए पार्टी अभी से तैयारी में जुट गयी है। विधानसभा चुनाव के बाद उसने बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में कर आदिवासियों के बीच अपनी बिगड़ी हुई छवि को सुधारने का प्रयास किया है, तो आजसू से पुराना रिश्ता कायम कर कुरमियों को अपने पक्ष में मोड़ने की सकारात्मक पहल की है। उधर आजसू को भाजपा की संगठनात्मक ताकत का सहारा मिलेगा, तो गांव की सरकार का उसका सपना आसानी से पूरा हो सकेगा। कुल मिला कर भाजपा और आजसू की यह दोस्ती झारखंड की राजनीति का नया अध्याय लिखने के लिए पूरी तरह तैयार है और इसकी धमक अगले कुछ दिनों में सुनाई देने लगेगी। अब यह समय ही बतायेगा कि इन दोनों का रिश्ता पहले जैसा चिकना और ठोस है या दोबारा जुड़ने के बाद इसमें कोई गांठ पड़ गयी है। दुमका विधानसभा सीट पर होनेवाले चुनाव में इसका भी पता चल जायेगा।