राजीव
रांची। सत्ता के रण का चौथा चरण यानी झारखंड का पहला चरण समाप्त हो गया है। एक समय में नक्सली क्षेत्र के नाम से मशहूर लोहरदगा, चतरा और पलामू में लोकतंत्र के इस महापर्व में इस बार न बंदूकें गरजीं, न बम-गोले चले। कहीं से भी हिंसा की खबरें तक नहीं आयीं। अगर कुछ चला तो वह है बैलेट बम। वोट देने को लेकर जोश और जज्बा खूब दिखाई पड़ा। इसका नतीजा रहा कि तीनों लोकसभा क्षेत्रों में वोटों की बारिश होती रही। पलामू में 64.35 प्रतिशत, लोहरदगा में 64.88 फीसदी और चतरा में 62.06 फीसदी मतदान हुआ।
एक ओर जहां नक्सली बिलों में दुबके रहे, वहीं वोटर भीषण गर्मी में भी घरों से निकले और वोट डाले। लोकतंत्र के इस महाकुंभ के पहले चरण में भारी संख्या में डुबकी लगाने के लिए जब गांव-गांव, शहर-शहर में भीड़ उमड़ी, तो ऐसा संकेत सुबह से मिल गया था कि लोकतंत्र के कुंभ में भी रिकॉर्ड बनेगा और यह भागीदारी देश के लिए निश्चित ही एक शुभ संकेत है। कल तक जहां बदूकें गरजती थीं, वहां लोकतंत्र की जय-जय हो रही थी।
अब तथाकथित नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भीषण गर्मी में भी वोट बरसते रहे। देश के लोकतंत्र ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि बुलेट पर बैलेट की चोट से करारा जबाव दिया जा सकता है। जिस तरह से मतदाताओं ने निर्भीक होकर मुखरता से मतदान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है वह निश्चित रूप से लोकतंत्र की विजय है। सही मायने में देखा जाये तो इसका सारा श्रेय आम मतदाताओं को जाता है, जिन्होंने नक्सलियों की छिटपुट पोस्टरबाजी, दहशत फैलाने की कुछेक कोशिशों को खारिज कर यह संदेश देने का प्रयास किया है कि क्षेत्र का विकास अशांति फैलाने से नहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनी हुई सरकार के माध्यम से ही हो सकता है।
पिछले तीन दशक से झारखंड की गिनती देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में होती रही है। कुछ समय पहले तक राज्य में नक्सलियों का खुल्लमखुल्ला तांडव होता था। खासकर चुनाव के समय तो सारी मशीनरी नक्सलियों के सामने घुटने टेक देती थी। यहां तक कि नेताजी को भी जंगल मैनेज करने में खूब पसीने बहाने पड़ते थे, लेकिन इस बार फिजां कुछ बदली-बदली सी दिखाई पड़ी।
पिछले तीन दशकों में पहली बार ऐसा है, जब चुनाव में नक्सलियों का खौफ नहीं दिखा। हालांकि झारखंड को अभी भी पूरी तरह नक्सलमुक्त कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन इतना जरूर है कि अब नक्सलियों के लिए अपनी मांद से निकलना मुश्किल जरूर हो गया है। तीन दशक की चुनाव की बात करें, तो ऐसा एक भी चुनाव नहीं रहा, जो रक्तरंजित न रहा हो। नक्सलियों के खौफ और संगीनों के साये में वोट नहीं पड़े हों। ग्रामीण डरे-सहमे मतदान केंद्र नहीं पहुंचे हों। लेकिन आज की स्थिति को देख यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र का यह पहला महापर्व रक्तरंजित नहीं हुआ, नक्सली बिल से बाहर नहीं निकल पाये। निकले तो सिर्फ वोटर और नतीजा हुआ कि खूब वोट पड़े।
पहले का चुनावी इतिहास देखें, तो नक्सलियों को मुंहमांगी रकम देने और उन्हें मैनेज करने का आरोप कई राजनीतिक दलों और नेताओं पर लगा। इसका स्टिंग आॅपरेशन तक हुआ। मीडिया में भी नेता और नक्सली गठजोड़ की खबरें आयीं। एक वक्त नेताओं को शायद ऐसा लगने लगा कि नक्सलियों को मैनेज किये बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता है। लेकिन इस बार मतदाताओं का उत्साह और उमंग चरम पर नजर आया। बूथों पर लगी लंबी-लंबी कतारें कुछ अलग ही कहानी बयां कर रही थीं। ये कतारें यह आभास करा गयीं कि लोकतंत्र पहले से मजबूत हुआ है। लोग अपने अधिकार के प्रति ज्यादा सजग हुए हैं। अगर इन तीनों सीटों के रूझान की बात करें, तो कहा जा सकता है कि झारखंड में मोदी मैजिक देखने को मिला, क्योंकि यहां प्रत्याशी गौण हो गये थे। लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर इसका जादू अभी भी सिर चढ़कर बोल रहा है। वैसे, इस चुनाव में एक बात और साफ हो गयी कि मतदाता अब क्षेत्रीय मुद्दों को छोड़ राष्टÑीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। इसी का नतीजा रहा कि लोहरदगा, चतरा और पलामू में कमोबेश प्रत्याशियों के बीच सीधा मुकाबला ही होता नजर आया। बूथों पर पुरुष मतदाताओं से लंबी महिला वोटरों की लाइन आधी आबादी में आयी जागरूकता का संदेश दे रही थी। न्यू वोटर और बुजुर्गों का उत्साह भी कहां कम पड़नेवाला था। बहरहाल, आनेवाले तीन चरणों में झारखंड में होनेवाले चुनावी यज्ञ में मतदान के रूप में जितनी ज्यादा आहुतियां पड़ेंगी, लोकतंत्र उतना ही पारदर्शी और मजबूत होगा। मतदान के प्रति लोगों में बढ़ी जागरूकता ने यह भी साबित कर दिया है कि आने वाले दिनों में जनता की उपेक्षा कर पाना राजनीतिक दलों के लिए कठिन होगा। वैसे लंबी-लंबी कतारों के बीच मतदाताओं की खामोशी की कहानी भी कुछ कह रही है। वैसे राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से इसकी व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन कई मर्तबा देखने में आया है कि अधिक मतदान के बावजूद सरकारें सत्ता में बनी रही हैं और कम मतदान के बाद भी सत्ता से बेदखल हुई हैं। इस बार के चुनाव में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का जुनून सवार होता दिखा। सभी राजनीतिक दलों की निगाहें युवाओं पर टिकी हैं। बढ़ती बेरोजगारी को लेकर युवा नरेंद्र मोदी सरकार से नाराज दिख रहे थे, लेकिन पुलवामा में सुरक्षाबलों पर हुए आत्मघाती हमले और फिर बालाकोट में की गयी वायुसेना की एयर स्ट्राइक के बाद ऐसा लग रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा ने युवाओं के भीतर राष्ट्रवाद को जबरदस्त ढंग से उभारा है। सोशल मीडिया ने इस ज्वार को उभारने में तीव्रता की भूमिका निभायी है। बंपर वोटिंग किस दल के फेवर में है, इसका स्पष्ट आकलन करना मुश्किल है। झारखंड के तीन जिलों में बंपर वोटिंग की चर्चा खूब हो रही है। इसका श्रेय निर्वाचन आयोग के साथ, लोकतंत्र के इस अभूतपूर्व पर्व में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने की उन अपीलों को भी जाता है, जो दृश्य, श्रव्य और मुद्रित प्रचार माध्यमों से निरंतर जारी है। कहा जा सकता है कि झारखंड अब भयमुक्त होकर लोकतंत्र की रहा चल पड़ा है और लोग अपने अधिकार के प्रति ज्यादा सजग हुए हैं। चुनाव परिणाम तो 23 मई को आयेगा, तब तक चुनाव में हिस्सा ले रहे दल सपने देख सकते हैं। भाजपा यह सपना पाल सकती है कि तीनों सीटों का परिणाम उसके लिए उत्साहवर्द्धक रहेगा, तो विपक्ष उसे नकारेगा। लेकिन इतना जरूर है कि लोहरदगा में कांटे की टक्कर हुई है। अब देखना यह है कि जनता किसके सिर ताज बांधती है।
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