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हिंदी विरोध की राजनीति से अपना ही नहीं, देश का भी नुकसान करेंगे स्टालिन
भाषा के बारे में विवाद का पैंतरा खड़ा करना दक्षिण के राज्यों की पुरानी चाल है
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष मेंं आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
तमिलनाडु समेत कई गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को लेकर जबरदस्त विरोध हो रहा है। तमिलनाडु सरकार ने हिंदी को लेकर ही प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से मना कर दिया है। तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने साफ कह दिया है कि वह इसे लागू नहीं होने देंगे। उनकी घोषणा पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा है कि तब स्टालिन को अपने राज्य में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी तमिल में कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। हिंदी पर यह विवाद राष्ट्रहित में नहीं है। सांस्कृतिक और भाषायी विविधताओं से भरे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में भाषा को लेकर विवाद वैसे तो कोई नयी बात नहीं है, लेकिन यह देश के व्यापक हित में भी नहीं है। देश में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया है। दिसंबर 1952 में लगभग 56 दिनों के आमरण अनशन के बाद मद्रास (अब आंध्र प्रदेश) के पोट्टि श्रीरामुलु ‘अमरजीवी’ ने दम तोड़ दिया था। वह भाषा के आधार पर एक अलग राज्य बनाये जाने की मांग कर रहे थे। उनकी मौत की वजह से तत्कालीन भारत में व्यापक हिंसा हुई और सरकार को राज्य पुनर्गठन आयोग बनाना पड़ा और अक्टूबर 1953 में भाषा (तेलुगू) के आधार पर देश के पहले राज्य आंध्र प्रदेश का निर्माण किया गया। हिंदी को लेकर अब केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच विवाद पैदा हो गया है। ताजा विवाद की जड़ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत सभी राज्यों में तीन भाषाएं पढ़ाये जाने की बात है। क्या है भाषा पर छिड़ा यह विवाद और क्या हो सकता है इसका परिणाम, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
तमिलनाडु समेत कई गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को लेकर जबरदस्त विरोध हो रहा है। तमिलनाडु सरकार ने हिंदी को लेकर ही प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से मना कर दिया है। तमिलनाडु सरकार ने तो हिंदी की वजह से राज्य में नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू करने से मना कर दिया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाने पर जारी इस बहस में छलक रहे हिंदी-द्वेष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह हिंदी द्वेष गैर-हिंदी जन में ही नहीं, बल्कि हिंदी विभाग में पढ़ाने वाले कुछ प्रोफेसरों या कुछ हिंदी पत्रकारों के नजरिये पर भी हावी है। ऐसे हिंदी-द्वेषी बुद्धिजीवी यह भूल चुके हैं कि उनके लेखों और भाषणों से हिंदी भाषा के इतिहास की विकृत समझ जनता के सामने प्रस्तुत हो रही है, जिसके दूरगामी नुकसान हो सकते हैं।
क्या है विवाद
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनइपी) 2020 के तहत सभी राज्यों में तीन भाषाएं पढ़ाये जाने की बात कही गयी है। इसके तहत पहली भाषा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी भाषा गैर हिंदी राज्यों के लिए हिंदी या अंग्रेजी और हिंदी भाषी राज्यों के लिए अंग्रेजी या कोई दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा और तीसरी भाषा के रूप में गैर हिंदी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा और हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है। आसान शब्दों में कहें, तो इसके तहत हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्य की क्षेत्रीय भाषा पढ़ाये जाने पर जोर दिया गया है, लेकिन किसी तरह की बाध्यता नहीं है। तमिलनाडु सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार नयी शिक्षा नीति के जरिये गैर हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपना चाहती है। तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि राज्य में 1968 से द्विभाषा नीति के तहत स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी की शिक्षा पहले से ही दी जा रही है। इसीलिए तमिलनाडु समेत कई दक्षिण भारतीय राज्यों ने केंद्र सरकार पर शिक्षा के संस्कृतिकरण का आरोप लगाया है।
2019 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा जारी करने के दौरान भी दक्षिण भारतीय राज्यों ने इसका विरोध किया था। कोठारी आयोग की सिफारिश पर लागू पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में त्रिभाषा सूत्र को अपनाया गया था, लेकिन इसे व्यापक पैमाने पर कभी लागू नहीं किया जा सका।
दक्षिण भारत और हिंदी
दक्षिण भारत से हिंदी के विरोध का नाता आजादी से पहले ही जुड़ चुका था। 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी के लगभग 125 स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में लागू करने के फैसले का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। अन्नादुरई के नेतृत्व में यह आंदोलन दो साल तक चला और ब्रिटिश सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया।
तमिलनाडु को हो रहा नुकसान
केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का विरोध करने की वजह से तमिलनाडु को जारी की जाने वाली 500 करोड़ से ज्यादा की फंडिंग रोक दी है। नियमानुसार समग्र शिक्षा अभियान के तहत राज्यों को फंडिंग हासिल करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति की गाइडलाइन का पालन करना जरूरी है। इस अभियान के तहत केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अलग-अलग श्रेणी के आधार पर फंडिंग मुहैया कराती है। सामान्य राज्यों और विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों को 60 फीसदी फंडिंग और पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों को 90 फीसदी फंडिंग दी जाती है।
तमिलनाडु के नेताओं का विरोध बेतुका
संविधान निर्माताओं की मूल परिकल्पना के अनुसार हर राज्य की एक राज्य-भाषा होनी थी और उस राज्य का सारा कामकाज और शिक्षण उसी भाषा में होना था और हिन्दी को इन राज्यों के बीच आपसी संवाद की भाषा बनना था। मगर संविधान निर्माताओं का यह सपना पूरा न हुआ और आज भी अंग्रेजी कई भारतीय राज्यों के बीच संपर्क भाषा है। हालाँकि अभी तक किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि अगर तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र सरकार से अंग्रेजी में पत्राचार करने से तमिल भाषा समाप्त नहीं हुई है, तो फिर केंद्र से हिंदी में पत्राचार करने से तमिल कैसे खत्म हो जायेगी। अब जब केंद्र सरकार ने तीसरी भाषा को पूर्णत: वैकल्पिक बना दिया है, तो फिर हिंदी के नाम पर त्रिभाषा नीति का विरोध करने का क्या तुक है।
क्या बोले एमके स्टालिन
मुख्यमंत्री एमके स्टालिन हिंदी थोपने और परिसीमन अभ्यास को लेकर लगातार केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं। उन्होंने केंद्र पर गैर हिंदी भाषीय राज्यों पर जबरन हिंदी थोपने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भी सवाल खड़े किये। स्टालिन ने कहा कि नयी शिक्षा नीति में तीन भाषाओं का फॉर्मूला राज्य में हंसी का पात्र बन गया है। उन्होंने कहा, इतिहास स्पष्ट है। जिन्होंने तमिलनाडु पर हिंदी थोपने की कोशिश की, वे या तो हार गये या बाद में उन्होंने अपना रुख बदल लिया। तमिलनाडु ब्रिटिश उपनिवेशवाद की जगह हिंदी उपनिवेशवाद को बर्दाश्त नहीं करेगा।
अमित शाह ने स्टालिन को दिया करारा जवाब
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तमिलनाडु के सीएम को करारा जवाब देते हुए कहा, मैं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री से ये अपील करना चाहता हूं कि वे जल्द से जल्द तमिल भाषा में मेडिकल और इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम शुरू करने की दिशा में कदम उठायें। उन्होंने दावा कि स्टालिन ने इस मामले में पर्याप्त काम किया ही नहीं, जबकि केंद्र सरकार ने क्षेत्रीय भाषाओं को समायोजित करने के लिए भर्ती नीति में बदलाव किये हैं। शाह ने कहा, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि यूपीएससी अभ्यर्थी अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा दे सकें। परीक्षा तमिल में भी दी जा सके।
इस पूरे विवाद की जड़ में दरअसल हिंदी विरोध की राजनीति है, जिसके बल पर स्टालिन जैसे नेता अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि इस तरह के विवादों से अंतत: देश का ही नुकसान होता है।