विशेष
-अगले साल होनेवाले आम चुनावों की तैयारी में जुट गयी पार्टी
-कर्नाटक के परिणाम के बाद फूंक-फूंक कर कदम रखने का फैसला
-पर झारखंड में पहले एक मंच पर आना होगा झारखंड के नामचीन नेताओं को

कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में पराजय झेलने के बाद भाजपा में स्वाभाविक तौर पर एक हलचल है। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उन कारणों पर पहुंचने में जुटा है, जो पार्टी की हार का कारण बने। कर्नाटक चुनाव परिणाम का दूसरा असर यह हुआ है कि भाजपा की प्रदेश इकाइयां भी अब मिशन मोड में आ गयी हैं। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अब लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गया है, तो स्वाभाविक तौर पर प्रदेश इकाइयां भी सक्रिय हुई हैं। इस क्रम में पार्टी की झारखंड इकाई में भी कुछ हलचल दिखाई देने लगी है। पहले झारखंड भाजपा को शायद आगे का रास्ता दिख नहीं रहा था या फिर वह उस पर चलने की इच्छुक नहीं दिख रही थी, लेकिन अब उसमें थोड़ी हलचल दिखने लगी है। पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में अगले एक साल का जो ब्लूप्रिंट तैयार किया गया है, उससे तो यही लगता है कि भाजपा ने झारखंड में भी ‘गुजरात मॉडल’ अपनाने का फैसला कर लिया है। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों को जीतने की रणनीति पर काम कर रहा है। पार्टी की प्रदेश इकाई अगले एक साल के दौरान राज्य के हर मतदाता से संपर्क करने के काम में जुट गयी है। इसके लिए प्रदेश अध्यक्ष से लेकर बूथ कमिटी तक के नेताओं-कार्यकर्ताओं को जिम्मेवारी दी गयी है कि वे पन्ना प्रमुख की भूमिका में आ कर अभी से काम में जुट जायें। भाजपा की यह रणनीति तो ठीक है, लेकिन झारखंड में उसके साथ समस्या यह है कि यहां के चार नेताओं के कदम एक साथ नहीं पड़ रहे हैं। जब तक इन चारों नेताओं में एका नहीं होगी, झारखंड में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकती। झारखंड भाजपा की नयी रणनीति के साथ इसकी अंदरूनी सांगठनिक स्थिति का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

भारतीय जनता पार्टी को भारतीय सियासत की ‘चुनावी मशीन’ कहा जाता है, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी हमेशा चुनावी मोड में रहती है और इसका चुनाव जीतने का ट्रैक रिकॉर्ड लगभग अपराजेय रहा है। ऐसे में जब 2024 का आम चुनाव महज एक साल दूर है, तो पार्टी के भीतर की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। हालांकि यह बात भी सही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों को चुनाव में हार-जीत का खट्टा-मीठा अनुभव भी होता रहता है, लेकिन भाजपा के शब्दकोश में चुनावी हार लगभग अस्वीकार्य माना जाता है। इसलिए पिछले सप्ताह जब पार्टी को कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, तब अचानक से उसके भीतर एक किस्म की हलचल सी दिखने लगी है। केंद्रीय स्तर पर इस हलचल को प्रदेश स्तर पर भी महसूस किया जा सकता है, खास कर उन प्रदेशों में, जहां पार्टी वापसी की जद्दोजहद में जुटी है।
भाजपा के लिए झारखंड ऐसा ही एक प्रदेश है, जो उसका मजबूत गढ़ माना जाता था, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर होने के बाद यह गढ़ दरकने लगा है। इसलिए कर्नाटक चुनाव परिणाम के तत्काल बाद झारखंड भाजपा में हलचल दिखने लगी है और पार्टी ने अभी से ही 2024 के आम चुनावों की तैयारी में जुट जाने का फैसला किया है। पार्टी ने झारखंड की सभी 14 सीटें जीतने का संकल्प व्यक्त किया है और इसके लिए उस चर्चित ‘गुजरात मॉडल’ को अपनाने का फैसला किया है, जिससे उसे पिछले साल गुजरात में रिकॉर्डतोड़ जीत हासिल हुई थी। पार्टी का मानना है कि इस मॉडल से वह झारखंड में अपने संकल्प को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी। लेकिन गुजरात और झारखंड की कहानी अलग-अलग है। गुजरात के लोग आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने सबसे करीब मानते हैं और उन्हें पाते भी हैं, इसलिए वहां कोई भी फैसला या कार्यक्रम सफलत होता है। लेकिन झारखंड की कहानी गुजरात से अलग है। यहां प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश, पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ऐसे चार चेहरे हैं, जिनके इर्द-गिर्द भाजपा के कार्यकर्ता रहते हैं। इन चारों नेताओं में कितनी घनिष्ठता है, इसका तो कोई पैमाना नहीं हो सकता, लेकिन जहां तक समर्थकों का सवाल है, चारों के कुछ समर्थक ऐसे हैं, जो सिर्फ उनकी ही सुनते हैं। केंद्रीय नेतृत्व के कार्यक्रम में या राज्य स्तरीय कार्यक्रम में भले ही ये चारों नेता एक मंच पर आते हों, लेकिन इनके बारे में आम धारणा यही बनती जा रही है अंदर ही अंदर चारों एक-दूसरे से सहज नहीं हैं।

क्या है भाजपा का गुजरात मॉडल
भाजपा के गुजरात मॉडल के तहत पार्टी राज्य के हरेक मतदाता तक पहुंचती है। इस काम में प्रदेश अध्यक्ष से लेकर बूथ लेवल तक के नेता-कार्यकर्ता जुटते हैं और केंद्रीय स्तर पर इसकी निगरानी संगठन महामंत्री के जिम्मे रहती है। पार्टी का हर नेता और कार्यकर्ता हर दिन की गतिविधि की रिपोर्ट संगठन महामंत्री को करता है। चुनाव की घोषणा होने तक यह काम पूरा हो जाना है।

झारखंड में क्या करेगी भाजपा
इसके तहत प्रदेश भाजपा के बड़े नेता भी पन्ना प्रमुख की जिम्मेदारी निभायेंगे। निचले स्तर पर संगठन को मजबूत करने के लिए पार्टी ने यह निर्णय लिया है। जिस तरह राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत समेत अन्य बड़े नेताओं को पन्ना प्रमुख बनाया गया है, उसी तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दीपक प्रकाश और विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी से लेकर केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा और अन्नपूर्णा देवी समेत अन्य सांसद-विधायक भी अपने-अपने क्षेत्रों के पन्ना प्रमुख बनेंगे। प्रदेश से लेकर जिला या मंडल स्तर तक पार्टी या मोर्चे के हर पदाधिकारी को पन्ना प्रमुख की जिम्मेदारी सौंपी जायेगी। इससे कोई अछूता नहीं रहेगा। पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी संगठन के सबसे छोटे पद पन्ना प्रमुख का काम करना होगा। बूथ कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता को एक समान दायित्व मिलेगा। मतदाता सूची के जिस पन्ने में इनका नाम है, उस पन्ने के सभी परिवार वालों की जिम्मेवारी भी इन्हें मिलेगी। मतदाता सूची के एक पन्ने में कम से कम 10 परिवारों के लोगों के नाम होते हैं। इन सबकी जिम्मेवारी पन्ना प्रमुखों की होगी। बूथ कमेटियों के गठन, पन्ना प्रमुखों की नियुक्ति और उनके कार्यों की मॉनिटरिंग सीधे प्रदेश संगठन महामंत्री कर्मवीर सिंह करेंगे। सभी लोकसभा क्षेत्रों के पन्ना प्रमुखों की नियुक्ति के बाद इनका जिलावार सम्मेलन भी होगा। पन्ना प्रमुख यह ख्याल भी रखेंगे कि उनके पन्ने में कितने लोग केंद्र सरकार की योजनाओं के लाभुक हैं, उन्हें अभी लाभ मिल रहा है या नहीं। वे घर-घर जाकर केंद्र की उपलब्धियों और राज्य सरकार की कमियों को बतायेंगे और लोगों से भाजपा को वोट देने की अपील करेंगे।

झारखंड भाजपा में यह है समस्या
सतही तौर पर भाजपा की यह रणनीति तो बेहद ठोस दिखती है, लेकिन धरातल पर स्थिति कुछ और है। झारखंड भाजपा की हालत आज ऐसी है कि यह मोदी-शाह के बाहरी आवरण में बंधे होने के कारण एक दिखाई देती है। पार्टी अंदर से कम से कम चार खेमों में बंटी हुई है। एक खेमा प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश का है, तो दूसरे खेमे का नेतृत्व विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी कर रहे हैं। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास अलग खेमे का नेतृत्व कर रहे हैं, तो केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा भी बहुत पीछे नहीं हैं। पार्टी के भीतर बिखराव की यह स्थिति पार्टी के समर्पित और पुराने नेताओं-कार्यकर्ताओं में बेचैनी पैदा कर रही है। ऐसा नहीं है कि पार्टी राजनीतिक मोर्चे पर सक्रिय नहीं है। विधानसभा के भीतर पार्टी ने विपक्ष की भूमिका शानदार तरीके से निभायी है, लेकिन आगामी चुनावों को देखते हुए पार्टी के भीतर ‘कुछ’ सुधारने की जरूरत विभिन्न स्तरों पर महसूस की जा रही है। पार्टी के भीतर यह चर्चा आम है कि जब तक इन चारों खेमों में एका नहीं होगी, कोई भी रणनीति कारगर नहीं हो सकती। इसलिए भाजपा की पहली जरूरत इन सभी खेमों को एक मंच पर लाना है। केंद्रीय नेताओं के सामने तो ये एकजुट दिखते हैं, लेकिन बाद में इनके बीच का विभाजन साफ दिखने लगता है।
इसलिए अब भी समय है कि झारखंड भाजपा खुद को पूरी तरह संगठित कर मैदान में उतरे। यदि उसे 2024 का लोकसभा चुनाव और छह महीने बाद होनेवाला विधानसभा चुनाव जीतना है, तो पार्टी को अपनी रणनीति पर नये सिरे से विचार करना होगा। पार्टी के भीतर के उथल-पुथल और अनिश्चय के वातावरण को समाप्त कर नये हौसले के साथ मैदान में उतरना होगा।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version