कड़वे दंश झेलकर भी कभी विचलित नहीं हुए
एकीकृत बिहार से लेकर झारखंड के इतिहास में कोयले की राजनीति का हमेशा से बड़ा महत्व रहा है। खास कर कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद से काले हीरे ने राजनीति में अहम भूमिका अदा की है। इस उद्योग से जुड़े लाखों मजदूर और फिर इस्पात तथा अन्य दूसरे उद्योगों के मजदूरों को संगठित करने में कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंटक, यानी इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने बड़ी भूमिका निभायी है। पार्टी के कई नेता मजदूर आंदोलन के रास्ते कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति तक पहुंचने में कामयाब हुए। लेकिन इसमें कम ही ऐसे नेता हुए, जिन्होंने सच्चे अर्थों में मजदूरों की राजनीति की और हमेशा खुद को मजदूर समझा। राजेंद्र प्रसाद सिंह ऐसी ही एक शख्सियत थे। वह इंटक के रास्ते मजदूर आंदोलन से जुड़े और अपनी मेहनत और लगन के बल पर एक-एक मुकाम हासिल करते गये। जीवन के आखिरी दिनों में भी वह हमेशा मजदूर हित की बात करते थे, उनके लिए चिंतित रहते थे। ऐसा नहीं है कि समाज के दूसरे वर्ग में वह लोकप्रिय नहीं थे। अपने सौम्य स्वभाव, हर किसी को समुचित सम्मान देना और मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी धैर्य बनाये रखना उनकी पहचान थी। यही कारण है कि उनके निधन के एक साल बाद भी बेरमो-फुसरो समेत मजदूरों की पूरी जमात और आम लोग राजेंद्र बाबू को खूब याद करते हैं। उनकी पहली पुण्यतिथि पर प्रस्तुत है आजाद सिपाही का विशेष आयोजन। उनकी यादों पर प्रकाश डाल रहे हैं बेरमो इलाके के प्रतिष्ठित पत्रकार और समाजसेवी सुबोध सिंह पवार ।
राजनीति में विरले ही ऐसा पैदा होते हैं, जो खुद को किसी दूसरे के मजबूत सांचे में ढालकर तैयार करते हैं। ऐसे भी देखने को कम मिलते हैं कि विरोध की तेज आंधी के बीच बिना घबराये, बिना विचलित हुए और पूरी स्थिरता के साथ खड़े रहकर आंधी को गुजरने का इंतजार करते हैं। कुछ इस तरह की विशेषताओं के कारण ही राजनीतिक जीवन के 40 वर्षों के अंतराल में अपने सफर की एक-एक सीढ़ी तय करते हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे थे मजदूरों के लोकप्रिय नेता राजेंद्र प्रसाद सिंह। आज उनकी पहली पुण्यतिथि है। 2015 के विधानसभा चुनाव में पराजय के दंश झेलने के बाद 2020 के चुनाव में विजय की माला पहनते ही राजेंद्र बाबू सभी को छोड़कर अपनी अनंत यात्रा पर निकल जायेंगे, ऐसा किसी को विश्वास नहीं था। वह जब जिंदा थे, तो उनकी सहृदयता, सहज उपलब्धता और निरंतर सक्रियता हर जगह होती थी। आज जब वह नहीं हैं, तो उनकी कृति बोल रही है।
कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद ही राजेंद्र बाबू बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और कोयला श्रमिकों के निर्विवाद नेता बिंदेश्वरी दुबे के निकट आये थे। तब राजेंद्र सिंह सीसीएल की ढोरी कोलियरी में कार्यरत थे।वर्ष 1973 में राजेंद्र बाबू को बिंदेश्वरी दुबे ने राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ के सहायक सचिव के पद पर मनोनीत किया। इसके बाद तो राजेंद्र बाबू अपने पुत्रवत व्यवहार से उनके बेहद करीब आ गये। यह उस जमाने की बात है, जब कोयलांचल के बेताज बादशाह समझे जाने वाले रामाधार सिंह बेरमो के कथारा, ढोरी और बोकारो-करगली प्रक्षेत्र के सचिव पद पर कार्यरत थे। इस दीवार को भेद पाना आसान नहीं था। लेकिन अपनी विलक्षण प्रतिभा की बदौलत राजेंद्र बाबू ने बिंदेश्वरी दुबे को इस कदर विवश किया कि उन्होंने 19 जनवरी 1982 को फुसरो रेलवे स्टेशन के मैदान में एक सभा कर राजेंद्र बाबू को ढोरी एरिया के सचिव पद का कार्यभार सौंप दिया। यही उनके आगे बढ़ते रहने का प्रस्थान बिंदु बना। एक ऐसा संयोग बना कि बिंदेश्वरी दुबे वर्ष 1985 के चुनाव के ठीक पहले करगली के फुटबॉल मैदान की एक महती सभा में राजेंद्र बाबू को अपनी यूनियन के तमाम दिग्गजों को किनारे कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इसके बाद ही राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम हो गयी कि यदि दुबे जी अपनी परंपरागत विधानसभा की सीट छोड़ किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ते हैं, तो कांग्रेस के प्रत्याशी राजेंद्र बाबू होंगे। तब कांग्रेस के प्रबल दावेदारों में रामाधार सिंह, केपी सिंह और संतन सिंह के नाम शुमार थे। लेकिन जब वक्त आया, तो जिस बात की चर्चा थी, वही हुआ। 1985 के विधानसभा चुनाव में बिंदेश्वरी दुबे खुद बेरमो छोड़ बिहार के आरा जिले की शाहपुर सीट से लड़ने चले गये और बेरमो से पार्टी प्रत्याशी के रूप में राजेंद्र बाबू को मैदान में उतार दिया। दोनों जीते।
यही राजेंद्र बाबू की राजनीतिक जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बना। बिंदेश्वरी दुबे एकीकृत बिहार के मुख्यमंत्री बन गये। उनके मुख्यमंत्री बनते ही मजदूर संगठन इंटक के सभी बड़े पदों पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हो गया। फिर भी रास्ते में कई तरह की चुनौतियां थीं। तब गोपेश्वर जी, सुब्रतो मुखर्जी, कांति मेहता और एस दासगुप्ता जैसे कद्दावर नेता इंटक के महत्वपूर्ण पदों पर थे। बिंदेश्वरी दुबे के आशीर्वाद का ही कमाल था कि 90 के दशक की शुरूआत में करगली के आॅफिसर्स क्लब में इंटक से संबद्ध कोयला मजदूरों के बीच सक्रिय राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ की सीसीएल रीजनल कमेटी का महामंत्री राजेंद्र बाबू चुने गये। यह चुनाव मतदान विधि से हुआ। उनसे हार का सामना हजारीबाग के तत्कालीन सांसद दामोदर पांडेय को करना पड़ा था। इसके तुरंत बाद राजेंद्र बाबू वर्ष 1996 में इंटक के केंद्रीय महामंत्री के पद पर जा पहुंचे। सुब्रतो मुखर्जी को पद छोड़ना पड़ा। एक-एक कर टाटा वर्कर्स यूनियन, डीवीसी कर्मचारी संघ और स्टील वर्कर्स यूनियन के भी केंद्रीय महामंत्री राजेंद्र बाबू बन गये।
आंतरिक पीड़ा सहने की शक्ति गजब की थी
राजनीति के झगड़े भयानक होते हैं। उनमें चलनेवाली बहसें गर्म होती हैं। राजनीतिक संघर्ष कभी-कभी घातक भी होते हैं। किंतु राजेंद्र प्रसाद सिंह ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने तमाम विवादों में पड़ कर भी किसी पर खरोंच नहीं डाली, न ही खुद किसी खरोंच के शिकार बने। उनमें कटुता नाम की कोई चीज नहीं थी, न राजनीतिक प्रहारों ने उन पर कोई घाव छोड़ा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्ष 2013 में झामुमो के विधायक जगरनाथ महतो के साथ उनका विवाद रहा। हालांकि एक छोटे से मसले को तिल से ताड़ बना देने के कारण राजेंद्र बाबू के पुत्र और बेरमो के वर्तमान विधायक कुमार जयमंगल सिंह और जगरनाथ महतो आमने-सामने हो गये थे। एक-दूसरे को ललकारने के कारण आग इस तरह फैली कि इसकी आंच से राजेंद्र सिंह भी झुलसने से नहीं बचे। झामुमो के शक्ति प्रदर्शन के दौरान विधायक श्री महतो के न चाहने के बावजूद भीड़ में शामिल अति उत्साही उनके समर्थकों ने राजेंद्र बाबू के ढोरी स्थित आवास पर पथराव कर दिया। इस हमले से उन्हें आंतरिक पीड़ा तो हुई, लेकिन उन्होंने चुप रहकर इस विवाद को समाप्त कर दिया। इसका परिणाम यह निकला कि दोनों की कटुता कब समाप्त हुई, किसी को पता ही नहीं चला। जब 2019 में गठबंधन के प्रत्याशी पुन: राजेंद्र प्रसाद सिंह बने, तो जगरनाथ महतो ने उनकी जीत के लिए पूरी ताकत लगा दी। श्री महतो के समर्थन से उनकी आसान जीत का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
इंटक के आपसी विवाद से नुकसान हुआ
इंटक का आपसी विवाद दो दशक पुराना है। कभी राजेंद्र बाबू के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले पूर्व सांसद चंद्रशेखर दुबे उर्फ ददई दुबे ने उनके खिलाफ इस कदर मोर्चा खोला कि इंटक का दो फाड़ हो गया। इस विवाद को हवा देने का काम पूर्व सांसद फुरकान अंसारी और प्रदीप बलमुचू ने भी खूब किया। नतीजा यह हुआ कि जिस इंटक की मर्जी के खिलाफ कोल इंडिया में एक पत्ता भी नहीं हिलता था, आज वह कोल इंडिया की सभी स्तर की कमेटियों से बाहर है। मजदूरों की सर्वाधिक सदस्य संख्या होने के बावजूद प्रबंधन पर इंटक की पकड़ अब पहले की तरह नहीं रही। दोनों गुट खुद को असली साबित करने के लिए अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इसका नुकसान यह हुआ कि इंटक कोल इंडिया की जेबीसीसीआइ की बैठक से बाहर है। 10वें वेज बोर्ड की बैठक में बिना इंटक प्रतिनिधि के ही फैसले हुए। आज लोग मानने लगे हैं कि इंटक के आपसी विवाद का असर कोयला मजदूरों के आंदोलन पर भी पड़ा है। विवाद के इस अंतराल में यह देखने को मिला कि बागी नेताओं ने राजेंद्र बाबू के खिलाफ जहर खूब उगला, लेकिन उन्होंने चुप रहकर ही वक्त को गुजरने दिया। आज चंद्रशेखर गुट का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका है। सिर्फ इंतजार है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का।
उत्कृष्ट विधायक भी चुने गये थे
वर्ष 2000 में जब बिहार से झारखंड अलग हुआ, तो राजेंद्र बाबू तीन बार लगातार विधायक बन चुके थे। इसके पूर्व वर्ष 1989 में बिहार में सत्येंद्र नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में ऊर्जा विभाग और राबड़ी देवी के मंत्रिमंडल में ऊर्जा विभाग के कैबिनेट मंत्री बने। पार्टी के अंदर भी उनका कद बड़ा हो चुका था। पार्टी का सीनियर विधायक होने के कारण ही वह बिहार का विभाजन होने पर झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष बनाये गये। फिर वह लगातार चौथी बार विधायक बने। कार्यकाल की इसी अवधि में उन्हें झारखंड सरकार ने उत्कृष्ट विधायक का सम्मान दिया। 2005 में वह पहली बार भाजपा से पराजित हो गये। इसके बाद 2009 के चुनाव में फिर उनका सितारा बुलंद हुआ। वह न सिर्फ विधायक बने, बल्कि हेमंत सरकार में एक साथ कई विभागों के मंत्री भी रहे। 2014 में एक बार फिर उन्हें भाजपा से पराजित होना पड़ा। उनके जीवन का दुर्भाग्य यह रहा कि दिल्ली में आयोजित इंटक के अधिवेशन के खुले सत्र में राहुल गांधी की उपस्थिति में मंच पर ही वह पक्षाघात के शिकार होकर शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो गये। लेकिन उनके व्यक्तित्व पर असर नहीं पड़ा। इसी का नतीजा था कि 2019 के चुनाव में 25 हजार से भी अधिक मतों से भाजपा को पराजित कर उन्होंने छठी बार विधायक बनने का गौरव प्राप्त किया। लेकिन होनी को टाला नहीं जा सका और 24 मई 2020 को वह दुनिया से गुजर गये।
धूप-छांव भरा खेल रहा राजनीतिक जीवन
राजेंद्र प्रसाद सिंह का राजनीतिक जीवन धूप-छांव के खेल से भरा हुआ है। 40 वर्षों के अंतराल में वह अपनी राजनीति की निरंतर सफलता से उत्साहित जरूर हुए, लेकिन विफलता के दंश से कभी हतोत्साहित होकर घबराये नहीं। पदलिप्सा की अग्नि में तप रहे उनके अपने ही साथी नेताओं ने जब-जब विरोध का मोर्चा खोला, तब-तब वह शांत रहे। विरोध का जवाब विरोध की राजनीति से उन्होंने कभी नहीं दिया। उनके व्यक्तित्व का यही कमाल था कि उन्हें देश भर के सार्वजनिक उपक्रमों के मजदूर उन्हें अपना नैतिक संरक्षक मानते थे, जबकि प्रशासन और प्रबंधन के अधिकारी निश्छल सलाहकार। आम जनता का कल्याण चाहनेवाली संस्थाएं उनकी ओर गुरु भाव से देखती थीं, तो वहीं राष्ट्रीय खासकर हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम करनेवाले उन्हें अपना प्रेरणास्रोत समझते रहे।
सांसद बनने का सपना पूरा नहीं हुआ
राम मंदिर विवाद की तेज आंधी के बीच वर्ष 1989 में पहली बार राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लोकसभा का चुनाव गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से लड़ा, लेकिन उसमें उनकी हार हुई। अपनी ही पार्टी के नेता रहे कृष्णमुरारी पांडेय के पुत्र रवींद्र पांडेय के हाथों। यह भी राजनीति का ही चेहरा है कि तब श्री पांडेय कांग्रेस के गिरिडीह जिला अध्यक्ष थे। भाजपा ने उन्हें पहले पार्टी प्रत्याशी बनाया, बाद में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दिया। इसके बाद 1991 और 1994 के चुनाव में भी राजेंद्र बाबू को श्री पांडेय से हार का सामना करना पड़ा। इसी तरह जब उन्हें झारखंड विधानसभा में उत्कृष्ट विधायक का सम्मान मिला, तो इसके बाद हुए विधानसभा के चुनाव में वह भाजपा के अप्रत्याशित नये चेहरे योगेश्वर महतो बाटुल से हार गये। श्री बाटुल की जीत ने जितना अचंभा पैदा किया, उससे ज्यादा राजेंद्र बाबू की हार ने। इसके बाद बाटुल अगले चुनाव में हार गये, लेकिन 2014 के चुनाव में एक बार फिर वह राजेंद्र बाबू को शिकस्त देने में सफल हुए।