विशेष
-कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता पर ममता और अखिलेश में सहमति
-यूपीए के दूसरे घटक दलों के साथ हो सकती है आगे की बातचीत

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव की पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद जो राजनीतिक सुगबुगाहट शुरू हुई है, उससे एक बात साफ हो गयी है कि 2024 के आम चुनाव में भाजपा बनाम एकजुट विपक्ष का मुकाबला नहीं होगा। दूसरे शब्दों में इसे कहा जा सकता है कि 2024 के लिए विपक्षी एकता की मुहिम इन दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों की मुलाकात के साथ ही पूरी तरह बिखर गयी है। इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस के बिना एक मोर्चा बनाने पर सहमति जतायी है, जिसमें यूपीए फोल्डर के दूसरे घटक दलों को सशर्त शामिल किया जा सकता है। घोषित तौर पर ममता और अखिलेश के अलावा अन्य तमाम विपक्षी दलों की चाहत पिछले नौ साल से सत्ता में मौजूद भाजपा को तीसरी बार सत्ता में आने से रोकना है। इसके लिए हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से अपने गठबंधन के साथी चुन रहा है। कांग्रेस से अलग विपक्षी एकता के प्रयासों में लगे अखिलेश ने जब ममता से बातचीत की, तो यह मुद्दा सामने आया। ममता और अखिलेश, दोनों के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की शर्त शुरू से ही मंजूर नहीं रही है। इन दोनों ने राहुल गांधी को अपना नेता मानने से भी कई बार इनकार किया है। इसलिए अब यदि इन दोनों नेताओं ने तीसरे मोर्चे की कोशिशों को आकार देना शुरू किया है, तो राजनीतिक रूप से यह भाजपा के लिए मुफीद स्थिति है। विपक्षी खेमे में यह दरार दरअसल भाजपा की सत्ता में वापसी की राह को ही आसान करेगी और कांग्रेस के लिए कठिनाई बढ़ती जायेगी। ममता-अखिलेश मुलाकात के बाद पैदा हुई इस नयी राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
पिछले सप्ताह के अंतिम दिनों में देश की राजनीतिक राजधानी में संसद के भीतर के हंगामे की चर्चा चारों तरफ थी, तो वहीं देश की सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता में अलग राजनीतिक गतिविधि चल रही थी। समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव पश्चिम बंगाल की राजधानी में थे, जो तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी का अभेद्य किला बन चुका है। स्वाभाविक रूप से इन दोनों नेताओं की मुलाकात हुई और बातचीत भी हुई। स्टूल पर बैठने-बिठाने से शुरू होकर बात शिष्टाचार भेंट तक पहुंची, लेकिन भला यह कैसे संभव था कि 2024 के आम चुनाव की तैयारियों के बीच दो क्षेत्रीय क्षत्रप मिलें और राजनीतिक चर्चा नहीं हो। सो, अब यह बात सामने आयी है कि इन दोनों की मुलाकात के दौरान 2024 के लिए तीसरा मोर्चा बनाने पर सहमति हुई। इसका मतलब यह है कि इस मुलाकात ने कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता की उस मुहिम को एक तरह से खत्म कर दिया है, जिसे पिछले कुछ दिनों से नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, शरद पवार और उद्धव ठाकरे नियमित रूप से हवा दे रहे थे।
ममता-अखिलेश की इस मुलाकात का निष्कर्ष इस सवाल की पृष्ठभूमि में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि क्या कांग्रेस को अलग रख कर तैयार होनेवाला विपक्षी मोर्चा 2024 के आम चुनाव में भाजपा और पीएम मोदी का सामना कर सकता है? इस सवाल का जवाब केवल यही है कि इधर कांग्रेस संसद के अंदर अडाणी मुद्दे पर पीएम मोदी को घेरने की कोशिश कर रही है और उधर अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी से ऐसी ‘शिष्टाचार भेंट’ की कि खुद कांग्रेस सकते में आ गयी। ममता-अखिलेश की मुलाकात से साफ हो गया है कि कांग्रेस के बिना भाजपा का सामना करने के लिए ‘एकजुट’ विपक्ष की तैयारी चल रही है। बैठक में तय हुआ कि ममता बनर्जी इस महीने ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ बैठक करेंगी। इसके बाद अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं से बातचीत करने के लिए उनका अगला ठिकाना नयी दिल्ली होगा।
कैसे तैयार हुआ प्लॉट
इस नये राजनीतिक समीकरण को परत-दर-परत समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटना होगा। सबसे पहले बात अखिलेश यादव और ममता बनर्जी की बैठक की। सपा की कोलकाता बैठक के दौरान अखिलेश ने तीन हिंदी भाषी राज्यों- छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की नीतियों और रणनीतियों पर चर्चा की। बैठक से एक दिन पहले ममता और अखिलेश के बीच की मुलाकात ‘शिष्टाचार भेंट’ से कहीं ज्यादा थी। तृणमूल कांग्रेस ने बैठक के बाद स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के राजनीतिक रुख को देखते हुए उसके साथ किसी तरह के तालमेल की जरूरत नहीं है और यह फैसला मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी की अध्यक्षता में उनके आवास पर तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व की बैठक में लिया गया। तृणमूल कांग्रेस ने यहां तक कह दिया कि भाजपा के एक आदर्श विपक्ष के रूप में कांग्रेस की भूमिका संदिग्ध है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और राज्य सरकार के लिए समस्याएं पैदा करने के लिए कांग्रेस का माकपा और भाजपा दोनों के साथ समझौता है। एक तरफ कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर तृणमूल कांग्रेस का समर्थन मांगेगी, तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में राज्य स्तर पर हमारा विरोध करेगी। दोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। कुछ ऐसी ही बात समाजवादी पार्टी ने भी की है। पार्टी ने कहा कि यह फैसला किया गया है कि टीएमसी और सपा भाजपा से लड़ने के लिए एकजुट होंगी। दोनों पार्टियां कांग्रेस से भी दूरी बनाये रखेंगी। इसके बाद ही ममता के पहले ओड़िशा और बाद में दिल्ली जाने की घोषणा की गयी। इस पूरी कवायद को मिशन 2024 के लिए तीसरा मोर्चा तैयार करने के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें विपक्ष एक तो है, लेकिन स्वघोषित ‘बिग ब्रदर’ कांग्रेस के बिना। इतना ही नहीं, प्रस्तावित तीसरे मोर्चे में यूपीए के घटक दलों, खास कर जदयू, राजद, राकांपा और शिवसेना (उद्धव गुट) को भी तभी शामिल किये जाने का फैसला हुआ, जब ये दल ममता या अखिलेश में से किसी एक को नेता मानने के लिए राजी हो जायें।
तीसरे मोर्चे की जरूरत क्यों महसूस हो रही
सवाल है कि ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे नेताओं को तीसरे मोर्चे की जरूरत क्यों महसूस हो रही है? इसका जवाब तृणमूल कांग्रेस के बयान में खोजा जा सकता है। उसका कहना है कि कांग्रेस एक आदर्श राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी की भूमिका नहीं निभा रही है। वह क्षेत्रीय दलों की भावनाओं का सम्मान किये बिना बिग बॉस की भूमिका निभाने की कोशिश कर रही है। पार्टी ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस हर जगह गड़बड़ कर रही है। यहां यह तृणमूल कांग्रेस सरकार को गिराने के लिए भाजपा और माकपा के साथ गठबंधन कर रही है। इसलिए पार्टी कांग्रेस का समर्थन क्यों करें। इसके अलावा कई क्षेत्रीय नेता ऐसे हैं, जो यह मानते हैं कि कांग्रेस अगर संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व करती है, तो उन्हें अपनी महत्वकांक्षाओं पर ब्रेक लगाना पड़ेगा। यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि ममता बनर्जी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में पेश होना चाहती थीं। साथ ही अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार भी गाहे-बगाहे ऐसे सुर छेड़ते रहे हैं।
नये समीकरण से खुश होगी भाजपा
कांग्रेस को दरकिनार कर अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के बीच यह मुलाकात निश्चित रूप से विपक्षी एकता के लिए अच्छी खबर नहीं है। यह अडाणी मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने के कांग्रेस के अभियान को भी विफल कर सकती है। अगर ममता बनर्जी और अखिलेश यादव ने कहा होता कि वे नरेंद्र मोदी को हराने के लिए एक साथ आ रहे हैं, तो इससे एकता की प्रक्रिया मजबूत होती, लेकिन दोनों का खुले तौर पर कांग्रेस की आलोचना करना और दूरी बनाये रखने की बात करना विपक्षी एकता पर चोट है। और ऐसी स्थिति में भाजपा से अधिक खुश और कोई नहीं हो सकता, क्योंकि बकौल चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, एकजुट हुए बगैर भाजपा को पराजित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव है।

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