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    Home»Top Story»क्या तमिलनाडु में बीजेपी ने बिगाड़ा एआईएडीमके का खेल?
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    क्या तमिलनाडु में बीजेपी ने बिगाड़ा एआईएडीमके का खेल?

    sonu kumarBy sonu kumarMay 3, 2021Updated:May 3, 2021No Comments6 Mins Read
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    तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के नतीजों की सबसे ख़ास बात, मुख्यमंत्री इदापड्डी पलानिस्वामी की अगुआई में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) का प्रदर्शन अच्छा रहा है.

    पिछले एक दशक से प्रदेश में शासन कर रही पार्टी ने सत्ता विरोधी लहर के बावजूद जैसा प्रदर्शन किया उससे राजनीतिक पर्यवेक्षक पलानिस्वामी की तारीफ़ करने को मजबूर हो गए, क्योंकि ये पलानिस्वामी ही थे जिन्होंने अपने अकेले दम पर पार्टी के लिए प्रचार अभियान चलाया था.

    वहीं उन्हें चुनौती देने वाले उनके विरोधी डीएमके के चुनाव अभियान को एमके स्टालिन, कनिमोई और उदयनिधि मिलकर चला रहे थे.

    लेकिन, इस समय तमिलनाडु के राजनीतिक हलकों में सबसे बड़ा सवाल ये घूम रहा है कि, क्या एआईएडीएमके के लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करने की राह में उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी बाधा बन गई? हालाँकि बीजेपी ने चुनाव में चार सीटों पर जीत हासिल की है जिसे तमिलनाडु में पार्टी के प्रदर्शन के लिहाज़ से बड़ी बात माना जा रहा है.

    ज़्यादातर राजनीतिक पर्यवेक्षक और एआईएडीएमके के सदस्य इस सवाल का जवाब हां में दे रहे हैं.

    राजनीतिक विश्लेषक एस मुरारी ने बीबीसी हिंदी से कहा कि, “ये साफ़ है कि बीजेपी ने एआईएडीएमके को नुक़सान पहुंचाया. एआईएडीएमके सरकार के ख़िलाफ़ जनता में कोई ख़ास नाराज़गी नहीं दिख रही थी. लेकिन, लोगों के बीच बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ नाराज़गी साफ़ नज़र आ रही थी.”

    एआईएडीएमके ने पश्चिमी तमिलनाडु में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है. लोगों के बीच, तमिलनाडु के इस इलाक़े को कोंगू बेल्ट के नाम से जाना जाता है. यहां पर गोउंडर जाति के लोगों की तादाद सबसे अधिक है.

    मुख्यमंत्री पलानिस्वामी इसी जाति से आते हैं. एआईएडीएमके ने उत्तरी तमिलनाडु में भी अच्छा प्रदर्शन किया है, जहां पर वान्नियार समुदाय का दबदबा है. यहां पर एआईएडीएमके ने वान्नियार समुदाय की पार्टी पीएमके से गठबंधन किया था.

    जयललिता के उत्तराधिकारी

    पलानिस्वामी ने एआईएडीएमके सुप्रीमो और कद्दावर नेता जे जयललिता के निधन के बाद मुख्यमंत्री का पद संभाला था. सत्ता में आने के साथ ही, पलानिस्वामी का जयललिता की क़रीबी रहीं शशिकला और उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरण से संघर्ष शुरू हो गया था.

    पलानिस्वामी क़रीब दो साल तो इसी सियासी लड़ाई में उलझे रहे थे. उसके बाद, 2019 में कहीं जाकर पलानिस्वामी, मुख्यमंत्री के तौर पर सही तरीक़े से काम शुरू कर पाए थे. उन्हें केंद्र की बीजेपी सरकार से सहयोग ज़रूर मिला था.

    लेकिन, जैसा कि मुरारी कहते हैं, “बीजेपी का यही साथ पलानिस्वामी के लिए राजनीतिक बोझ भी साबित हुआ.”

    मुरारी ने कहा कि, “तमिलनाडु के पुराने केंद्र विरोधी रुख़ (जो 1967 में हिंदी विरोधी आंदोलन से शुरू होकर लगातार बना हुआ है) में इस बार मोदी से नाराज़गी भी शामिल हो गई थी. तमिलनाडु में चारों तरफ़ बीजेपी के प्रति नाख़ुशी दिख रही थी.”

    एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक डी सुरेश कुमार ने बीबीसी हिंदी से कहा कि, “अगर एआईएडीएमके ने बीजेपी के आगे घुटने नहीं टेके होते, तो विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन निश्चित रूप से और बेहतर होता. एआईएडीएमके ने बीजेपी को 20 सीटें दी थीं, लेकिन बीजेपी की जीत का स्ट्राइक रेट 20 प्रतिशत ही दिख रहा है.”

    बल्कि, सच तो ये है कि अपने प्रचार अभियान के दूसरे चरण में डीएमके के नेता स्टालिन ने बार बार यही बात दोहराई थी कि ‘एआईएडीएमके को वोट का मतलब बीजेपी को वोट है.’

    यहां तक कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब मोदी ने ज़बरदस्त जीत हासिल की थी, तब भी तमिलनाडु में मोदी मैजिक बिल्कुल नहीं चला था और बीजेपी अपने साथ-साथ एआईएडीएमके को भी ले डूबी थी.

    डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन की तस्वीर के साथ एक समर्थक

    सुरेश कुमार इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजों की तुलना 2004 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से करते हैं. तब डीएमके राज्य की सभी 39 लोकसभा सीटें जीत ली थीं. उस समय भी एआईएडीएमके को बीजेपी के साथ गठबंधन का नुक़सान उठाना पड़ा था.

    उसके बाद 2006 में जयललिता ने 60 से अधिक सीटें जीती थीं. सुरेश कुमार कहते हैं कि, “ऐसा लग रहा है कि इस चुनाव में पलानिस्वामी ने जयललिता के उस समय के प्रदर्शन से बेहतर कर दिखाया है.”

    लेकिन, तमिलनाडु का चुनावी इतिहास बताता है कि, एम जी रामचंद्रन (मशहूर फिल्म अभिनेता और एआईएडीएमके के संस्थापक) के ज़माने से ही एआईएडीएमके कभी भी अपने वोट बीजेपी को दिलाने में सफल नहीं रही है.

    थिंक टैंक, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की चेन्नई इकाई के निदेशक एन सत्यमूर्ति ने बीबीसी हिंदी को बताया कि, “आपने ध्यान दिया होगा कि इस बार तो एआईएडीएमके के उम्मीदवारों ने अपने चुनाव अभियान में मोदी की तस्वीर तक का इस्तेमाल नहीं किया.”

    सत्यमूर्ति ने कहा कि, “तमिलनाडु के मतदाताओं को अपनी रोज़ी-रोटी की फ़िक्र ज़्यादा है. बीजेपी ने अपने विभाजनकारी राजनीतिक दाँव ख़ूब आज़माए थे. पार्टी ने वेल यात्रा का दांव भी आज़माया और देवता मुरुगन के नाम का भी इस्तेमाल किया. सच तो ये है कि चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए तगड़ा झटका हैं.”

    लेकिन, बीजेपी के तमिलनाडु के प्रभारी महासचिव सीटी रवि ने बीबीसी हिंदी से कहा कि चुनाव के नतीजे असल में बिल्कुल अलग कहानी कह रहे हैं.

    उन्होंने आगे कहा कि, “ये तो हम थे, जिसके चलते एआईएडीएमके इतना अच्छा प्रदर्शन कर सकी. अगर आप इस पैमाने पर कस कर देख रहे हैं कि हमने एआईएडीएमके को नुक़सान पहुंचाया, तो ये बताइए कि हम पड़ोस के पुद्दुचेरी में कैसे सत्ता में आ रहे हैं?”

    केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी में बीजेपी ने ज़बरदस्त प्रदर्शन किया है. वहाँ एनआर कांग्रेस के अध्यक्ष एन रंगास्वामी की अगुवाई वाले बीजेपी गठबंधन ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली है.

    सीटी रवि कहते हैं कि, “दस साल तक तमिलनाडु में राज करने के बावजूद एआईएडीएमके ने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया है. लेकिन, ऐसा नहीं है कि एआईएडीएमके ने ये कामयाबी बिना बीजेपी के सहयोग के हासिल की है. हमें अभी चुनाव के नतीजों का और विश्लेषण करने की ज़रूरत है. हमें देखना होगा कि शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरण की पार्टी ने कितने वोट हासिल किए और इससे एआईएडीएमके को कितना नुक़सान पहुंचा.”

    इस चुनाव का एक और दिलचस्प पहलू ये है कि बीजेपी के कई उम्मीदवारों ने कुछ सीटों पर बढ़त हासिल की है. लेकिन, पार्टी के नेता मानते हैं कि इसके पीछे सहानुभूति के वोट हो सकते हैं. क्योंकि, बीजेपी के नेता कई दशकों से इन विधानसभा क्षेत्रों में मेहनत करते आ रहे थे.

    कुल मिलाकर कहें कि इस बार तमिलनाडु में बीजेपी ने एआईएडीएमके के लिए वैसी ही भूमिका निभाई है, जिस तरह 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके को नुक़सान पहुंचाया था.

    इसी वजह से इस बार डीएमके ने कांग्रेस को केवल 25 सीटें दी थीं, वो भी राहुल गांधी के दख़ल देने के बाद.

    ये एक और चुनाव है, जब तमिलनाडु के मतदाताओं ने राष्ट्रीय दलों के प्रति अपनी उस चिढ़ को ज़ाहिर किया है, जो 1960 के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलन से चली आ रही है.

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