लोकसभा के इस चुनाव ने कई नये राजनीतिक समीकरणों को आकार लेते देखा है। अभी इसमें बहुत कुछ होना बाकी है। चुनाव में मतदाताओं की भूमिका अंतिम चरण में है। अब झारखंड में केवल दो चरणों के चुनाव बाकी हैं। चुनाव परिणाम 23 मई को घोषित होगा और उसके बाद की राजनीतिक परिस्थितियों की तैयारियां भी शुरू कर दी गयी हैं। इसलिए अब समय है कि इस चुनाव में मिली सीखों पर नजर दौड़ायी जाये। झारखंड में इस चुनाव ने कई रंग दिखाये, कई नये मुकाम हासिल किये। इन तमाम रंगों में एक रंग यह भी सामने आया है कि झारखंड के अधिकांश दलों की गतिविधियां अब एक चेहरे के आसपास केंद्रित हो गयी हैं, यानी ये दल ‘वन मैन शो’ होकर रह गये हैं। इन दलों की हालत यह है कि इनके पास उस चेहरे के अलावा दूसरा कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसकी स्वीकार्यता पूरे प्रदेश में हो या उस दल के लोग ही किसी दूसरे व्यक्ति को अपने कार्यक्रम में बुलाने के इच्छुक हों। यह स्थिति क्षेत्रीय दलों में तो है ही, भाजपा की भी यही स्थिति है। केवल कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जिसमें एक भी ऐसा नेता नहीं है, जो दल में सर्वमान्य हो।
सबसे पहले बात करते हैं झारखंड के सबसे बड़े और सबसे पुराने क्षेत्रीय दल झारखंड मुक्ति मोर्चा की। शिबू सोरेन द्वारा स्थापित इस पार्टी में आज केवल एक नेता की पूछ होती है और वह हैं शिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी सह पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। पार्टी के हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में हेमंत सोरेन की उपस्थिति अनिवार्य नहीं, तो आवश्यक मानी जाती है। पिछले दो साल में पार्टी का शायद ही कोई ऐसा कार्यक्रम हुआ हो, जिसमें हेमंत सोरेन खुद शामिल नहीं हुए हों। इतना ही नहीं, राजनीतिक फैसलों से लेकर रणनीति तक और चुनाव प्रबंधन से लेकर प्रचार तक में केवल हेमंत सोरेन की ही भूमिका होती है। यही कारण है कि आज झामुमो का हर छोटा-बड़ा नेता अपने कार्यक्रम में हेमंत सोरेन की उपस्थिति ही चाहता है। झामुमो का एक दौर वह भी था, जब शिबू सोरेन के बाद सूरज मंडल, साइमन मरांडी, प्रो स्टीफन मरांडी और शैलेंद्र महतो की पहचान पूरे प्रदेश में थी। लेकिन आज झामुमो में हेमंत सोरेन के अलावा कोई दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है।
लगभग यही स्थिति बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो की है। झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी आज निर्विवाद रूप से झारखंड के गंभीर और प्रतिष्ठित राजनेता हैं। जहां तक झाविमो का सवाल है, तो वह पार्टी के पर्याय बन चुके हैं। पार्टी की हर सभा, हर कार्यक्रम और हर फैसले में केवल बाबूलाल मरांडी की मौजूदगी होती है। पिछले पांच साल में बाबूलाल मरांडी भी अपनी पार्टी के अंदर कोई ऐसा चेहरा विकसित नहीं कर सके, जिसकी लोकप्रियता या छवि पूरे प्रदेश में हो।
इसका परिणाम यह हुआ कि झाविमो का हर कार्यकर्ता केवल बाबूलाल मरांडी को ही नेता मानता है। वह अपने कार्यक्रम में न तो किसी दूसरे नेता को बुलाना चाहता है और न ही किसी दूसरे को वह नेता मानने के लिए तैयार है। झाविमो के लिए अब बाबूलाल मरांडी पर इतनी अधिक निर्भरता महंगी पड़ने लगी है। पूरे चुनाव के दौरान वह अकेले ही प्रचार भी करते रहे और कोडरमा से खुद भी लड़े।
अब बात आंदोलन की उपज आजसू पार्टी की। आजसू पार्टी का केवल एक चेहरा है और वह है सुदेश महतो। वास्तव में सुदेश महतो न केवल आजसू पार्टी के पर्याय बन गये हैं, बल्कि अपनी पार्टी के वह अकेले ऐसे नेता हैं, जिनकी पहचान पूरे राज्य में है। वैसे आजसू में गिनाने के लिए नाम तो कई हैं। लेकिन उन चेहरों पर दल के लोगों का विश्वास ही नहीं होता। उनमें वह कांफिडेंस भी नहीं है। यही कारण है कि चाहे भाजपा के बड़े नेताओं की सभा हो, पदयात्रा हो या आजसू पार्टी का कोई अन्य कार्यक्रम, उसमें सुदेश महतो की मौजूदगी अनिवार्य शर्त मानी जाने लगी है। यदि किसी कार्यक्रम में सुदेश महतो किसी भी कारण से शामिल नहीं हो सके, तो न केवल आयोजकों को, बल्कि आम लोगों को भी निराशा होती है।
दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा की हालत भी झारखंड में इन क्षेत्रीय दलों से अलग नहीं है। देश स्तर पर ऐसी बात नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, रामलाल, भूपेंद्र यादव, धर्मेंद्र प्रधान, रविशंकर प्रसाद, स्मृति इरानी सरीखे कई नेता हैं, जिनकी गिनती राष्टÑीय स्तर पर होती है। यानी उन्होंने अपनी प्रतिभा निखारी है और पार्टी के अनुरूप अपने को ढाला है। लेकिन झारखंड भाजपा में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां अकेले मुख्यमंत्री रघुवर दास भाजपा के खेवनहार बन गये हैं। पार्टी के किसी भी तरह के आयोजन में कार्यकर्ताओं की यही इच्छा होती है कि उसमें मुख्यमंत्री रघुवर दास जरूर शिरकत करें। लोकसभा चुनाव के दौरान भी यही देखा जा रहा है। राष्टÑीय नेताओं के बाद प्रत्याशी झारखंड से सिर्फ और सिर्फ रघुवर दास की सभा चाहते हैं। सभा के अलावा रोड शो में भी उन्हीं की डिमांड है। वैसे भाजपा के पास प्रदेश स्तरीय संगठन है, इसमें अध्यक्ष से लेकर महामंत्री मंत्री, उपाध्यक्ष सभी हैं, लेकिन किसी भी प्रत्याशी की तरफ से उनकी डिमांड नहीं हो रही है। उन लोगों ने अपने को इस स्तर पर नहीं ढाला है कि कार्यकर्ता उनके कार्यक्रम के लिए लालायित हों।
इन पार्टियों की अपने एक नेता पर निर्भरता का परिणाम यह हुआ है कि इस चुनाव में प्रचार से लेकर चुनाव प्रबंधन तक का सारा दारोमदार रघुवर दास पर ही टिक गया है। इससे जहां जरूरत के हिसाब से प्रचार और प्रबंधन नहीं हो पा रहा है, वहीं पूरी राजनीतिक व्यवस्था एक हद तक व्यक्तिवाद की तरफ तेजी से कदम बढ़ाने लगी है। ऐसा नहीं है कि इन नेताओं ने दूसरी पंक्ति के नेताओं को फलने-फूलने का अवसर नहीं दिया या उनकी राह का रोड़ा बने। हकीकत यह है कि इन नेताओं ने दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ने के लिए भरपूर प्रोत्साहन दिया। लेकिन उन नेताओं ने अपने को उस अनुरूप तैयार ही नहीं किया।
मुख्यमंत्री रघुवर दास, झामुमो के हेमंत सोरेन, आजसू के सुदेश महतो या झाविमो के बाबूलाल मरांडी ने अपनी मेहनत और कार्य क्षमता के कारण ही अपनी पहचान स्थापित की है। इस चुनाव में इन सभी नेताओं में से प्रत्येक ने डेढ़ सौ के करीब छोटी-बड़ी सभाएं की हैं। यह काम आसान नहीं है। एक ही दिन में अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों की सभाओं में मतदाताओं को आकर्षित करना आसान काम नहीं है, क्योंकि हर क्षेत्र की समस्या और मुद्दे अलग हैं। जहां तक भाजपा की बात है, झारखंड में अकेले मुख्यमंत्री रघुवर दास ने चुनावी साल में ढाई सौ से अधिक सभाओं को संबोधित किया है।
जाहिर है, अगर दलों के अंदर दूसरी कतार के नेता तैयार नहीं होंगे, तो उन दलों के फैलाव में रूकावट आयेगी। एक व्यक्ति आखिर कहां-कहां, क्या-क्या करेगा। इन नेताओं को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है। अगर इन लोगों ने समय रहते दूसरी कतार के नेता तैयार नहीं किये, तो इनका खुद का काम प्रभावित होगा।