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    Home»Top Story»झारखंड की चार सीटों पर कम-ज्यादा मतदान से राज गहराया
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    झारखंड की चार सीटों पर कम-ज्यादा मतदान से राज गहराया

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskMay 7, 2019No Comments7 Mins Read
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    झारखंड की चार संसदीय सीटों के लिए मतदान संपन्न हो गया। प्रदेश की 14 में से ये चार सीटें सबसे अधिक प्रतिष्ठित और चर्चित हैं। रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में करीब 63 प्रतिशत मतदान होने की सूचना है। मतदान के दौरान सबसे बड़ी बात यह रही कि कहीं से किसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं मिली है। मतदान की समाप्ति के साथ ही इन चार चुनाव क्षेत्रों में 61 प्रत्याशियों की राजनीतिक किस्मत इवीएम में बंद हो गयी है। इन 61 में से चार ऐसे प्रत्याशी हैं, जो झारखंड की राजनीति के दिग्गज माने जाते हैं और इस चुनाव में इनका सब कुछ दांव पर लगा हुआ है।
    सबसे पहले बात बाबूलाल मरांडी की। झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके बाबूलाल मरांडी तीसरी बार कोडरमा से किस्मत आजमा रहे हैं। एक बार वह यहां से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। इसके बाद उन्होंने अलग पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली और उसके टिकट पर संसद तक पहुंचे। पिछले चुनाव में वह दुमका चले गये थे, जहां से उन्हें पराजित होना पड़ा। इस बार वह एक बार फिर कोडरमा के मतदाताओं के सामने हैं। उनका मुकाबला भाजपा की अन्नपूर्णा देवी और भाकपा माले के राजकुमार यादव से है। अन्नपूर्णा देवी चुनाव से ठीक पहले तक राजद में थीं और ऐन वक्त पर पाला बदल कर वह भाजपा में आ गयीं। पार्टी ने अपने सीटिंग सांसद डॉ रवींद्र राय का टिकट काट कर उन्हें प्रत्याशी बनाया। उधर राजकुमार यादव कोडरमा से तीन बार चुनाव लड़ चुके हैं और हमेशा कड़ी चुनौती पेश करते रहे हैं। बाबूलाल मरांडी ने पिछले चुनाव के बाद से ही जिस तरह कोडरमा में काम किया और लोगों से अपना संपर्क बनाये रखा, ऐसा माना जा रहा था कि वह आसानी से इस बार चुनावी वैतरणी पार कर लेंगे। लेकिन आज के मतदान के ट्रेंड से साफ है कि कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उनकी राह आसान है। अन्नपूर्णा देवी और राजकुमार यादव उनकी कामयाबी के रास्ते में बड़ी बाधा बन कर खड़े हैं। बाबूलाल के समर्थक उत्साहित इसलिए हैं कि उन्हें कांग्रेस, झामुमो और राजद का साथ मिला है। इस बार कोडरमा में पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा ज्यादा वोटिंग हुई है। इस वोटिंग को महागठबंधन सरकार के खिलाफ जुटबंदी बता रहा है, तो सत्ता पक्ष के लोग इसे मोदी लहर से जोड़ कर देख रहे हैं। कुल मिला करमुकाबला कांटे का हुआ है। यदि इस बार बाबूलाल कामयाब नहीं हुए, तो झारखंड की राजनीति में उनके सूरज के अस्त होने का वह सूचक होगा। जीत गये, तो महागठबंधन में वह अगली पंक्ति के नेता होंगे।
    राज्य के एक और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा इस बार खूं्टी से भाजपा के टिकट पर किस्मत आजमा रहे हैं। विधानसभा का पिछला चुनाव हारने के बाद राजनीतिक रूप से लगातार हाशिये पर धकेल दिये गये अर्जुन मुंडा के लिए यह चुनाव उनकी वापसी का दरवाजा है। भाजपा ने झारखंड में अपने भीष्म पितामह कड़िया मुंडा के स्थान पर उन्हें प्रत्याशी बनाया है। उनका मुकाबला खूंटी के दिग्गज कांग्रेसी कालीचरण मुंडा से हुआ, जो इस इलाके में गांधी के नाम से मशहूर टी मुचिराय मुंडा के पुत्र हैं। अर्जुन मुंडा को कड़िया मुंडा का आशीर्वाद ही नहीं, सक्रिय समर्थन और सहयोग भी मिला। इसके अलावा आजसू का सहयोग तो उनके पास था ही। इतना सब कुछ होने के बावजूद मतदान के बाद खुद अर्जुन मुंडा या उनके समर्थक यह दावा करने से हिचक रहे हैं कि जनता का आशीर्वाद उन्हें मिल ही गया है। यदि इस चुनाव में अर्जुन मुंडा भाजपा के लिए सीट बचाने में कामयाब होते हैं, तो फिर उनके लिए कोई भी पड़ाव कम ही होगा। लेकिन यदि ऐसा करने में वह असफल होते हैं, तो फिर झारखंड की राजनीति की मुख्य धारा में लौटने की उनकी जद्दोजहद को करारा झटका लगेगा। इसलिए कहा जा सकता है कि अर्जुन मुंडा के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का सवाल है। इसमें उनका प्रदर्शन कैसा रहा, यह 23 मई को ही पता चल सकेगा। हां, खूंटी में एक और बात स्पष्ट है। झारखंड सरकार के मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा का राजनीतिक सफर भी मुंडा की जीत-हार पर निर्भर करेगा।
    अगर अर्जुन मुंडा जीत गये, तो नीलकंठ सिंह मुंडा की बल्ले-बल्ले, हार गये तो पूरा ठीकरा नीलकंठ सिंह मुंडा के सिर फूटेगा। क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार कालीचरण मुंडा मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा के सगे भाई हैं और इसे लेकर खूंटी में तरह-तरह की चर्चाएं हैं। वैसे खूंटी के ग्रामीण इलाकों और खासकर पत्थलगड़ी वाले क्षेत्रों की वोटिंग से कालीचरण मुंडा समर्थक उत्साहित हैं। वे अपनी जीत का दावा कर रहे हैं।
    अब बात झारखंड के दिग्गज कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय की। जनता पार्टी के टिकट पर 1978 में पहली बार हटिया से विधायक के रूप में कैरियर शुरू करनेवाले सुबोधकांत सहाय की गिनती गंभीर किस्म के राजनीतिज्ञों में होती है। उन्हें कांग्रेस ने एक बार फिर झारखंड की राजधानी से प्रत्याशी बनाया। सुबोधकांत सहाय इससे पहले दो बार संसद में रांची का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं। गृह और सूचना प्रसारण मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग का जिम्मा वह संभाल चुके हैं। पिछले चुनाव में वह भाजपा के रामटहल चौधरी से पराजित हो गये थे। भाजपा ने इस बार रामटहल चौधरी के स्थान पर संजय सेठ को प्रत्याशी बनाया, जबकि रामटहल चौधरी निर्दलीय के रूप में उनके सामने थे। इस त्रिकोणीय मुकाबले में पहले यह माना जा रहा था कि चुनावी राजनीति के माहिर खिलाड़ी सुबोधकांत सहाय के मुकाबले नौसिखिये संजय सेठ का खड़ा होना मुश्किल है, लेकिन मतदान के दौरान यह आकलन पूरी तरह गलत साबित हुआ है। भाजपा प्रत्याशी ने संगठन और अपने सहयोगी आजसू की बदौलत ऐसी व्यूह रचना की, जिसमें सुबोधकांत सहाय और निर्दलीय रामटहल चौधरी बुरी तरह फंसे दिखे। रांची सीट से सुबोधकांत सहाय यदि इस बार भी कामयाब नहीं होते हैं, तो फिर कांग्रेस ही नहीं, पूरे राजनीतिक परिदृश्य से उनका गायब होना तय माना जा सकता है। और अगर जीत गये, तो कांग्रेस में कई गुणा ज्यादा उनका कद बढ़ जायेगी। वे गठबंधन के एक बड़े नेता के रूप में शुमार हो जायेंगे।
    अब बात हजारीबाग के भाजपा प्रत्याशी जयंत सिन्हा की। जयंत सिन्हा के लिए यह दूसरा चुनाव था। पहला चुनाव उन्होंने पिछली बार जीता था और उसके बाद वह केंद्र में मंत्री भी बने। पहले वित्त विभाग और फिर नागरिक उड्डयन मंत्रालय का जिम्मा उन्हें मिला। जयंत सिन्हा के बारे में कहा जा सकता है कि पहली बार वह अपने बूते चुनाव मैदान में रहे। पिछले चुनाव में उनके साथ उनके पिता यशवंत सिन्हा थे, जिन्होंने अपने पुत्र को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इसलिए उस चुनाव में जयंत सिन्हा की सफलता का अधिकांश श्रेय यशवंत सिन्हा को दिया गया। लेकिन इस बार ऐसा नहीं था। यशवंत सिन्हा के बागी तेवरों ने उन्हें न केवल भाजपा से दूर कर दिया, बल्कि जयंत सिन्हा ने भी एकाध मौकों पर अपने पिता के स्टैंड का विरोध किया। जयंत सिन्हा को कांग्रेस के गोपाल साहू और भाकपा के भुवनेश्वर प्रसाद मेहता से मुकाबला करना पड़ा। हालांकि उनके लिए राहत की बात यह रही कि कांग्रेस के प्रत्याशी गोपाल साहू हजारीबाब में मेहमान के रूप में आये और पूरे हजारीबाग का भ्रमण भी नहीं कर पाये। टिकट तो मिला, लेकिन इतना विलंब से कि वे खुद चकरा गये।
    रही-सही उम्मीद उनके होटल के कमरे से बरामद 22 लाख रुपये ने पूरी कर दी। दो-तीन दिन का समय उसमें बर्बाद हुआ। सोमवार को हुए मतदान में जनता ने जयंत सिन्हा को कितना आशीर्वाद दिया है, यह तो 23 मई को पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि जीतने पर वह राजनीति में लबी छलांग लगायेंगे। कुल मिला कर झारखंड के इन चार दिग्गजों के लिए आज का मतदान असली अग्निपरीक्षा है। अब यह देखना बाकी है कि उन्होंने इसमें सफल होने के लिए कितनी मेहनत की है और जनता ने उनकी मेहनत की कितनी कीमत लगायी है।

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