विशेष
-पार्टी को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर झेलना पड़ रहा है असंतोष
-लोबिन हेंब्रम, चमरा लिंडा और बसंत लोंगा की उम्मीदवारी से पार्टी पसोपेश में

झारखंड की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा इन दिनों बेहद पसोपेश में है। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अपने विधायकों, पूर्व विधायकों और नेताओं की मनमानी का सामना करना पड़ रहा है। हालत यह है कि पार्टी के एक विधायक ने लोहरदगा संसदीय सीट से निर्दलीय के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया है, तो एक अन्य विधायक ने राजमहल सीट से नामांकन दाखिल करने की घोषणा कर दी है। पार्टी के एक बड़े नेता ने कोडरमा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरने का फैसला किया है, तो पार्टी के एक पूर्व विधायक ने खूंटी सीट से बतौर निर्दलीय नामांकन कर दिया है। यह सब उस पार्टी में हो रहा है, जहां शिबू सोरेन का नाम ही काफी था और हेमंत सोरेन के सामने भले ही कोई कुछ भी बोल ले, पार्टी के खिलाफ बोलने से परहेज करता था। पार्टी के संस्थापक शिबू सोरेन के फैसलों का विरोध आज तक झामुमो में किसी ने नहीं किया और यही कारण है कि स्थापना के 52 साल बाद भी झामुमो झारखंड में वही राजनीतिक ताकत बना हुआ है। गुरुजी की अस्वस्थता और हेमंत सोरेन के पास पार्टी की जिम्मेदारी आने के बाद झामुमो में बहुत कुछ बदला, लेकिन फिर भी बगावत जैसी बात कभी नहीं हुई। अब हेमंत सोरेन परिदृश्य में नहीं हैं, तो ऐसा लगता है कि झामुमो नेतृत्व पूरी तरह ढीला पड़ गया है। उसके पास न बागियों को मनाने के लिए कोई रणनीति है और न ही पकड़। ऐसे में झारखंड की इस सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी के सामने विकट स्थिति पैदा हो गयी है। क्या है झामुमो के भीतर की स्थिति और क्यों इतना ढीला पड़ गया है पार्टी नेतृत्व, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड में लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी देश के बाकी हिस्सों की तरह ही लगातार जारी है। इस गहमा-गहमी के बीच एक बड़ा राजनीतिक सवाल झारखंड के लोगों के दिमाग में रह-रह कर कौंध रहा है कि आखिर राज्य की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के भीतर से मनमानी के स्वर इतने बड़े पैमाने पर कैसे और क्यों सुनाई देने लगे हैं। झामुमो झारखंड की ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है, जिसने पिछले पांच दशक से भी अधिक समय से यहां की राजनीति की नुमाइंदगी की है, राज्य पर शासन भी किया है और विपक्ष की भूमिका भी शिद्दत से निभायी है।

आसन्न लोकसभा चुनाव में झामुमो में अचानक से बड़े पैमाने पर बगावत होने लगी है। पहले पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन ने परिवार और पार्टी से बगावत कर भाजपा का झंडा थाम लिया और अब दुमका से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। इसके बाद विशुनपुर के विधायक चमरा लिंडा ने पार्टी के फैसले से बगावत कर लोहरदगा संसदीय सीट से नामांकन दाखिल कर दिया है। इसी तरह पार्टी के पूर्व विधायक बसंत लोंगा भी खूंटी सीट से बतौर निर्दलीय नामांकन दाखिल कर चुके हैं। नामांकन दाखिल करनेवालों की कतार में अगला नाम जयप्रकाश वर्मा का है, जो कोडरमा संसदीय सीट से निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा कर चुके हैं। इसके बाद बोरियो से पार्टी के विधायक लोबिन हेंब्रम भी बागी बने हुए हैं और राजमहल सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं।

पहली बार इतने सारे बागी
झामुमो के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब उसके भीतर से इतने सारे बागी एक साथ सामने आ गये हैं। सीता सोरेन पारिवारिक और राजनीतिक कारणों से परिवार और पार्टी से अलग हो गयीं, उनका आरोप है कि उन्हें दोनों ही जगह उपेक्षित किया जा रहा था। लोबिन हेंब्रम भी पिछले कुछ अरसे से अपनी ही सरकार के खिलाफ लगातार स्टैंड ले रहे थे। विधानसभा में तो उन्होंने धरना तक दिया था। चमरा लिंडा भी पिछले कुछ दिनों से पार्टी से असंतुष्ट चल रहे थे और लोहरदगा सीट कांग्रेस को दिये जाने के खिलाफ थे। इसी तरह जयप्रकाश वर्मा भी कोडरमा सीट भाकपा-माले को दिये जाने के खिलाफ हैं। बसंत लोंगा भी खूंटी सीट पर झामुमो का स्वाभाविक दावा बताते हुए अब निर्दलीय बन गये हैं।

क्यों हो रही है बगावत
झामुमो के भीतर इतने बड़े पैमाने पर हो रही बगावत दरअसल पार्टी नेतृत्व की कमजोरी का प्रमाण है। पार्टी के सबसे सम्मानित नेता शिबू सोरेन अस्वस्थता की वजह से सक्रिय नहीं हैं। उधर उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन विभिन्न आरोपों में जेल में बंद हैं। पार्टी की कमान फिलहाल उनकी पत्नी कल्पना सोरेन और मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के हाथों में है। इसमें कल्पना सोरेन राजनीति के मैदान में नयी हैं और उन्हें सियासी दांव-पेंच का उतना अनुभव नहीं है। चंपाई सोरेन झामुमो के पुराने और कद्दावर नेता हैं, लेकिन संगठन पर अभी उनका उतना प्रभाव नहीं बन पाया है। ऐसी स्थिति में पार्टी का नेतृत्व एक वैक्यूम से गुजर रहा है, जिसका परिणाम बगावत के रूप में सामने आ रहा है।

बेहद रोमांचक है झामुमो का इतिहास
बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा का नाम 1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़नेवाली मुक्ति वाहिनी की तर्ज पर रखा गया था। वह दौर संथाल परगना में सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ चल रहे जनांदोलन का था। इसके नायक शिबू सोरेन थे। तब अलग झारखंड राज्य की मांग झारखंड पार्टी कर रही थी। शिबू सोरेन ने 1967 में बिहार प्रोग्रेसिव हूल झारखंड पार्टी बनायी, लेकिन अलग झारखंड राज्य के लिए उनका संघर्ष 2 फरवरी, 1972 को उस समय शुरू हुआ, जब विनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिल कर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी। साथ में थे निर्मल महतो और टेकलाल महतो।

झामुमो का घोषित लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ झारखंड और यहां के आदिवासियों की मुक्ति है। झामुमो जब अस्तित्व में आया, तब इसे संथालों की पार्टी कहा जाता था, लेकिन समय के साथ इसने खुद को सभी आदिवासी जनजातियों का प्रतिनिधि बना लिया। झामुमो और खास कर शिबू सोरेन हमेशा झारखंड के निर्विवाद नेता रहे। इसलिए वह राष्ट्रीय पार्टियों की आंख की किरकिरी बने रहे। कांग्रेस और भाजपा ने हमेशा झामुमो को अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल किया। सहयोगियों का अलगाव, बढ़ती उम्र और बड़े बेटे दुर्गा सोरेन के असामयिक निधन ने गुरुजी को भीतर से कमजोर कर दिया, लेकिन वह परिस्थितियों से जूझते रहे। अंतत: उन्होंने अपने दूसरे पुत्र हेमंत सोरेन को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने झामुमो को नयी ऊंचाइयां दीं। पार्टी झारखंड में लगातार मजबूत होती गयी और हेमंत के नेतृत्व में पहली बार इसने कांग्रेस और राजद के साथ मिल कर स्पष्ट बहुमत हासिल किया। करीब चार साल तक सरकार चलाने के बाद हेमंत सोरेन कई आरोपों में घिरते गये और अंतत: उन्हें गिरफ्तार होना पड़ा। लेकिन इससे झामुमो का तेवर नरम नहीं पड़ा।

पकड़ ढीली पड़ गयी है नेतृत्व की
झामुमो की गतिविधियों पर नजर रखनेवालों का कहना है कि दरअसल हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद पार्टी पर से नेतृत्व की पकड़ ढीली पड़ गयी है। पहले शिबू सोरेन और बाद में हेमंत सोरेन ने पार्टी को परिवार की तरह चलाया। झामुमो के किसी नेता या कार्यकर्ता को गुरुजी या हेमंत से मिलने के लिए समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गयी हैं। नेताओं का यह कनेक्ट कहीं खो गया है। कार्यकर्ता यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे किससे कनेक्ट हों। अब इसका कारण राजनीतिक महत्वाकांक्षा है या कुछ और, यह तो साफ नहीं है, लेकिन एक बात तय है कि झामुमो का कार्यकर्ता यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह अपनी बात किसके पास पहुंचाये। इसका पार्टी की सेहत पर असर पड़ रहा है।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version