गुलाम रब्बानी
फाल्गुनी रंगों से सजा- संवरा चैत का महीना आया और सखुआ के पेड़ फूलों से लद गये। पर्व- त्योहारों के ताने-बानों से सुवासित झारखंडी आदिवासियों के जीवन चक्र में और एक ऋतुपर्व आ गया है सरहुल। इस पर्व के नाम मात्र से जीवन समर्थक, प्रकृति प्रेमी, नैसर्गिक गुणों के धनी और पर्यावरण के स्वाभाविक रक्षक आदिवासियों का मन और दिल रोमांचित हो उठता है। उन फूलों की भीनी-भीनी महक सारे वातावरण को सुरभित कर पर्व के आगमन का संकेत दे जाती है। सरहुल चैत महीने के पांचवें दिन मनाया जाता है। इसकी तैयारी सप्ताह भर पहले ही शुरू हो जाती है। प्रत्येक परिवार से हड़िया बनाने के लिए चावल जमा किये जाते हैं। पर्व की पूर्व संध्या से पर्व के अंत तक पहान उपवास करता है। एक सप्ताह पूर्व गांव की डाड़ी साफ की जाती है। उसमें ताजा डालियां डाल दी जाती है जिससे कि पक्षियां और जानवर भी वहां से जल न पी सकें।
पर्व के दिन प्रात: मुर्गा बांगने के पहले ही पूजार दो नये घड़ों में डाड़ी का विशुद्ध जल भर कर चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर गांव की रक्षक आत्मा, सरना बुढ़िया के चरणों में रखता है। उस सुबह गांव के नवयुवक चूजे पकड़ने जाते हैं। चेंगनों के रंग आत्माओं के अनुसार अलग-अलग होते हैं। किसी – किसी गांव में पहान और पूजार ही पूजा के इन चूजों को जमा करने के लिए प्रत्येक परिवार जाते हैं।
दोपहर के समय पहान और पूजार गांव की डाड़ी, झरिया अथवा निकट की नदी में स्नान करते हैं। किसी-किसी गांव में पहान और उसकी पत्नी को एक साथ बैठाया जाता है। गांव का मुखिया अथवा सरपंच उन पर सिंदूर लगाता है। उसके बाद उन पर कई घड़ों को डाला जाता है। उस समय सब लोग बरसो,बरसो कह कर चिल्लाते हैं। यह धरती और आकाश के बीच शादी का प्रतीक है।
उसके बाद गांव से सरना तक जूलूस निकाला जाता है। सरना पहुंचकर पूजास्थल की सफाई की जाती है। पूजार चेंगनों के पैर धोकर उन पर सिंदूर लगाता है और पहान को देता हैे। पहान सरना बुढ़िया के प्रतीक पत्थर के सामने बैठकर चेंगनो को डेन के ढेर से चुगाता है। उस समय गांव के बुजुर्ग वर्ग अन्न के दाने उन पर फेंकते हुए आत्माओं के लिए प्रार्थनाएं करते हैं कि वे गांव की उचित रखवाली करें। उसके बाद पहान चेंगनों का सिर काट कर कुछ खून चावल के ढेर पर और कुछ सूप पर चुबाता है। बाद में उन चेंगनो को पकाया जाता है। सिर को सिर्फ पहान खा सकता है। कलेजे यकृत आदि आत्माओं में नाम पर चढ़ाये जाते हैं। बाकी मांस चावल के साथ पकाकर उपस्थित सब लोगों के बीच प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
सफेद बलि चढ़ायी जाती है, जो पूर्णता और पवित्रता का प्रतीक
ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता का ख्याल रख कर उनके नाम पर अलग सफेद बलि चढ़ायी जाती है, जो पूर्णता और पवित्रता का प्रतीक है। अन्य आत्माओं के नाम पर अलग- अलग रंगों के चेंगने चढ़ाये जाते हैं। पहान पूर्व की तरफ देखते हुए कहता है- हे ईश्वर, हे पिता, आप ऊपर हैं, यहां नीचे पंच है और ऊपर परमेश्वर हैं। हे पिता आप ऊपर हैं, हम नीचे। आप की आंखे हैं, हम अज्ञानी हैं, चाहे अनजाने अथवा अज्ञानतावश हमने आत्माओं को नाराज किया है, तो उन्हें संभाल कर रखिए, हमारे गुनाहों को नजरंदाज कर दीजिए। प्रसाद भोज समाप्त होने के बाद पहान को समारोहपूर्वक गांव के पंचगण ढोते हैं। इस समय पहान सखुआ गाछ को सिंदूर लगाता और अरवा धागा से तीन बार लपेटता है, जो अभीष्ट देवात्मा को शादी के वस्त्र देने का प्रतीक है। कई जगहों में पहान सखुआ फूल, चावल और पवित्र जल प्रत्येक घर के एक प्रतिनिधि को वितरीत करता है। उसके बाद सब घर लौटते हैं। पहान को एक ही व्यक्ति के कंधे पर बैठा कर गांव लाया जाता है। उसके पांव जमीन पर पड़ने नहीं दिये जाते हैं, चूंकि वह अभी ईश्वर का प्रतिनिधि है। घर पहुंचने पर पहान की पत्नी उसका पैर धोती है और बदले में सखुआ फूल, चावल और सरना का आशीष जल प्राप्त करती है। वह फूलों को घर के अंदर, गोहार घर में और छत में चुन देती है। पहान के सिर पर कई घड़े पानी डालते वक्त लोग फिर चिल्लाते हुए कहते हैं – बरसो, बरसो।
दूसरे दिन पहान प्रत्येक परिवार में जाकर सखुआ फूल, सूप से चावल और घड़े से सरना जल वितरित करता है। गांव की महिलाएं अपने-अपने आंगन में एक सूप लिए खड़ी रहती है। सूप में दो दोने होते हैं। एक सरना जल ग्रहण करने के लिए खाली होता है, दूसरे में पाहन को देने के लिए हड़िया होता है। सरना जल को घर में और बीज के लिए रखे गये धान पर छिड़का जाता है। इस प्रकार पहान हरेक घर को आशीष देते हुए कहता है, आपके कोठे और भंडार धन से भरपूर हों, जिससे पहान का नाम उजागर हो। प्रत्येक परिवार में पहान को नहलाया जाता है। वह भी अपने हिस्से का हड़िया प्रत्येक परिवार में पीना नहीं भूलता है। नहलाया जाना और प्रचुर मात्रा में हड़िया पीना सूर्य और धरती को फलप्रद होने के लिए प्रवृत करने का प्रतीक है। सरहुल का यह त्योहार कई दिनों तक खिंच सकता है चूंकि बड़ा मौजा होने से फूल, चावल और आशीष जल के वितरण में कई दिन लग सकते हैं।
आदिवासी जन जीवन में सखु्आ पेड़ की अति महत्ता
सरहुल पर्व में सखुआ के फूलों का ही प्रयोग अपने में चिंतन का विषय है। आदिवासी जन जीवन में सखु्आ पेड़ की अति महत्ता है। सखुए की पत्ती, टहनी, डालियां, तने, छाल, फल आदि सब कुछ प्रयोग में लाये जाते हैें। पत्तियों का प्रयोग पत्तल- दोना, पोटली आदि बनाने में होता है। दतवन, जलावन, छमड़ा बैठक, सगुन निकालने, भाग्य देखने आदि में सखुए की डाली, टहनी, लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है।

यह आदिवासियों की संस्कृति एवं धर्म की मूल आध्यात्मिकता को व्यक्त करने का पर्व
जीवन के श्रोत, पवित्र ईश्वर को वे विशुद्ध जल ही चढ़ा सकते हैं। नया घड़ा, सबकी नजरों से बचाकर सरना तक पहुंचाना, रास्ते में किसी से बात नहीं करना, पहान द्वारा उपवास करना आदि उनकी पवित्रता के मनोभावों को ही दर्शाता है। कई चेंगनों की बलि गांव के बच्चे- बच्चियों का प्रतीकात्मक चढ़ावा है, जिसके द्वारा उनकी सुरक्षा और समृद्धि की कामना की जाती है। सर्वोच्च ईश्वर के लिए मात्र सफेद बलि भी पवित्रता और पूर्णता का बोध कराती है। पहान और उसकी पत्नी की प्रतीकात्मक शादी, जल उड़ेला जाना, हड़िया पिलाना आदि धरती और आकाश अथवा सूर्य की शादी, अच्छी वर्षा की कामना, उर्वरा और संपन्नता की कामना का प्रतीक है। फूल, चावल और सरना जल खुशी, पूर्णता, जीवन और ईश्वर की बरकत का बोध कराते हैं, जिसके लिए पहान प्रत्येक परिवार में प्रर्थना करता है। पहान को समारोह के साथ ढोकर सरना से गांव तक लाना ईश्वर को ही आदर देना है, जिसमें अपनी निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति और समर्पण दर्शाकर जाति की निष्ठा, भक्ति और समर्पण को दर्शाया जाता है। सरना जल से बीज के लिए सुरक्षित धान को आशीष देना भी ईश्वर में उनकी निष्ठा और उसकी बरकत में निर्भरता को दर्शाता है। इस प्रकार देखा जाये तो सरहुल मात्र फूलों, खुशियों और बहारों का पर्व नहीं है। यह आदिवासियों की संस्कृति एवं धर्म की मूल आध्यात्मिकता को व्यक्त करने का पर्व है।

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