-पाला बदलने का एकमात्र मकसद हो गया है टिकट हथियाना
-उम्र के इस पड़ाव पर चुनावी मुकाबले में उतरने के लिए उतावले क्यों हैं ये नेता
लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच झारखंड में महत्वाकांक्षी नेताओं की असलियत भी सामने आने लगी है। इस महत्वाकांक्षा का नाम है सांसद बनना। और इसके लिए जरूरी है एक अदद टिकट। इस महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर युवा तो युवा, बुजुर्ग नेता भी पाला बदलने के लिए दलीय निष्ठा, उज्ज्वल अतीत और अपनी छवि को भी दांव पर लगाने को तैयार हैं। हम बात कर रहे हैं रामटहल चौधरी, गिरिनाथ सिंह और रवींद्र पांडेय सरीखे नेताओं की, जिन्होंने बस एक टिकट के लिए अपने पुराने दल को अलविदा कह दिया। रामटहल चौधरी पांच बार रांची के सांसद रह चुके हैं और इस बार वह चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हो गये। इसी तरह रवींद्र कुमार पांडेय हैं, जो पांच बार भाजपा के टिकट पर गिरिडीह के सांसद रह चुके हैं। वह भी टिकट की आस में कांग्रेस में लाइन लगाये हुए हैं। गिरिनाथ सिंह राजद के कद्दावर नेता और विधायक रहे हैं। पिछली बार टिकट की आस में वह भाजपा में चले गये, लेकिन टिकट नहीं मिला। इस बार उनकी महत्वाकांक्षा ने एक बार फिर उफान मारी और वह राजद में आ गये हैं, ताकि लोकसभा चुनाव लड़ने का मौका मिल सके। इन सभी नेताओं में एक बात आम है और वह है कि इन्होंने राजनीति की मलाईदार नदी में खूब गोते लगाये हैं और अब उम्रदराज हो गये हैं। एक और बात इनके साथ है और वह यह है कि ये सभी केवल चुनावी मौसम में ही सक्रिय होते हैं। इसके बावजूद इनकी चुनावी महत्वाकांक्षा कहीं से कम नहीं हुई है। क्या है इन नेताओं के पाला बदलने का खेल और इस महत्वाकांक्षा का असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चुनावी बुखार में तप रहा है। लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इसके साथ ही सियासी जोड़-तोड़ भी चरम पर है। अपना झारखंड भी इससे अछूता नहीं है। चुनाव के इस मौसम में नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भी आसमान छूने को बेताब नजर आ रही हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि यह केवल चुनाव का पर्व नहीं, दल-बदल का पर्व भी है। करवट लेने की तरह रातों-रात लोगों की निष्ठाएं भी बदल जा रही हैं। इससे भी झारखंड अछूता नहीं है और यहां भी पाला बदलने का सिलसिला तेज है। झारखंड पाला बदलने के खेल में इसलिए विशिष्ट है, क्योंकि यहां तो राजनीति में हाशिये पर जा चुके नेता भी टिकट हासिल करने के लिए दलीय निष्ठा को तिलांजलि दे रहे हैं।
गीता कोड़ा के साथ शुरू हुआ दल-बदल का खेल
पिछले महीने झारखंड में कांग्रेस के टिकट पर जीती सांसद गीता कोड़ा के कांग्रेस छोड़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने से शुरू हुई इस कड़ी में निरंतर नये नाम जुड़ रहे हैं। उनके बाद भाजपा के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल पाला बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गये और हजारीबाग संसदीय सीट से टिकट हासिल करने में सफल हो गये। उनके बाद शिबू सोरेन की बड़ी बहू विधायक सीता सोरेन ने झामुमो छोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया और उन्हें भी दुमका से पार्टी का टिकट मिल गया। लेकिन पाला बदलने वाले इन नेताओं में एक खास बात यह है कि ये सभी अपेक्षाकृत युवा हैं।
बुजुर्ग नेताओं के पाला बदलने का खेल
अब बात करते हैं झारखंड के बुजुर्ग नेताओं के पाला बदलने की। इसमें पहला नाम जुड़ा रामटहल चौधरी का, जो पांच बार भाजपा के टिकट पर रांची से सांसद रह चुके हैं। पिछली बार उन्हें भाजपा ने टिकट नहीं दिया, तो वह निर्दलीय ही चुनाव मैदान में उतरे और उनका प्रदर्शन बेहद खराब रहा। करीब 81 साल के हो चुके रामटहल चौधरी ने इस बार चुनाव लड़ने के लिए करीब चार दशक की अपनी दलीय निष्ठा बदल ली और कांग्रेस में शामिल हो गये। 81 साल की उम्र में उन्हें पता चला कि भाजपा न्याय नहीं कर रही है। सभी को साथ लेकर नहीं चल रही है। उन्हें राजीव गांधी की अदा भा गयी और भाजपा के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार कर वह दिल्ली पहुंचे और कांग्रेस का हाथ मजबूत करने की ठान ली। अब ऐसी चर्चा है कि उन्हें रांची से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया जा सकता है। अब जो नयी सूचना आ रही है, उसके अनुसार उनकी उम्मीदवारी पर भी सशंय के बादल मंडराने लगे हैं, क्योंकि कांग्रेस का एक खेमा अभी भी उनको उम्मीदवार स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसे खेमे का कहना है कि कांग्रेस के साथ हर बुरे समय में वे रहे और जब टिकट देने की बात हो रही है, तो कोई दूसरा आ जाये, यह हमें स्वीकार नहीं। इस तरह कांग्रेस के बूते छठी बार संसद पहुंचने का रामटहल चौधरी के सपने पर अभी से ही ग्रहण लगता दिखने लगा है। सबसे खास बात यह है कि इतने सालों तक जिस कांग्रेस को वह पानी पीकर कोसते थे, जिन मुसलमानों को वह हर बात पर ललकारते थे, मुसलमान और इसाई मतदाता उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे, आज कांग्रेस में जाकर उन्होंने न केवल अपनी दलीय निष्ठा बदली है, बल्कि अतीत में अर्जित प्रतिष्ठा और निजी छवि को भी दागदार बना लिया है।
कुछ ऐसा ही हाल गिरिडीह के सांसद रहे रविंद्र कुमार पांडेय का भी है। पिछली बार भाजपा ने गिरिडीह सीट आजसू को दे दी, तो पांडेय मन मसोस कर रह गये। पांच साल तक चुप्पी साधे रखनेवाले 64 वर्षीय रवींद्र पांडेय की चुनावी महत्वाकांक्षा ने इस बार उन्हें कांग्रेस की चौखट पर लाकर खड़ा कर दिया है। वह धनबाद से चुनावी मुकाबले में उतरने की कोशिश कर रहे हैं। बता दें कि रवींद्र पांडेय 1999 में जब भाजपा के टिकट पर पहली बार सांसद बने थे, तो लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ था, क्योंकि उनके पिता कृष्ण मुरारी पांडेय पुराने कांग्रेसी थे और खुद रवींद्र पांडेय भी कांग्रेस का टिकट लेने के लिए कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बलमुचू के साथ दिल्ली गये थे, लेकिन किसी तरह भाजपा का टिकट उन्हें मिल गया था।
इसी तरह गिरिनाथ सिंह भी भाजपा छोड़ कर राजद में शामिल हो गये हैं। चर्चा है कि उन्हें चतरा संसदीय सीट से पार्टी का टिकट दिया जा सकता है। गिरिनाथ सिंह राजद के संस्थापक सदस्यों में थे, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वह टिकट पाने की उम्मीद में अन्नपूर्णा देवी के साथ भाजपा में शामिल हो गये थे। संयोग से उन्हें टिकट नहीं मिला और वह राजनीतिक रूप से हाशिये पर चले गये। अब अचानक वह भाजपा को छोड़ कर राजद में लौट आये हैं। उनकी घर वापसी का एक ही उद्देश्य है और वह है टिकट हासिल कर चुनावी मुकाबले में उतरना। गिरिनाथ सिंह चार बार विधायक रह चुके हैं और उन्हें बिहार-झारखंड में कई बार मंत्री भी बनाया गया। उन्हें राजद का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया गया था। गिरिनाथ सिंह यह आस जताये हुए हैं कि चतरा के मतदाता उन्हें रातोंरात अपने सिर आंखों बैठा लेंगे और वह संसद की देहरी लांघ जायेंगे। टिकट भी वह वहां से चाह रहे हैं, जो कभी उनकी कर्मभूमि नहीं रही। चतरा में इन दिनों बाहरी और स्थानीय की जंग छिड़ी हुई है। इसी जंग में सुनील सिंह को भाजपा के टिकट से बेदखल होना पड़ा। दूसरा कारण क्षेत्र में उनकी अनुपस्थिति रही। ऐसे में चतरा के मतदाता गिरिनाथ सिंह को कैसे गले लगा लेंगे, यह समय ही बतायेगा।
क्या हासिल होगा इन नेताओं को
यहां बड़ा सवाल यह है कि यदि दल-बदल करनेवाले ये नेता किसी तरह चुनाव जीत भी गये, तो ये अपने क्षेत्र के लिए क्या कर सकेंगे। आक्रामक राजनीति के इस दौर में इन बुजुर्ग नेताओं के पास न शारीरिक क्षमता है और न सड़क पर उतर कर आंदोलन करने की वह क्षमता, जो जनता की समस्याओं के निदान के लिए जरूरी होती है। क्योंकि ये सभी अपने सांसद-विधायक के कार्यकाल में हाथ उठानेवाले ही थे। इतना ही नहीं, लोग तो यह भी पूछ रहे हैं कि आखिर इतने साल तक राजनीति की मलाईदार नदी में गोता लगाने के बाद ये नेता यदि अपनी महत्वाकांक्षा के लिए दलीय निष्ठा और अर्जित प्रतिष्ठा को दांव पर लगा सकते हैं, तो फिर इनके लिए अपने क्षेत्र का विकास भी बस खानापूर्ति ही होगी। सवाल तो उन पार्टियों से भी हो सकता है कि आखिर उसने ऐसे नेताओं को अपने खेमे में शामिल कर क्या हासिल किया है। इनकी जगह पर किसी युवा नेता को उम्मीदवार को आगे बढ़ाया जा सकता था, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में पुलिस के लाठी डंडे खाये हैं, कइयों ने जेल की हवा भी खायी है। जो आज भी जनता के सुख-दुख में हर समय उसके साथ हैं। उन्होंने पूरी जवानी पार्टी को दी है। चाहते तो वह भी नौकरी कर सकते थे, रिटायरमेंट लेकर पेंशन पा सकते थे, लेकिन पार्टी को स्थापित करने की खातिर उन्होंने जोश और जुनून में अपने भविष्य को दांव पर लगाया। दूसरी तरफ अपनी उम्र में सत्तर वसंत देख चुके और सरकारी पेंशन पा रहे नेता हैं कि वे इन युवाओं को जगह ही देना नहीं चाहते। आखिर कब तक ऐसा होता रहेगा। यह सवाल नेताओं से और दलों से भी। उन्हें साफ करना चाहिए कि दल में आखिर कोई झंडा क्यों ढोये, जब ऊपर-ऊपर ही टिकट बांट दिया जा रहा है। जाहिर है, इस सवाल का जवाब इतना आसान भी नहीं है।