विशेष
कभी दलित राजनीति का फलसफा लिखा, आज विदाई गीत लिख रहीं मायावती
कमजोरियों को छिपाने के लिए ले रहीं अनाप-शनाप फैसले
चुनावों में हार ही हार और अपनों से तकरार, अब क्या करेंगी बहनजी

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
कभी देश की दलित राजनीति का चेहरा रहीं बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती इन दिनों फिर चर्चा में हैं। दलित राजनीति के रथ पर सवार होकर वह यूपी की सत्ता और पार्टी, दोनों के शीर्ष तक पहुंचीं, लेकिन एक बार सत्ता से बाहर हुईं, तो तेजी से हाशिये पर पहुंच गयीं। सत्ता में थीं, तो मायावती दौलत पसंद बन गयीं। अपनी सारी नीतियों को उन्होंने दौलत बटोरने के ही इर्द-गिर्द केंद्रित कर दिया, जिससे दृढ़ स्वभाव की इस महिला नेत्री ने न केवल अकूत धन बटोरा, बल्कि अपनी पार्टी को भी खूब आगे बढ़ाया। लेकिन समय का चक्र ऐसा घुमा कि आज मायावती राजनीति के मैदान में उस मुकाम पर पहुंच गयी हैं, जहां से वह न तो खुद की वापसी करा सकती हैं और न ही उस बसपा को, जिसे कभी यूपी की सत्ता का मजबूत दावेदार माना जाता था। मायावती की राजनीति ने लोकतंत्र की उस अवधारणा को मजबूत किया है, जिसके अनुसार लोक से हट कर बनाया गया कोई भी तंत्र अंतत: पराजित ही होता है। मायावती ने बसपा को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां से अब उसकी कहानी का अंतिम अध्याय ही लिखा जाना बाकी है। क्या है मायावती और बहुजन समाज पार्टी के इस हश्र का कारण और भारतीय राजनीति पर इसका क्या हो सकता है प्रभाव, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

आम तौर पर माना जाता है कि किसी राजनीतिक ताकत का अंत एक या दो पीढ़ी में नहीं होता, लेकिन यदि नीतियां और फैसले उस ताकत के नेतृत्व में गलत होने लगे, तो उसका अंत नजदीक होता है। लोकतंत्र में तो यह और भी सही है। उदाहरण सामने है, बहुजन समाज पार्टी और उसकी सुप्रीमो मायावती के रूप में। बामसेफ नामक जिस संगठन ने देश की दलित राजनीति को एक मजबूत प्रशासनिक आधार दिया, बसपा ने दलित राजनीति का नया फलसफा लिखा, मायावती ने अपनी नीतियों और फैसलों से उनका भी विदाई गीत लिख दिया। बसपा की यह दुर्गति इसलिए हुई, क्योंकि मायावती में परिवार और पार्टी से आगे की सोच-समझ उनमें विकसित ही नहीं हो सकी। दरअसल, बसपा के संस्थापक कांशीराम की मेहनत से फली-फूली धुर ब्राह्मण विरोधी दलित पार्टी बसपा पर मायावती ने उनके जीते-जी ही अपना कब्जा जमा लिया और अपने सगे आनंद की मदद से निरंतर मजबूत होती चली गयीं, लेकिन जब से उन्होंने सत्ता प्राप्ति की गरज से ब्राह्मणों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर विकसित किया, तब से उन्हें अप्रत्याशित राजनीतिक सफलता तो खूब मिली, लेकिन उनका मूल कैडर इधर-उधर छिटकने लगा।

कोर समर्थक ही छिटकने लगे
इसके अलावा, जब से समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से उनकी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भाजपा नेताओं की शह पर तेज हुई, तब से दलित समर्थक ओबीसी भी उनसे छिटकने लगे। वहीं, भाजपा के समर्थन से सत्ता की राजनीति जबसे उन्होंने शुरू की, तब से मुस्लिम वोटर भी बसपा से दूरी बनाने लगे। हालांकि, सत्ता संतुलन के लिए उन्होंने सवर्णों, ओबीसी और अल्पसंख्यक नेताओं को मलाईदार पद दिये, जिससे दलित भी उनसे ईर्ष्या करने लगे। इन सब कारणों से बसपा का जनाधार छीजता चला गया। वहीं, कभी भाजपा, कभी समाजवादी पार्टी, कभी कांग्रेस और कभी अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की राजनीति करके उन्होंने खुद को तो मजबूत बनाने की पहल की, लेकिन उनकी अड़ियल और हठी रवैये के चलते उनकी पटरी किसी से नहीं बैठी और अब राजनीतिक मजबूरीवश वह बिल्कुल अकेले बच गयी हैं। सवाल है कि तीन बार भाजपा या सपा के सहयोग से और एक बार अपने दम पर हासिल बहुमत से यूपी की मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती, केंद्रीय राजनीति में अपने अच्छे-खासे सांसदों के बल पर दबदबा रखने वाली मायावती आखिर इस सियासी दुर्दिन को कैसे प्राप्त हुईं।

नीतियां-फैसलों ने किया नुकसान
तो जवाब यही होगा कि एक ओर उनका पारिवारिक प्रेम और दूसरी ओर भावनात्मक रूप से जुड़े नेताओं-कार्यकर्ताओं की मौद्रिक कारणों से उपेक्षा। हालांकि जब तक वह इस बात को समझ पायीं, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आज उनके सांसदों और विधायकों की संख्या न के बराबर है। ऐसे में उनके घर में और पार्टी में जो पारिवारिक कोहराम मचा हुआ है, वह कोई नयी बात नहीं है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। हालांकि यह भी कड़वा सच है कि अपनी जिस जिद्दी स्वभाव के चलते वह सियासत में खूब आगे बढ़ीं, अब उसी जिद्दी स्वभाव के चलते उनकी पार्टी और परिवार दोनों बिखराव के कगार पर है। वहीं, 70 वर्षीय मायावती सूझबूझ से काम लेने के चक्कर में गलतियां पर गलतियां करती जा रही हैं। जिस तरह से वह अपने ही निर्णय को बार-बार पलट देती हैं, उससे उनकी सियासी साख भी चौपट हो रही है। इससे सीएम-पीएम बनने का उनका ख्वाब तो चूर हो ही रहा है, लेकिन जोड़-तोड़ से राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति या राज्यपाल बनने या फिर केंद्रीय मंत्री बनने की बची-खुची संभावनाएं भी समाप्त होती जा रही हैं।

जाल में फंसती गयीं मायावती
चूंकि देश की दलित राजनीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि ओबीसी नेताओं की तरह ही दलित नेता भी एक दूसरे राज्यों के बड़े दलित नेताओं से स्वभाविक समझदारी विकसित नहीं कर पाये और खुद को कमजोर करते चले गये। यूपी में तो मायावती ने दलितों को कद्दावर मुख्यमंत्री दिया, लेकिन बिहार आज तक उससे वंचित है। शायद इसलिए कि भाजपा-कांग्रेस ने अपनी सियासी हितों के लिए इन्हें भी आपस में लड़ाया और अपने इरादे में कामयाब रहे। काश! मायावती भी यह सबकुछ समझ पातीं और तदनुसार निर्णय लेतीं।

चुनाव दर चुनाव मिली हार
बहुजन समाज पार्टी ने पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में 488 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी। उत्तर प्रदेश बसपा का गढ़ रहा है। यूपी में भी पार्टी ने 79 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का यही प्रदर्शन था। बहरहाल, बसपा का राष्ट्रीय स्तर पर वोट शेयर गिरकर महज 2.04 प्रतिशत रह गया है। उत्तर प्रदेश में भी बसपा का वोट शेयर 9.39 प्रतिशत ही रह गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 10 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन तब समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन था। वहीं, 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो बसपा को महज एक सीट पर जीत मिली थी। 2017 के विधानसभा चुनाव की तुलना में बसपा का वोट शेयर भी 22.23 प्रतिशत से गिरकर 12.88 प्रतिशत हो गया था। हालांकि, 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को 19 सीटों पर जीत मिली थी।

इस तरह अब लगभग यह तय हो गया है कि मायावती ने एक तरह से खुद को सक्रिय राजनीति से बाहर कर लिया है, जिससे उनके समर्थकों को भी यह अहसास हो गया है कि वह अब खुलकर राजनीति नहीं करने वाली हैं। मायावती के पास अब खुद को राजनीति से अलग रखने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है।

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