विशेष
-इसलिए राज्यों में कमजोर पड़ जाती है दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी
-मोदी-शाह तो आज देश भर में घर-घर में हैं, पार्टी कब तक पहुंचेगी
-कर्नाटक की हार ने पार्टी के सामने पैदा किया है यह बड़ा सवाल
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हुई पराजय के बाद से दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बेहद परेशान है। पार्टी द्वारा चुनाव प्रचार अभियान में सब कुछ झोंके जाने के बावजूद सत्ता में भाजपा की वापसी नहीं हो सकी और इसके लिए जिम्मेवार कौन है, इस पर अभी मंथन चल रहा है। कर्नाटक के बाद इस साल के अंत में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से एकमात्र मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता में है। वहां भी भाजपा के लिए स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी भोपाल यात्रा के दौरान राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाओं से इनकार नहीं किया था। कर्नाटक के चुनाव परिणाम और मध्यप्रदेश की संभावनाओं की पृष्ठभूमि में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर भाजपा में ऐसा कोई नेता क्यों नहीं उभर रहा, जो कम से कम अपने राज्य में पार्टी को विजय पथ पर ले जा सके। पार्टी में यह सवाल भी बहुत तेजी से उठने लगा है कि आखिर मोदी-शाह के बाद दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी में तीसरे नंबर का नेता कौन है। साल 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा सिर्फ सात राज्यों में सत्ता में थी, लेकिन मार्च 2018 आते-आते वह 21 राज्यों में सत्तारूढ़ हो गयी। लेकिन 2023 में स्थिति यह है कि भाजपा के हाथ से पहले झारखंड और फिर महाराष्ट्र निकल गये। आज भाजपा 12 राज्यों में सत्ता में है, जबकि महाराष्ट्र में वह सरकार में सहयोगी की भूमिका में है। राज्यों में भाजपा की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्वा सरमा के अलावा पार्टी के किसी प्रादेशिक स्तर के नेता का नाम उसके राज्य के बाहर किसी को पता नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि पार्टी पीएम नरेंद्र मोदी के जादू और चाणक्य कहे जानेवाले अमित शाह की रणनीति पर पूरी तरह निर्भर हो गयी। राज्यों के नेताओं को लगा कि जब तक मोदी हैं, उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। यूपी, उत्तराखंड और असम जैसे राज्यों में भाजपा सरकारों ने मोदी की छत्रछाया में काम किया, तो उसका नतीजा अच्छा रहा, लेकिन बाकी राज्यों में पार्टी नेताओं ने इन राज्यों से कुछ नहीं सीखा। भाजपा के लिए 2024 से पहले इस कमजोरी पर ध्यान देना जरूरी हो गयी है। भाजपा की इसी कमजोरी का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
पिछले महीने दुनिया की सर्वाधिक प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा को दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी करार देते हुए एक लेख प्रकाशित किया था। पत्रिका ने चर्चित राजनीतिक टीकाकार वॉल्टर रसेल मीड द्वारा लिखित एक लेख में कहा कि अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के दृष्टिकोण से भारतीय जनता पार्टी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विदेशी राजनीतिक पार्टी है। मीड ने लिखा कि हालांकि यह भी सच है कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के बावजूद इस पार्टी को सबसे कम समझा गया है। भारत और दुनिया के राजनीतिक और कूटनीतिक परिदृश्य में मीड का यह लेख बेहद चर्चित हो गया, क्योंकि इसमें कहा गया कि गैर-भारतीयों की बड़ी तादाद इस पार्टी को समझ नहीं पायी है, क्योंकि इसकी वृद्धि उनके लिए सर्वाधिक अपरिचित और सांस्कृतिक इतिहास में हुई है। यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि आजादी के बाद से विदेशों में भारत की जो छवि बन गयी थी, 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से उसमें आमूल-चूल बदलाव आया है। लेख में साफ किया गया कि भाजपा की चुनावी सफलता उसके सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों के आधार पर हुई है, क्योंकि वह जनता से जुड़ाव की संस्कृति का पालन करते हुए आगे बढ़ रही है। इस लेख में मीड ने भारत के राजनीतिक इतिहास की पृष्ठभूमि में भाजपा के उदय और चुनावी परिदृश्य में इसकी लगातार सफलता के कारणों का बहुत बारीकी से विश्लेषण करते हुए साफ किया है कि इसके बावजूद भारत एक उलझनों भरा देश बना हुआ है, हालांकि 2014 के बाद भारतीय कूटनीति में धीरे-धीरे बदलाव परिलक्षित हो रहा है। इसमें कितना समय लगेगा, यह अभी बताना संभव नहीं है। ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित इस लेख में भाजपा के प्रति अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण को परिभाषित करने की कोशिश की गयी थी, लेकिन चार दिन पहले घोषित कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम ने भाजपा के सामने अपने घर में एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। कर्नाटक में पराजय के बाद पार्टी के बारे में यह सवाल उठ रहा है कि अमेरिकी नजरिये से दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के के अथक परिश्रम के बाद भी पार्टी राज्यों में अपेक्षित प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रही है। कर्नाटक में हुई हार ने पार्टी को झकझोर दिया है। इसी तरह की संभावनाएं इस साल के अंत में मध्यप्रदेश में होनेवाले चुनावों के लिए व्यक्त की जा रही है। इसके अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी इस साल के अंत तक चुनाव होना है, जहां कांग्रेस सत्ता में है। वहां भाजपा सीधे मुकाबले के लिए कितना तैयार है, यह भी अहम सवाल है। अभी तक का जो परिदृश्य है, उसमें राजस्थान में प्रदेश स्तरीय कांग्रेस नेता के रूप में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और मध्यप्रदेश में कमलनाथ का नाम तो हर कोई जान रहा है, लेकिन इन राज्यों में भाजपा की नैया को कौन प्रदेश स्तरीय नेता पार ले जायेगा, इसे भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता और नेता भी नहीं जानते। इन तीन राज्यों में भाजपा के प्रदेश स्तरीय नेताओं की जो विश्वसनीयता है, उसके सहारे जंग नहीं जीती जा सकती। ऐसे में वहां के कार्यकर्ता भी एक बार फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर आश्रित होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी देश ही नहीं दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, इसे उन्हें बार-बार सिद्ध किया है, लेकिन यह भी सच है कि प्रदेश की जनता स्थानीय नेता का चेहरा भी देखना चाहेगी, जिसका फिलहाल अभाव सा दिखता है। इस सियासी माहौल में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर 2024 में लगातार तीसरी बार देश की सत्ता में वापस आने के लिए तैयार भाजपा राज्यों में कमजोर क्यों हो रही है।
क्या थी देश की सियासी तस्वीर
2018 और 2022 के बीच चार साल की अवधि में देश के 30 राज्यों में चुनाव हुए, यानी हर भारतीय राज्य में चुनाव हुआ। भारतीय राजनीति में भाजपा के प्रभुत्व को देखते हुए यह सवाल बेहद अहम हो गया लगता है कि इन 30 चुनावों में से कितने चुनाव भाजपा ने पूर्व या बाद के सहयोगियों के बिना अपने स्वयं के स्पष्ट बहुमत या बलबूते पर जीते? इन 30 में से भाजपा ने केवल सात राज्यों में अपने बूते पर जीत हासिल की। इनमें उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और गोवा शामिल हैं। इन सात में से केवल दो बड़े राज्य हैं, जिनके पास संसद के निचले सदन लोकसभा में पर्याप्त सीटें हैं।
भाजपा की कमजोरी के कारण
यूपी, असम और गुजरात के बाहर राज्यों के चुनावों को एकतरफा बनाने में भाजपा आखिर अकेले क्यों सक्षम नहीं हो पा रही है। अगर आंकड़ों पर गौर करें, तो साल 2014 में जब भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में आयी थी, तो उसी के साथ राज्यों में भी उसने बेहतर प्रदर्शन किया था। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भाजपा पूरे देश का माहौल बदलने में कामयाब रही थी। मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की थी। दूसरा यह कि आज भी गुजरात के लोग मोदी को अपने सबसे करीब मानते हैं। फिर साल 2019 के आम चुनावों में पार्टी और ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में आयी, लेकिन इन चुनावों के महज छह महीने के बाद जो विधानसभा चुनाव हुए, उसमें पार्टी पहले जैसा प्रदर्शन करने में नाकामयाब रही। इसके पीछे कारण यही रहा कि राज्यों में भी पार्टी मोदी के जादुई व्यक्तित्व को भुनाने में लग गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेताओं का अभाव होने लगा। योगी आदित्यनाथ, पुष्कर सिंह धामी और हिमंत बिस्वा सरमा को छोड़ भाजपा का कोई भी मुख्यमंत्री इस स्थिति में नहीं रह गया कि राज्य के लोगों को अपनी उपलब्धि बता सके। इतना ही नहीं, इन तीन मुख्यमंत्रियों को छोड़ कर पूरे देश में भाजपा का एक भी ऐसा प्रदेश स्तरीय नेता नहीं है, जिसकी पहचान उसके राज्य के बाहर हो। कर्नाटक में भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्वा सरमा के बाद समाप्त होने लगी थी, जबकि पार्टी केंद्र और राज्य, दोनों जगह सत्ता में थी। आज भाजपा की हालत यह है कि उत्तरप्रदेश को छोड़ कर हिंदी पट्टी के किसी राज्य में उसके पास ऐसा करिश्माई प्रादेशिक नेतृत्व नहीं है, जिसके दम पर पार्टी कम से कम उस राज्य में चुनाव मैदान में उतर सके।
भाजपा को अब समझना होगा कि अब मतदाता देश और राज्य के आधार पर अलग-अलग सोच कर वोट करता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ओड़िशा है। जहां लोकसभा में वहां के मतदाता मोदी की भाजपा को वोट करते हैं, तो विधानसभा में नवीन पटनायक को। विधानसभा चुनाव में वोट करने से पहले सोचता है कि वह राज्य की सरकार चुन रहा है या फिर केंद्र की सरकार। कर्नाटक के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा को हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में होनेवाले चुनाव के दौरान अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना होगा। पार्टी हर चुनाव में यदि मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व को ही सामने रखेगी, तो विपक्षी बार-बार यही सवाल उठायेंगे कि आपकी सत्ता दिल्ली से चलेगी या फिर राज्य से। ऐसे में भाजपा को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।