आज से करीब सवा दो सौ साल पहले 1781 में जब गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने भारत में पुलिस प्रणाली की स्थापना की थी, तब उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि दुनिया भर में चर्चित उनका यह प्रयोग खुद की वर्दी पर बदनामी के इतने दाग लगा लेगा। भारत में आम जनता के बीच पुलिस की छवि एक ऐसी खौफनाक संगठन की बनती जा रही है, जो आम लोगों की दोस्त नहीं, शोषक है। झारखंड में पिछले पांच साल के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनसे पुलिस की खाकी वर्दी पर गहरे दाग लगे और उसकी खौफनाक छवि कुछ और गहरी हुई। इस छवि को बनाने के लिए पुलिस के कुछ अधिकारी और कर्मी ही जिम्मेवार रहे, जिन्होंने अपना रौब गांठने या फिर अपना हित साधने के लिए अपनी वर्दी का बेजा इस्तेमाल किया। रांची का प्रीति हत्याकांड, बकोरिया फर्जी मुठभेड़ कांड या फिर बुंडू का रूपेश स्वांसी हत्याकांड हो, या हाल ही में चर्चित धनबाद का गांजा प्लांट कांड, कुछ अधिकारियों-कर्मियों के कारण झारखंड पुलिस की वर्दी दागदार होती रही। ऐसा भी नहीं है कि पुलिस में अच्छे अधिकारियों-कर्मियों की कमी है या हर अधिकारी ऐसा ही है, लेकिन अपने ही कुछ साथियों के कारण पूरे पुलिस बल को कठघरे में खड़ा होना पड़ता है। अपराध रोकने और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बने पुलिस बल की इस खौफनाक छवि बनाने के लिए जिम्मेवार अधिकारी- कर्मी राजनीति और अपराध को सहयोगी बनाते हैं और फिर अपना स्वार्थ साधते हैं, बेकसूर लोगों पर जुल्म ढाते हैं। पुलिस के इस खौफनाक चक्र का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष पेशकश।
आज से करीब तीस साल पहले, जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था, भारतीय पुलिस सेवा के एक युवा अधिकारी अरविंद पांडेय रांची में तैनात किये गये थे। उन्होंने पुलिस शब्द का विश्लेषण किया था, जो इस प्रकार था- पुलिस, यानी पुरुषार्थ, लिप्सा रहित और सहयोगी। तब लोगों को पहली बार पुलिस का मतलब पता चला था, लेकिन आज कुछ पुलिस अफसरों के कारनामों के कारण उसका नाम लेते ही ऐसी छवि मन में उभरती है, जो खौफनाक और खतरनाक है। करीब 10 साल पहले हिंदी में एक फिल्म बनी थी, जिसका नाम था सिंघम। बाजीराव सिंघम नामक पुलिस इंस्पेक्टर इसका नायक था। फिल्म के अंतिम दृश्य में वह कहता है, बड़े बुजुर्ग कह गये हैं कि पुलिसवालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी। आज चंद पुलिस अधिकारियों के कारण लोग पुलिस को न तो पुरुषार्थी मानते हैं, न लिप्सा रहित और न सहयोगी।
झारखंड में पिछले पांच साल के दौरान पुलिस के कुछ अधिकारियों ने जिस तरह अपने पद, प्रतिष्ठा और ताकत का बेजा इस्तेमाल किया, उसके कारण ही पुलिस की यह छवि बन गयी है। चाहे 2014 का प्रीति हत्याकांड हो, जिसमें तीन बेकसूर युवकों को उस लड़की की हत्या के आरोप में जेल भेज दिया गया, जो कभी मरी ही नहीं थी। इसी तरह 2015 में बकोरिया में 12 निर्दोष ग्रामीणों को नक्सली बता कर गोलियों से भून दिया गया। अगले ही साल बुंडू के रूपेश स्वांसी नामक किशोर को थाना हाजत में पीट-पीट कर मार दिया गया। जब ये वारदात हुए, पुलिसकर्मियों को शाबासी मिली, लेकिन बाद में जब असलियत खुली, तो खाकी वर्दी पर दाग ही लगे। इसी तरह पिछले साल धनबाद में एक घटना हुई, जिसकी कलई अब खुल रही है, तो पता चल रहा है कि पुलिस अपना स्वार्थ साधने के लिए किसी तरह का कुचक्र रच सकती है। एक निर्दोष व्यक्ति को फंसाने के लिए उसकी गाड़ी में गांजा रखवाया जाता है और फिर उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता है। उसका कसूर केवल इतना था कि उसने बंगाल पुलिस के एक अधिकारी की कथित प्रेमिका से शादी रचा ली थी। उस निर्दोष को फंसाने और अपना हित साधने के लिए थाना प्रभारी से लेकर एडीजी स्तर तक के अधिकारी सक्रिय हो गये और जिन अपराधियों पर लगाम लगाने की जिम्मेवारी उन्हें दी गयी थी, उन्हें ही सहयोगी बना लिया। अब जब इस घटना की असलियत सामने आने लगी है, तब पता चलता है कि झारखंड पुलिस का एक वर्ग कितना नीचे गिर चुका है और पैसा-पावर के बल पर किस तरह का नेटवर्क इसने स्थापित कर लिया है। इतना ही नहीं, इस नेटवर्क ने राज्य के काबिल और ईमानदार छवि के अधिकारियों को हाशिये पर रखने के लिए पूरी ताकत लगा दी। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे सभी तेज-तर्रार अधिकारी केवल फाइलों पर दस्तखत करने के लिए ही रह गये।
इस पूरे मामले ने पुलिस-अपराधी गंठजोड़ का खुलासा तो किया ही है, साथ ही यह भी साबित कर दिया है कि बेलगाम पुलिस किसी सभ्य समाज के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकती है। कुछ पुलिस अधिकारी किसी अंडरवर्ल्ड गिरोह की सरगना की तरह काम करने लगते हैं और अपराधियों की तरह रंगदारी वसूल कर अकूत संपत्ति हासिल कर लेते हैं। धनबाद के गांजा प्लांट कांड ने पुलिस का वह चेहरा उजागर किया है, जिसे देख कर नहीं, बल्कि सोच कर ही आम लोगों को डर लगने लगा है। इतना ही नहीं, इस कांड ने झारखंड पुलिस के उस नेक और मानवीय चेहरे को भी ढंकने का प्रयास किया है, जो लोगों को नि:स्वार्थ भाव से खाना खिला रहा है, कोरोना संकट के इस दौर में लोगों की मदद कर रहा है और जरूरत की दवाइयां-सामान पहुंचाने में लगा हुआ है।
अब भी समय है, जब पुलिस की इस छवि को बदलने का ईमानदार प्रयास शुरू होना चाहिए। झारखंड पुलिस के वर्तमान मुखिया के सामने यह चुनौती है कि वे आम लोगों से सीधे जुड़े रहनेवाले अपने बल की आदर्श छवि को कैसे बदलते हैं। इस दिशा में बहुत से प्रयास सामने आये हैं, लेकिन केवल दागदार अधिकारियों को हटाने भर से काम नहीं चलेगा।
इस नेटवर्क को खत्म करने के लिए जरूरी है कि ऐसे अधिकारियों को दंडित भी किया जाये, ताकि लोगों को यह महसूस हो कि बदलाव हो रहा है। जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक कम से कम ऐसे दागी पुलिस अधिकारियों को जनता से जुड़ा कोई काम नहीं दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा हो गया, तो फिर झारखंड पुलिस का नाम ही होगा और बदनामी का दाग धुलेगा, जैसा कि सिंघम फिल्म के अंत में पुलिस कमिश्नर विक्रम पवार कहते हैं, अगले 24 घंटे तक गोवा पुलिस किसी वीआइपी या राजनेता के लिए काम नहीं करेगी, बल्कि यह वही करेगी, जो इसे सही लगता है।