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इनके लिए बड़ी चुनौती और चांस होगा देश का 18वां आम चुनाव
हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, अखिलेश यादव, आदित्य ठाकरे, एमके स्टालिन और सचिन पायलट न केवल अपनी-अपनी पार्टी का चेहरा हैं, बल्कि राष्ट्रीय पटल पर बड़ी भूमिका में भी हैं

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इन दिनों 18वें आम चुनाव की सुगबुगाहट में डूब-उतरा रहा है। नये राजनीतिक समीकरणों और जोड़-तोड़ के साथ वोटों का हिसाब-किताब भी खूब लगाया जा रहा है, बैठाया जा रहा है। इस आपाधापी में एक खास बात यह है कि एक तरफ लगातार तीसरी बार सत्ता में आने की कोशिशों में जुटी भाजपा है, तो दूसरी तरफ विपक्षी दल। ये विपक्षी दल एकजुट होंगे या नहीं, इस पर बिना कोई भविष्यवाणी किये एक बात नोट करने लायक है कि इन दलों में से कम से सात ऐसे दल हैं, जिनका दारोमदार पूरी तरह दूसरी पीढ़ी के युवा नेताओं के कंधों पर है। इन सात युवा नेताओं में से दो अपने-अपने राज्य में सत्ता पर बैठे हैं, जबकि दो अन्य की पार्टी सत्ता में है। बाकी तीन नेताओं के पास अपनी-अपनी पार्टी को आगे ले जाने और राष्ट्रीय पटल पर प्रमुख भूमिका निभाने की जिम्मेदारी हैं। इन सात नेताओं में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के अलावा द्रमुक सुप्रीमो सह तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन, राजद के उपाध्यक्ष सह बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव, तृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, शिवसेना (उद्धव) के महासचिव आदित्य ठाकरे और राजस्थान में कांग्रेस के चर्चित नेता सचिन पायलट शामिल हैं। इन सातों नेताओं में एक अद्भुत साम्य यह है कि इन सभी के सामने अपनी विरासत को बचाने और उसे आगे बढ़ाने की चुनौती है। इन सात युवा चेहरों के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

2024 के लोकसभा चुनाव की तारीखों के एलान में अब सिर्फ एक साल का वक्त बचा है, लेकिन राजनीतिक जोर-आजमाइश अभी से शुरू हो गयी है। सत्तारूढ़ भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष कितना एकजुट होगा, इस पर कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी। इस लगातार गरमाते राजनीतिक माहौल में एक बात नोट करने लायक है कि 2024 का चुनाव कुछ मायनों में अनोखा होगा। इसमें सबसे बड़ी बात यह होगी कि इस चुनाव में सात युवा नेताओं की अग्निपरीक्षा होगी, क्योंकि ये नेता अपने-अपने राज्यों में न केवल प्रमुख राजनीतिक चेहरे हैं, बल्कि अपनी पार्टी के लिए गेम चेंजर साबित हो सकते हैं।

हेमंत सोरेन के कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी
बात शुरू करते हैं झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन से। 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने पिता और झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की पराजय ने उनके राजनीतिक कौशल को हिला कर रख दिया था। लेकिन करीब छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल कर उन्होंने संसदीय चुनाव की हार के कलंक को न केवल धो दिया, बल्कि राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत की गैर-भाजपा सरकार भी बना ली। हेमंत ने मुख्यमंत्री का पद तो संभाला, लेकिन उनका सफर कांटों भरा ही रहा है। 2019 में राज्य की 14 संसदीय सीटों में से 12 भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू पार्टी ने जीती थी, जबकि झामुमो और कांग्रेस के हिस्से में एक-एक सीट आयी थी। 2024 में उनके कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी है। पहला तो यूपीए गठबंधन को एकजुट रख कर भाजपा को रोकना और दूसरा पार्टी के लिए एक स्पष्ट लाइन खींचना, ताकि दिसंबर में होनेवाले विधानसभा चुनाव में वह एक बार फिर सत्ता में लौट सकें। हेमंत सोरेन जिस शिबू सोरेन की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, उसमें यह बड़ी चुनौती है, क्योंकि आक्रामक राजनीति का यह दौर उनके पिता ने कभी नहीं देखा।

राजद को कितना आगे ले जायेंगे तेजस्वी यादव
अब बात करते हैं बिहार के डिप्टी सीएम और राजद नेता तेजस्वी यादव की। वह बहुत ही कम समय में प्रदेश की राजनीति में अहम किरदार बन गये हैं। 26 साल की उम्र में उप मुख्यमंत्री बने तेजस्वी यादव अपने पिता लालू प्रसाद के नक्शे-कदम पर चलते हुए उनकी सियासी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। राजद ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में शानदार प्रदर्शन किया और सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन लोकसभा चुनावों में राजद का प्रदर्शन निराशाजनक था। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद ने चार सीटें जीती थीं, जबकि 2019 में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। ऐसे में तेजस्वी यादव के सामने 2024 चुनाव से पहले कई चुनौती है, जिसका जल्द हल निकालना होगा। सबसे पहले तो उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों से जल्द बाहर निकलना होगा। इसके बाद राजद के पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैंक के अलावा अन्य वर्गों का वोट पार्टी के पाले में लाना होगा। तेजस्वी के सामने अगली चुनौती बिहार में महागठबंधन को बनाये रखने और राजद की अराजकता फैलाने वाली पार्टी की छवि पर लगाम लगाना होगा। तेजस्वी को युवाओं और वरिष्ठ नेताओं के बीच समन्वय स्थापित करना होगा। कई वरिष्ठ नेता तेजस्वी यादव पर पुराने नेताओं की अनदेखी का आरोप लगाते रहे हैं। इसके बाद बिहार में लोकसभा की 40 सीटों में से राजद को अधिक सीट पर जीत हासिल करने की चुनौती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तेजस्वी यादव को बिहार की जनता ने लालू-नीतीश की साझी विरासत के तौर पर स्वीकार कर लिया है। वह प्रदेश में नीतीश कुमार के बाद नंबर दो के नेता बन चुके हैं। उनकी छवि किसान नेता के तौर पर उभरनी चाहिए। इस पर वह जितना ध्यान देंगे, उतना उनकी पूंजी बढ़ेगी।

रामविलास पासवान की झोंपड़ी को कब तक बचायेंगे चिराग
बिहार में दूसरी पीढ़ी के एक और नेता चिराग पासवान हैं। वह भारत की राजनीति में ‘मौसम वैज्ञानिक’ के नाम से चर्चित अति पिछड़ों के नेता रामविलास पासवान के पुत्र हैं। राजनीति में उनका बहुत अधिक योगदान अब तक सामने नहीं आया है, लेकिन एनडीए खेमे में भाजपा के साथ कदम से कदम मिला कर चलना ही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता कही जा सकती है। अपने जनाधार को लगातार बढ़ाने में लगे चिराग पासवान अपनी लोक जनशक्ति पार्टी की झोंपड़ी को कब तक बचा पायेंगे, यह देखना बहुत दिलचस्प होगा। अपने सगे चाचा की बगावत से बुरी तरह प्रभावित चिराग ने हिम्मत नहीं हारी है, यही उनकी उपलब्धि है।

मुलायम की भरपाई कैसे करेंगे अखिलेश
उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की 2024 के लोकसभा चुनाव में बड़ी भूमिका होगी। अखिलेश जिस प्रदेश से आते हैं, वहां लोकसभा की सबसे अधिक 80 सीटें हैं। 2014 के चुनाव में एनडीए को यहां 73 सीट और 2019 में 64 सीटें मिली थीं, जबकि दोनों चुनाव में समाजवादी पार्टी पांच-पांच सीट ही जीत पायी थी। इसमें पांच उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव के परिवार के थे। 2024 के चुनाव में अगर विपक्ष को भाजपा के विजय रथ को रोकना है, तो उसमें यूपी की अहम भूमिका होगी। बसपा और कांग्रेस का जिस तरीके से जनाधार घट रहा है, उसके बाद अकेले समाजवादी पार्टी ही दिख रही है, जो प्रदेश में भाजपा का मुकाबला कर सकती है। लेकिन अखिलेश यादव के लिए यह राह आसान नहीं है। उनके सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे उन्हें पार पाना होगा।
अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती समाजवादी पार्टी और यादव कुनबे को आगे भी एकजुट रखने की है। इसके अलावा मुलायम के ‘एमवाइ’ समीकरण को साधे रखने की चुनौती होगी। फिर युवाओं के साथ पुराने नेताओं को पार्टी में तवज्जो देनी होगी और मजबूत विपक्ष के तौर पर भाजपा का डट कर सामना करना होगा। इन सबसे पार पाने के बाद उन्हें पारंपरिक सीटों को बचाये रखना होगा।
अखिलेश यादव ने यूपी की राजनीति को दो ध्रुवों में बांटा है। यह भाजपा के लिए नुकसानदायक हो सकता है। अगर वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच हो गया, तो यह अखिलेश यादव की सबसे बड़ी सफलता होगी। अखिलेश यादव भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे का जातिगत राजनीति के आधार पर किस तरह से मुकाबला करेंगे, यह बहुत अहम होगा। वहीं अन्य पिछड़े वर्गों का कितना वोट समाजवादी पार्टी के पाले में आ पायेगा, यह भी बड़ी चुनौती होगी।

विरासत को बचाने का चैलेंज है आदित्य ठाकरे के सामने
उद्धव ठाकरे के बेटे और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहे आदित्य ठाकरे की पहचान युवा नेता के तौर पर होती है। आदित्य जिस प्रदेश से आते हैं, वह यूपी के बाद सबसे अधिक लोकसभा सीटों वाला राज्य है। यहां से 48 सांसद चुन कर संसद जाते हैं। 2019 के चुनाव में भाजपा ने यहां पर 23 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि महाराष्ट्र में बदली राजनीतिक स्थितियों के बाद अब उद्धव गुट के पास केवल छह सांसद हैं। 25 साल तक भाजपा के साथ गठबंधन में रही शिवसेना ने 2019 विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अपनी राह अलग कर ली थी और यहीं से पार्टी की मुसीबत शुरू हो गयी। वर्तमान समय में आदित्य ठाकरे के पास न शिवसेना का चुनाव चिह्न है और न ही पार्टी का नाम। एकनाथ शिंदे गुट को असली शिवसेना का दर्जा मिलने के बाद से आदित्य ठाकरे के सामने तमाम चुनौती हैं, जैसे नयी पार्टी को मजबूती से महाराष्ट्र में खड़ा करना, बाला साहब ठाकरे की विरासत को बचाना, कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाये रखना आदि। इसके बाद आदित्य ठाकरे की सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा हासिल करना है, क्योंकि उद्धव गुट अभी शरद पवार के कंधे पर हाथ रख कर चल रहा है और इससे उसे जल्द बाहर आना होगा। महाराष्ट्र में जिस तरीके से भाजपा बढ़ रही है, वह निश्चित तौर पर उद्धव गुट के लिए चुनौती है। ऐसे में आदित्य ठाकरे को भाजपा विरोधी ताकतों को एकजुट करना होगा और जनता से सीधा संवाद स्थापित करना होगा। उन्हें अपने दादा और पिता के साये से निकल कर अपना अलग नेतृत्व युवाओं में स्थापित करना होगा।

भाजपा के बढ़ते ग्राफ को रोकना होगा अभिषेक बनर्जी को
35 वर्षीय अभिषेक बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हैं। वह जिस प्रदेश से आते हैं, वहां लोकसभा की 42 सीटे हैं, यानी यूपी और महाराष्ट्र के बाद तीसरे नंबर पर सबसे अधिक सांसद पश्चिम बंगाल से चुन कर जाते हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी पिछले 12 सालों से सत्ता में है, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा का प्रदेश में सफलता का ग्राफ बढ़ता दिख रहा है। इसलिए टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी के भतीजे और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी के सामने कई चुनौतियां हैं। इनसे उन्हें पार पाना होगा, जैसे उनकी टीएमसी में खुल कर स्वीकार्यता नहीं दिखती है। ऐसे में कार्यकर्ताओं के बीच पैठ बनानी होगी, जिससे कार्यकर्ताओं के बीच संदेश जाये कि ममता बनर्जी के बाद पार्टी में नंबर दो वही हैं। इसके अलावा पार्टी में गुटबाजी को रोकना, ममता बनर्जी के साये से निकल कर खुद को स्थापित करना और भाजपा के बढ़ते ग्राफ को रोकने के अलावा कथित भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी पार्टी की छवि को साफ बनाये रखना और टीएमसी के जनाधार को लोकसभा चुनावों में और मजबूत करना होगा। हाल ही में बंगाल की सागरदिघी सीट पर हुए उपचुनाव में हुई हार के बाद टीएमसी के लिए बंगाल लोकसभा चुनाव एकतरफा होता नहीं दिख रहा है।

करुणानिधि की तरह राजनीति का ‘स्ट्रांगमैन’ बनना होगा एमके स्टालिन को
द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (द्रमुक) के संस्थापक और भारतीय राजनीति के ‘स्ट्रांगमैन’ के रूप में चर्चित एम करुणानिधि के पुत्र एमके स्टालिन ने तमिलनाडु की राजनीति में अब तक बहुत अधिक सफलता अर्जित नहीं की है, लेकिन वह राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान स्थापित करने में सफल रहे हैं। भाजपा विरोध के जिस स्वर को उनके पिता ने दक्षिण में आवाज मुहैया करायी थी, उसे बरकरार रखने के साथ मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी को बचाये रखना एमके स्टालिन की सबसे बड़ी चुनौती होगी। तमिलनाडु को उन्होंने देश में सबसे तेजी से आगे बढ़नेवाले राज्य के रूप में स्थापित कर दिया है और इसे बरकरार रखने के लिए उन्हें 2024 मे अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा।

राजस्थान में पहचान के संकट से जूझ रहे सचिन पायलट
अंत में बात राजस्थान के पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट की। उनकी पहचान कांग्रेस में बगावती नेता के तौर पर रही है। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले प्रदेश में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन राजस्थान कांग्रेस के अंदर नेतृत्व को लेकर आंतरिक कलह जारी है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के विवाद से कांग्रेस कार्यकर्ता पसोपेश में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या करें। कांग्रेस ने अभी तक सचिन पायलट की भूमिका तय नहीं की है। ऐसे में सवाल है कि क्या पार्टी उन्हें राजस्थान विधानसभा चुनाव में सीएम का चेहरा बनायेगी। ऐसा नहीं लग रहा है कि अशोक गहलोत नेतृत्व से हटा दिये जायेंगे और पायलट सरकार का नेतृत्व करेंगे। उन्हें कार्यकर्ताओं को एकजुट करना और कांग्रेस के नेतृत्व में काम करना होगा। राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं। भाजपा ने 2014 में क्लीन स्वीप किया, तो 2019 में 24 सीट पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस का दोनों चुनाव में खाता तक नहीं खुला था। ऐसे में अगर सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच का विवाद जल्द नहीं सुलझा, तो 2024 में भी पहले के नतीजे दोहराये जा सकते हैं। सचिन पायलट की छवि कांग्रेस के अनुशासित कार्यकर्ता की नहीं हो पायी है। उनकी छवि कुर्सी के लिए बेचैन युवा कांग्रेसी की है, जो जात-पात के नाम पर अपनी दावेदारी कर रहा है। उन्हें कांग्रेस के जननेता के तौर पर काफी सफर तय करना है।
इस तरह 2024 का लोकसभा चुनाव राजनीति में नयी पीढ़ी का दरवाजा खोलेगा, क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में सभी दलों में नये नेताओं का प्रवेश हो चुका है। उनके लिए लोकसभा चुनाव लड़ना और अपने प्रभाव से विजय दिलाना बड़ी कसौटी है। वे अगर सफल हुए, तो नेतृत्व की भूमिका पर आसीन हो सकेंगे। इन नेताओं पर गौर करें, तो सचिन पायलट को छोड़ कर सभी अपनी पार्टी के नंबर एक या दो नेता हैं। उनके ऊपर न सिर्फ पार्टी को बचाने की जिम्मेदारी है, बल्कि अपने मूल मतदाताओं को रोके रखना भी एक बड़ी चुनौती है। अगर ये नेता अपनी पार्टी के लिए बेहतर प्रदर्शन कर पाये, तो यकीकन 2024 चुनाव के बाद भारतीय राजनीति की तस्वीर अलग होगी।

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