वर्ष 2014 के अंतिम दिनों में जब झारखंड विधानसभा का चुनाव परिणाम घोषित हो रहा था, किसी को इस बात का इल्म भी नहीं था कि सिल्ली सीट से सुदेश महतो चुनाव हार भी सकते हैं। सुदेश चुनाव हार गये और इसके साथ ही उनके राजनीतिक कैरियर के खारिज होने की बात की जाने लगी। चुनाव के कुछ ही महीने गुजरे थे कि विधायक कमल किशोर भगत को एक मामले में सजा हो गयी और उनकी विधानसभा सदस्यता चली गयी। वहां उप चुनाव हुआ और आजसू के हाथों से वह सीट भी चली गयी। फिर सिल्ली और गोमिया के विधायकों की सदस्यता भी अदालत द्वारा सजा सुनाये जाने के कारण चली गयी और दोनों जगह उप चुनाव हुए। सुदेश दोबारा सिल्ली से खड़े हुए और गोमिया से उन्होंने अपने करीबी डॉ लंबोदर महतो को उतारा।
सिल्ली में सुदेश को एक बार फिर पराजय झेलनी पड़ी, जबकि लंबोदर महतो ने गोमिया में झामुमो और भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश की। वह जीत हासिल नहीं कर सके, लेकिन आजसू ने दोनों बड़े दलों को अपनी ताकत का एहसास करा दिया।
चुनाव मैदान में लगातार मिल रही पराजय से राजनीतिक पंडितों ने आजसू के भविष्य पर सवालिया निशान लगाना शुरू कर दिया। कहा जाने लगा कि आजसू के दिन अब लद चुके हैं। लेकिन सुदेश महतो ने इसे पूरी तरह गलत साबित कर दिया। तमाम उतार-चढ़ाव को पार करते हुए उन्होंने अपने दम पर पार्टी को न केवल दोबारा खड़ा कर दिया, बल्कि नयी ऊर्जा भी दी। सुदेश महतो ने अपने विश्वसनीय सहयोगी और रामगढ़ के विधायक तथा झारखंड सरकार में मंत्री चंद्रप्रकाश चौधरी के साथ मिल कर नयी किस्म की राजनीति शुरू की। यह राजनीति न्यू झारखंड के सपने को लेकर थी। चंद्रप्रकाश चौधरी जहां सरकार के भीतर थे, वहीं सुदेश खुद को जनता से जोड़ने में लगे रहे। सरकार में रह कर सरकार के खिलाफ बात करने की इस राजनीति को शुरू करने का श्रेय सुदेश को ही जाता है। सुदेश महतो ने ऐसे मुद्दे उठाये, जो राज्य सरकार के लिए अप्रिय थे। लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले उन्होंने पूरे राज्य में स्वराज स्वाभिमान यात्रा की। इस दौरान वह करीब पांच लाख लोगों से मिले, उनकी बातें सुनीं और जमीनी हकीकत से रू-ब-रू हुए। इससे पहले दूसरे मुद्दों पर भी उन्होंने राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। चाहे सीएनटी-एसपीटी एक्ट का मुद्दा हो या जमीन अधिग्रहण कानून में संशोधन का, पारा शिक्षकों का मुद्दा हो या महिला कल्याण का, स्थानीयता की नीति का मसला हो या नक्सल विरोधी अभियान का, सुदेश ने हमेशा अपनी बात रखी और मजबूती से अपना पक्ष जनता के सामने रखा। इसकी बड़ी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। भाजपा का सहयोगी दल होने के नाते आजसू की आलोचना भी हुई और भाजपा ने भी साढ़े चार साल में एक बार भी आजसू के साथ सहयोगी का व्यवहार नहीं किया। इससे सुदेश विचलित नहीं हुए। आलोचनाओं और उपेक्षाओं का प्रहार झेलते हुए वह पार्टी को नयी दिशा देने की कोशिश में जुटे रहे। इस दौरान सुदेश महतो ने पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने पार्टी अनुशासन को हमेशा सबसे ऊपर रखा। पारा शिक्षकों के मुद्दे पर जब उनके अपने ही विधायक ने पार्टी की नीतियों की सार्वजनिक आलोचना की, तो सुदेश महतो उन्हें भी अलग करने में नहीं झिझके।
एक तरफ सुदेश पार्टी का जनाधार बढ़ाने के अभियान में लगे रहे, तो दूसरी तरफ सरकार में शामिल चंद्रप्रकाश चौधरी ने पार्टी को मजबूत करने का काम जारी रखा। सरकारी योजनाओं को गांव-गांव तक पहुंचाने और उनका सही क्रियान्वयन चौधरी के साथ-साथ पार्टी को भी स्थापित करता रहा। यही कारण था कि महज पांच साल में आजसू की पहुंच झारखंड के सभी प्रमंडलों में समान रूप से हो गयी।
इतना ही नहीं, कभी कुरमियों की पार्टी कही जानेवाली आजसू में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और सवर्णों का भी प्रवेश हुआ। इन समुदायों में भी आजसू ने अपनी पैठ बना ली। चुनाव की घोषणा से ठीक पहले रांची में पिछड़ा वर्ग का अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित कर पार्टी ने साबित कर दिया कि उसके जनाधार का विस्तार हो चुका है। इतना ही नहीं, खेल से लेकर श्रमिक आंदोलनों और छात्र हित के मुद्दों को भी उठाने में आजसू कभी पीछे नहीं रही।
यही कारण है कि भाजपा को आजसू के प्रति अपना नजरिया बदलने पर मजबूर होना पड़ा। आजसू ने जब राज्य की तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया, तो भाजपा को अपने लिए खतरे का एहसास हुआ। रांची, हजारीबाग और गिरिडीह राज्य की प्रमुख राजनीतिक सीट है। अब तक ये सीटें भाजपा के मजबूत गढ़ मानी जाती हैं। आजसू ने इन तीन सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। भाजपा नेतृत्व को लगा कि इन जगहों पर आजसू उसका खेल बिगाड़ सकती है। इसलिए सुदेश महतो को बातचीत के लिए बुलाया गया।
आजसू नेतृत्व ने तालमेल के बारे में कोई भी बातचीत सीधे केंद्रीय नेतृत्व से करने की शर्त रखी और फिर गिरिडीह सीट पर दावा ठोंका। भाजपा नेतृत्व जानता था कि यदि आजसू की बात नहीं मानी गयी, तो बाकी दो सीटें भी उसके हाथ से निकल सकती हैं। इसलिए उसने गिरिडीह सीट आजसू को देने का फैसला कर लिया। इसके लिए भाजपा को अपने ही घर में बगावत भी झेलनी पड़ रही है, लेकिन उसके सामने कोई विकल्प नहीं है। इन घटनाक्रमों से साफ होता है कि आजसू के नेतृत्व ने तमाम राजनीतिक पूर्वानुमानों को ध्वस्त करते हुए न केवल मजबूती हासिल की है, बल्कि राजनीति में एक नये रास्ते का निर्माण भी किया है। यह नया रास्ता झारखंड की राजनीति को नयी दिशा देगा और न्यू झारखंड के निर्माण का मार्ग भी प्रशस्त करेगा, अब इसकी ही भविष्यवाणी की जा रही है।