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    Home»Top Story»झारखंड की राजनीति के डार्क हॉर्स हैं सुदेश
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    झारखंड की राजनीति के डार्क हॉर्स हैं सुदेश

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskMay 27, 2019Updated:May 27, 2019No Comments11 Mins Read
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    कुर्मी वोट बैंक को सहेजा, उनका विश्वास जीता

    विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झारखंड में भाजपा से गठबंधन कर एक सीट हासिल करनेवाले सुदेश महतो झारखंड की राजनीति में फिर से प्रासंगिक हो गये हैं। कारण सुदेश ने जिस तरह न सिर्फ अपनी पार्टी के उम्मीदवार चंद्रप्रकाश चौधरी के लिए पसीना बहाया, बल्कि अपनी पकड़ वाले क्षेत्र में भी भाजपा उम्मीदवारों के लिए एड़ी-चोटी भी एक कर दिया। नतीजा रहा कि जहां महागठबंधन की मजबूत पकड़ थी, उसे भी ढीली कर दी। आइये हम बात की शुरुआत करते हैं सिल्ली से। सिल्ली एक समय में आजसू और खासकर सुदेश महतो का गढ़ माना जाता था। इस क्षेत्र में सुदेश महतो को लगातार दो चुनाव में झामुमो के हाथोें हार मिली थी। इसके बाद भी सुदेश महतो ने हार नहीं मानी और मेहनत करते गये। लोकसभा चुनाव का परिणाम साफ बताता है कि सुदेश की मेहतन सिल्ली में क्या गुल खिला गयी। यहां भाजपा के उम्मीदवार संजय सेठ को 86765 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार सुबोधकांत को यहां से झामुमो मात्र 36,174 वोट ही दिला पायी।
    यह आंकड़ा बताता है कि कैसे हाल के दिनों में सुदेश की सिल्ली में पकड़ मजबूत हुई है। वहीं दूसरी ओर लोहरदगा सीट की बात करें, तो यहां भी सुदेश का सिक्का चला। यहां विधानसभा में आजसू को हार जरूर मिली, लेकिन इस लोकसभा में इस क्षेत्र से आजसू की पकड़ एक बार फिर दिखी। वहीं विशुनपुर में भी आजसू कार्यकर्ताओं के कारण भाजपा के प्रत्याशी सुदर्शन भगत ने वोट बटोरने में कामयाबी हासिल की। इसी का नतीजा है कि लोकसभा में लोहरदगा में भाजपा का भगवा झंडा लहर पाया। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस जीत में महानायक नरेंद्र मोदी की सुनामी, मुख्यमंत्री रघुवर दास का सतत प्रयास का असर रहा, लेकिन यहां आजसू के के प्रयास को नकारा नहीं जा सकता। इन दो सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी सुदर्शन भगत के पक्ष में पड़े बंपर वोट ने कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत को हार का मुंह दिखा दिया। इसी तरह खूंटी लोकसभा सीट के अंतर्गत तमाड़ विधानसभा में भी भाजपा का कोई बड़ा चेहरा नहीं था।
    मतदान के पहले खुद भाजपा के उम्मीदवार और अन्य नेताओं को यह विश्वास नहीं था कि तमाड़ उनकी जीत का द्वार खोलेगा। बमुश्किल लोग तमाड़ से दो से चार हजार की जीत की अटकलें लगा रहे थे। लेकिन जब परिणाम आया, तो उसने कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को ऐसी पटकनी दी कि खूंटी और सिमडेगा में हाथ मजबूत करने के बावजूद यहां से भाजपा को 86,352 वोट मिले है। यानी लगभग 41 हजार मतों से अर्जुन मुंडा यहां से आगे रहे। वह भी तब, जब आजसू के विधायक विकास मुंडा बागी हो गये थे और उन्होंने कालीचरण मुंडा को जीताने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दी थी। उन्होंने तो चुनौती तक दे दी थी कि आजसू को वे यहां सांस नहीं लेने देंगे। इसे भांपते हुए सुदेश ने तमाम कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया। खुद रणनीति बनायी। जुलूस निकाला। बूथ पर अपने लोगों को तैनात किया। और परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस यहां 44,871 मत में ही सिमट गयी। यहां से कांग्रेस को अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी। यह वोट अर्जुन की जीत की राह को आसान बना गया।
    वहीं दूसरी ओर बहरागोड़ा, घाटशिला, चक्रधरपुर, ईचागढ़, मझियांव, हटिया, गोमिया, सिंदरी, खिजरी, तमाड़, रामगढ़, चंदनकियारी, सिंदरी, डुमरी, टुंडी, बेरमो, मांडर आदि विधानसभा में सुदेश की सक्रियता रंग लायी है। इस बात का भान अब भाजपा ें दिग्गजों को भी होने लगा है। अब तो चर्चा यहां तक है कि भाजपा के सुप्रीम रणनीतिकारां ने इसे चुनाव के पहले ही भांप लिया था, तभी तो सीटिंग सीट आजसू को दे दी और बदले में सुदेश के प्रभाववाले तमाम क्षेत्रों में भाजपा के प्रदर्शन को उम्दा कर लिया।

    राजनीति में सुदेश ने बनायी अलग पहचान
    सुदेश महतो ने झारखंड बनने के बाद से एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी अलग पहचान स्थापित की है। अपने गृह क्षेत्र सिल्ली से लगातार दो बार विधानसभा का चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने पार्टी के साथ-साथ अपना हौसला भी बनाये रखा। इस बार तो भाजपा से गिरिडीह सीट लेकर और जीत हासिल कर साबित कर दिया कि उनमें राजनीति के वे सारे गुर हैं, जो ऊंचाई तक पहुंचाते हैं। लोकसभा चुनाव में तालमेल होने के बाद सुदेश ने आजसू को भाजपा का सच्चा सहयोगी साबित कर दिया है। चुनाव में आजसू सुप्रीमो और पार्टी के कार्यकर्ता सभी सीटों पर भाजपा के साथ कदम से कदम मिला कर चलते दिखे। कई अवसरों पर खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सुदेश महतो को आगे किया।
    क्या है इस सक्रियता के राजनीतिक मायने
    सुदेश महतो की इस सक्रियता के कई राजनीतिक मायने हैं। उन्होंने झामुमो से कुरमी-महतो के अलग होने का संकेत बहुत पहले भांप लिया था। उन्हें यह भी पता चल गया कि आदिवासियों के बीच झामुमो की पैठ को तोड़ने से आसान कुरमी-महतो को साधना हो सकता है। सुदेश ने इसी अनुरूप अपनी रणनीति बनायी और सुनियोजित तरीके से उन्होंने झामुमो को कमजोर करने की बजाय खुद को मजबूत करने का अभियान शुरू किया।
    ऐन चुनाव से पहले उन्होंने राज्य के पांच हजार से अधिक गांवों की पदयात्रा की। इस दौरान उन्होंने उन इलाकों पर विशेष ध्यान दिया, जो कुरमी-महतो बहुल थे। इसका सकारात्मक परिणाम भी चुनाव में नजर आया। जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई और भाजपा ने झारखंड की सभी 14 सीटें जीतने के लक्ष्य के साथ मैदान में आयी, तो उसके पास सुदेश महतो जैसा विश्वस्त सहयोगी था। झारखंड के बारे में यह हकीकत सभी जानते हैं कि यहां की राजनीति में कुरमी-महतो की उपेक्षा की कोई जगह नहीं है। भाजपा के पास कुरमी-महतो नेता के रूप में रामटहल चौधरी का चेहरा था, लेकिन रांची से उन्हें टिकट नहीं मिला, तो वह बागी बन गये। ढुल्लू महतो और विद्युत वरण महतो भी इसी समुदाय के हैं, लेकिन उनकी स्वीकार्यता हर क्षेत्र में नहीं है। ऐसी स्थिति में भाजपा यह भांप गयी कि रामटहल चौधरी की बगावत के कारण पैदा हुई विपरीत परिस्थिति को वह सुदेश महतो की मदद से नियंत्रित कर सकती है। सुदेश तब तक साबित कर चुके थे कि यदि वह रामटहल चौधरी से आगे नहीं हैं, तो पीछे भी नहीं हैं।
    भाजपा नेतृत्व को उनका यह नया अवतार मंजूर करना ही था और इसका नतीजा सामने है। सुदेश को जाननेवाले कहते हैं कि भरोसा देकर पीछे हटना उनकी फितरत नहीं है। भाजपा ने उन पर भरोसा किया और आज परिणाम सबके सामने है। इस चुनाव में आजसू के कार्यकर्ताओं ने भाजपा के पक्ष में न केवल अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, बल्कि सुदेश महतो खुद भी भाजपा नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते रहे। इतना ही नहीं वह अपने कार्यकर्ताओं को एक सूत्र में बांधे रखने में भी कामयाब रहे। सुदेश महतो की इस सक्रियता को राजनीतिक हलकों में भले ही कुछ भी नाम दिया जाये, इतना तय है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के सफल प्रदर्शन का एक कारण आजसू भी है।
    सुदेश महतो ने हेमंत सोरेन को भी मारा धोबियापाट
    इस चुनाव में सुदेश महतो ने झामुमो के असंतुष्ट महतो विधायक जयप्रकाश पटेल को भी अपने पाले में किया। इस अंसोतष को भुनाने की कोशिश में सुदेश महतो ने अपनी रणनीति बनायी। यह स्पष्ट है कि झारखंड में भाजपा की सरकार का सबसे बड़ा रोड़ा झामुमो है। और सुदेश महतो की राजनीतिक यात्रा में अवरोधक भी। संथाल परगना इलाके में झामुमो की अच्छी पकड़ रही है। खैर, इस बार झामुमो का यह किला भी भाजपा ने मुख्यमंत्री रघुवर दास की सफल रणनीति से ढाह दिया है। हेमंत सोरेन और सुदेश महतो राज्य के सबसे युवा नेताओं में शुमार हैं। इस चुनाव ने जहां हेमंत सोरेन की राजनीतिक पकड़ को ध्वस्त किया, वहीं सुदेश महतो ने अपनी खोयी हुई जमीन वापस करने में कामयाबी पायी।
    चुनाव में सुदेश ने दिया रणनीतिक चतुराई का परिचय
    झारखंड में लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच कई पुराने मिथक ध्वस्त हो गये, तो कई नये समीकरण भी बने। पार्टियां और नेता लगातार अपनी ठोस भूमिका को लेकर सक्रिय दिखे। इनमें से कई तो केवल पार्टी आलाकमान को प्रभावित करने के लिए अपनी सक्रियता दिखाते रहे, लेकिन इन सभी पार्टियों से अलग आजसू पार्टी राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों पर समान रूप से सक्रिय दिखाई पड़ी। भाजपा की सहयोगी के रूप में जमीनी स्तर पर लगातार काम करती रही। आजसू की इस सक्रियता के पीछे कहीं न कहीं इसके सुप्रीमो सुदेश महतो की रणनीति दिखायी पड़ी। आज की तारीख में यदि यह कहा जाये कि सुदेश महतो झारखंड में खासकर कुर्मी बहुल क्षेत्रों में भाजपा के लिए रक्षा कवच की भूमिका में आ गये हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजनीतिक हलकों में यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर सुदेश महतो की इस अतिसक्रियता के राजनीतिक संकेत क्या हैं। क्या इसके पीछे केवल सुदेश की रणनीति है या फिर भाजपा की सोची-समझी राजनीतिक पहल। वैसे झारखंड की राजनीति के दलदल भरे परिदृश्य में सुदेश महतो ने न केवल आजसू को मजबूती से खड़ा किया है, बल्कि इस चुनाव में अपनी रणनीतिक चतुराई का परिचय भी दिया है।
    भाजपा ने सुदेश के सहारे खेला महतो कार्ड
    झारखंड में भाजपा ने लोकसभा चुनाव के लिए एक बार फिर महतो कार्ड खेला। पुराने सहयोगी दल आजसू पार्टी से चुनावी तालमेल किया। झारखंड में लगभग 16 फीसदी कुर्मी मतदाता हैं। झारखंड बनने के बाद कुर्मी महतो के व्यापक जनाधार वाले नेताओं की जगह भरने के लिए सुदेश महतो आगे बढ़े तो उनके जुझारूपन से खासतौर से कुर्मी युवा बेहद प्रभावित हो गये थे। नतीजतन उनकी राजनीति ऐसी चली कि अर्जुन मुंडा को उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। बाद में सुदेश की चमक थोड़ी कम जरूर हुई, लेकिन इस बार फिर सुदेश झारखंड की राजनीति में डार्क हॉर्स बनकर उभरे हैं।
    लगातार चार चुनाव हारने के बाद आजसू की जबरदस्त वापसी
    लगातार चार चुनाव (एक लोकसभा, एक विधानसभा, दो विधानसभा उपचुनाव) हारने के बाद आजसू ने लोकसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की है। गिरिडीह सीट को अपने खाते में कर जनाधार भी बढ़ाया है। यह जीत आजसू के लिए संजीवनी का भी काम करेगी। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो खुद रांची सीट से चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद से हार का सिलसिला जारी रहा। विधानसभा चुनाव में सुदेश को अपनी परंपरागत सीट सिल्ली गंवानी पड़ी। दोबारा इस सीट पर उपचुनाव हुआ, इसमें भी सुदेश को हार का सामना करना पड़ा। गोमिया विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी के उम्मीदवार लंबोदर महतो दूसरे स्थान पर रहे। इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए आजसू की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। पिछली हार से सबक लेते हुए आजसू सुप्रीमो ने अपनी कुशल रणनीति का परिचय दिया। क्षेत्रीय दल होने के नाते पहले गिरिडीह के सभी विधानसभा क्षेत्रों में कैडर स्ट्रक्चर को मजबूत किया। मजबूत जनाधार रखनेवाले माधवलाल सिंह को अपने पक्ष में किया। बेरमो में राजेंद्र सिंह की मजबूत पकड़ में सेंधमारी की। लगभग 2300 बूथ में 57500 कार्यकर्ताओं को तैयार किया। इन सब तैयारियों से भाजपा आलाकमान को अवगत कराया। इसके बाद भाजपा आलाकमान ने अपने सीटिंग एमपी रवींद्र पांडेय का टिकट काट यह सीट आजसू को दे दी। टिकट मिलने के बाद आजसू नेतृत्व ने स्टेप बाई स्टेप सभी का समर्थन हासिल किया। वहीं गिरिडीह की छह विधानसभा सीटों पर भी आजसू का जनाधार बढ़ा है। टुंडी 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में पूर्व सांसद रवींद्र पांडेय ने 40313 वोट से जीत हासिल की थी, लेकिन पांच साल बाद स्थिति और बदल गयी, चंद्रप्रकाश चौधरी ने 6,48,277 वोट हासिल किया। उनके प्रतिद्वंद्वी जेएमएम के जगरनाथ महतो को 3,99,930 वोट मिले। इस हिसाब से चंद्रप्रकाश चौधरी ने 2,48,347 वोट से जीत हासिल की। चंद्रप्रकाश को 50.57 फीसदी मत मिले, जबकि जगरनाथ महतो को 36.13 फीसदी ही वोट मिले। आजसू की कुर्मी मतदाताओं पर पकड़ का जीता जागता उदाहरण यह है कि खुद जगरनाथ महतो कुर्मी बहुल अपनी विधानसभा सीट से 30 हजार वोट से चुनाव हार गये।
    राजनीति के गलियारे में सुदेश महतो की चर्चा विपक्षी भी दबी जुबां से कर रहे हैं। उनकी रणनीति को सराहा जा रहा है। इसके पीछे का कारण है कि भाजपा के साथ मिल कर सुदेश महतो और उनकी आजसू ने ईमानदारी से काम किया और अपना पूरा का पूरा वोट 13 सीटों पर भाजपा के लिए ट्रांसफर कराया। वहीं महागठबंधन में दलों का मिलन तो हुआ, लेकिन जमीनी स्तर पर नेता वोट को ट्रांसफर कराने में सफल साबित नहीं हो पाये हैं। झारखंड की कई सीटों पर इसका जीता जागता उदाहरण लोकसभा चुनाव का परिणाम दे रहा है।

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