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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»मोदी के टास्क को पूरा करने के लिए खुद को झोंक दिया है बाबूलाल ने
    स्पेशल रिपोर्ट

    मोदी के टास्क को पूरा करने के लिए खुद को झोंक दिया है बाबूलाल ने

    adminBy adminMay 19, 2024No Comments10 Mins Read
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    विशेष
    दिन देखी न रात, स्वास्थ्य-परिवार की चिंता भी नहीं, सिर्फ लक्ष्य पर निगाह
    प्रदेश अध्यक्ष के रूप में 320 दिन में 184 सभाएं करना मामूली बात नहीं
    चुनाव की घोषणा के बाद से 26 दिन में 43 सभाएं, बूथ स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन की गिनती नहीं

    पूरे देश के साथ झारखंड में चुनावी गहमा-गहमी पूरे उफान पर है और राजनीतिक दलों के नेताओं को इस प्रचंड गर्मी में चुनाव प्रचार करने की बड़ी जिम्मेवारी मिली हुई है। वे इस जिम्मेवारी को निभा भी रहे हैं। लेकिन जिम्मेवारी निभाने और जिम्मेवारी को पूरा करने में एक महीन सा अंतर होता है। इसी अंतर को दुनिया के सामने रख रहे हैं बाबूलाल मरांडी, जिन्होंने महज 320 दिन पहले झारखंड प्रदेश भाजपा की कमान संभाली है। झारखंड की 14 संसदीय सीटों पर चुनाव प्रचार करनेवाले झारखंड के एकमात्र नेता हैं बाबूलाल मरांडी। उन्होंने पूरे राज्य में पिछले 320 दिन में 213 सभाएं की हैं। यह झारखंड के किसी भी नेता के लिए एक रिकॉर्ड हो सकता है। राज्य के हर विधानसभा क्षेत्र का वह दौरा कर चुके हैं और इस क्रम में वह 50 लाख से अधिक, यानी राज्य के हर सातवें व्यक्ति से मिल चुके हैं। भाजपा के जितने भी प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं, उनमें बाबूलाल मरांडी ही ऐसे हैं, जिन्होंने पार्टी के आगे परिवार को तवज्जो नहीं दी। यानी बाबूलाल मरांडी 24 घंटे पार्टी का ही लबादा ओढ़े रहते हैं। अपने स्वास्थ्य की भी वह परवाह नहीं करते। बाबूलाल मरांडी सिर्फ यात्राएं नहीं करते हैं, बल्कि झारखंड की हर छोटी-बड़ी घटना पर बारीक नजर भी रखते हैं, देश-दुनिया की सूचनाओं से अपडेट रहते हैं और राजनीति की गहरी पकड़ के कारण अलग तरह का व्यवहार करते हैं। वास्तव में यदि यह कहा जाये कि बाबूलाल मरांडी भाजपा को उसका गढ़ लौटाने के लिए अपना सब कुछ झोंक चुके हैं, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस संसदीय चुनाव का परिणाम चाहे कुछ भी हो, बाबूलाल मरांडी का नाम सबसे अधिक मेहनत करनेवाले नेता के रूप में जरूर लिया जायेगा। क्या है बाबूलाल मरांडी की खासियत और क्या हो सकता है इसका परिणाम, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    श्रीमद्भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ अर्थात, कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। लेकिन राजनीति में इस उपदेश पर बिरले ही अमल करते हैं। यहां हर नेता पहले फल देखता है, फिर उसे हासिल करने के लिए कर्म करता है। लेकिन झारखंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी इसके अपवाद हैं। वह बिना किसी फल की चिंता के अपना कर्म किये जा रहे हैं। यही कारण है कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के 320 दिन (04 जुलाई, 2023 से 18 मई, 2024) के दौरान वह झारखंड राज्य की हर संसदीय सीट और हर विधानसभा सीट का कम से कम दो बार दौरा कर चुके हैं। इतने कम समय में वह 213 सभाएं कर चुके हैं और करीब 50 लाख लोगों से सीधे बातचीत कर चुके हैं। यानी बाबूलाल मरांडी झारखंड के हर सातवें व्यक्ति से बातचीत कर चुके हैं। अध्यक्ष पद की कमान संभालते ही उन्होंने 17 अगस्त 2023 से लेकर 28 अक्तूबर 2023 तक संकल्प यात्रा के माध्यम से पूरे झारखंड को नाप लिया था। हर क्षेत्र में उन्होंने भाजपा की नीतियों, कार्यक्रमों को रखा और खुद स्थानीय समस्याओं से रूबरू हुए। कई अवसरों पर थकान के कारण उनकी आवाज भी दब जाती थी, लेकिन फिर भी वे हार नहीं मानते और गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर जनता से मिलते रहे। संसदीय चुनाव की घोषणा होने के बाद, यानी 22 अप्रैल से आज तक वह 47 सभाएं कर चुके हैं। आज देश भर में भाजपा के जितने भी प्रदेश अध्यक्ष हैं, उनमें से शायद ही कोई इतनी मेहनत करनेवाला होगा। बाबूलाल मरांडी केवल यात्राएं ही नहीं करते, बल्कि हर छोटी-बड़ी राजनीतिक-आर्थिक घटनाओं पर प्रतिक्रिया भी देते हैं और उनकी नजरों के सामने से झारखंड समेत पूरे देश-दुनिया की कोई भी घटना अछूती नहीं गुजरती। इस चुनाव का परिणाम चाहे कुछ भी हो, जब सर्वाधिक मेहनत करनेवाले नेताओं की सूची तैयार होगी, तो बाबूलाल मरांडी का नाम निश्चित रूप से अगली कतार में होगा।

    संघर्ष और कर्म का मिश्रण हैं बाबूलाल मरांडी
    बाबूलाल मरांडी झारखंड के उन राजनेताओं में शुमार हैं, जिनकी संवेदनाएं झारखंड से उष्मा पाती हैं, यहां के पहाड़ उन उष्मा से पिघलने की कोशिश करते हैं और नदियों में वही उष्मा धारा बन कर बहती है। सोते-जागते, उठते-बैठते केवल झारखंड के बारे में, यहां के लोगों के बारे में सोचना, सपने देखना और फिर उन सपनों को पूरा करने के लिए जूझना ही बाबूलाल मरांडी की दिनचर्या है। अपने राजनीतिक कैरियर में तमाम उतार-चढ़ाव झेलने के बावजूद न तो उनका संघर्ष का माद्दा कम हुआ है और न ही उनके व्यक्तित्व में कोई बदलाव आया है। वह आज भी उतने ही मृदुभाषी और मिलनसार हैं, जितने आज से 30 साल पहले थे। राजनीतिक ऊंचाई हासिल करने के बावजूद उनकी सादगी लोगों के लिए मिसाल है, तो विचारों में स्पष्टता और लक्ष्य के प्रति उनका समर्पण प्रेरणादायी है।
    बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री या झारखंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष भर नहीं हैं। वह झारखंडी लोक जीवन के जीते-जागते प्रतिबिंब हैं। आज भी बेहद सादगी से रहना, दो रोटी और दाल के सहारे दिन बिताना और झारखंड के बारे में सोचना ही बाबूलाल मरांडी को दूसरे राजनेताओं से अलग करता है। झारखंड के पिछड़ेपन और गरीबी के कारणों की जितनी सूक्ष्म व्याख्या बाबूलाल मरांडी करते हैं, उतनी शायद एक विशेषज्ञ भी नहीं कर सकता है। वह कहते हैं, झारखंड की गरीबी और पिछड़ेपन का एक कारण इसकी भौगोलिक स्थिति है। हम जब 12 घंटे का सफर तय कर सूरत या मुंबई पहुंचते हैं, वहां के लोग उससे कम समय में खाड़ी देश और अमेरिका-ब्रिटेन पहुंच जाते हैं। इसलिए विदेशों में झारखंड के लोग कम मिलते हैं।
    एक साधारण सरकारी स्कूल के शिक्षक से सांसद, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री का सफर तय करनेवाले बाबूलाल मरांडी के विचारों में यही बारीकी और स्पष्टता उन्हें प्रदेश के दूसरे नेताओं से अलग करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक के निष्ठावान स्वयंसेवक और प्रचारक के रूप में कैरियर शुरू करनेवाले बाबूलाल मरांडी का जीवन कई झंझावातों से गुजरा है।

    हमेशा राजनीति के केंद्र में रहे
    बाबूलाल मरांडी के व्यक्तित्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि वह हर परिस्थिति में राजनीति के केंद्र में रहे। इसका मुख्य कारण यह है कि चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जनता से अपना संपर्क जीवित रखा लगातार जनता के संपर्क में रहने और पूरे राज्य की यात्रा करने के कारण उन्होंने अपने राजनीतिक वजूद को मजबूत ही किया। बाबूलाल के बारे में कहा जाता है कि वह कभी हल्की बात नहीं करते और बहुत आगे की सोच कर अपनी रणनीति तैयार करते हैं। उनके बारे में यह बात भी मशहूर है कि वह किसी फैसले पर पहुंचने से पहले खूब विचार-विमर्श करते हैं, लोगों के सुझाव सुनते हैं और तब फैसले पर पहुंचते हैं। एक बार फैसला लेने के बाद पीछे नहीं हटते। राजनीति के मैदान में ऐसा कम देखने को मिलता है। बाबूलाल मरांडी सोच-समझ कर अपनी रणनीति बनाते हैं और फिर उस पर अमल करते हैं। वह जो भी मुद्दा उठाते हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाने के बाद ही दम लेते हैं। इसके कारण लोगों का भरोसा इनके प्रति है। वह यात्राओं और दौरों की मदद से लोगों से सीधा संवाद बनाते हैं। उनके पास झारखंड के विकास का एक विजन है, जिस पर वह काम करते हैं। साफ-सुथरी और स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा इनकी खासियत है। और सबसे अलग अनावश्यक सुर्खियों में रह कर वह श्रेय लेने की फिराक में नहीं रहते।

    गिरिडीह की परंपरा को आगे बढ़ाया
    11 जनवरी, 1958 को गिरिडीह के कोदाइबांक में पैदा हुए बाबूलाल मरांडी ने गिरिडीह की उस परंपरा को आगे बढ़ाया है, जिसमें कई शिक्षकों-गुरुओं ने राजनीति में अपना एक अलग मुकाम बनाया है। व्यवस्था बदलाव और शिखर तक जाने की सोच के साथ शिक्षक की नौकरी त्यागने वाले गिरिडीह के गुरुओं ने राजनीति में लंबी लकीर खींची है। रिश्वत मांगे जाने के कारण बाबूलाल मरांडी ने शिक्षक की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गये।
    बाबूलाल मरांडी का गांव गिरिडीह के बेहद पिछड़े और उग्रवादगस्त तिसरी प्रखंड में पड़ता है। इसलिए उग्रवाद के खिलाफ इनके मन में बचपन से ही नफरत है। नक्सली हिंसा को बेहद नजदीक से अनुभव करनेवाले बाबूलाल मरांडी की स्कूली शिक्षा गांव में ही हुई। बाद में उन्होंने गिरिडीह कॉलेज से इंटरमीडिएट तथा स्नातक की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मरांडी आरएसएस से जुड़ गये। मरांडी ने आरएसएस से पूरी तरह जुड़ने से पहले गांव के स्कूल में कुछ सालों तक कार्य किया। इसके बाद वे संघ परिवार से जुड़ गये। उन्हें झारखंड क्षेत्र के विश्व हिंदू परिषद का संगठन सचिव बनाया गया। 1989 में उनकी शादी शांति देवी से हुई। इनका बेटा अनूप मरांडी 2007 के गिरिडीह क्षेत्र में हुए नक्सली हमले में मारा गया था।

    शिबू सोरेन से हारे पहला चुनाव, फिर उन्हें हराया
    1991 में मरांडी ने भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। 1996 में वह फिर शिबू सोरेन से हार गये। इसके बाद भाजपा ने 1998 में विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखंड क्षेत्र की 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर कब्जा कर लिया। उस चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन को दुमका से हरा कर चुनाव जीता था। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उन्हें वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री बनाया गया। 15 नवंबर, 2000 को अलग झारखंड राज्य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्व में बाबूलाल मरांडी ने राज्य की पहली सरकार बनायी और करीब 28 महीने तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव में कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि पार्टी के अन्य उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा।

    अलग किस्म की राजनीति की
    बाबूलाल मरांडी ने हमेशा अलग किस्म की राजनीति की है। चाहे कोडरमा के अभ्रक मजदूरों का मामला हो या संथाल के विस्थापितों का, गिरिडीह में उग्रवाद का मुद्दा हो या धनबाद में अपराध का, बाबूलाल मरांडी आंदोलन के लिए पहली कतार में रहे। उग्रवाद के खिलाफ उन्होंने ‘टॉर्चलाइट अभियान’ चलाया, जिसने नक्सलियों को बुरी तरह नाराज कर दिया। अभियान के तहत बाबूलाल मरांडी ने उग्रवाद प्रभावित गांवों में टॉर्चलाइट बांटना शुरू किया था। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें अपना जवान बेटा खोना पड़ा।
    सीएम के रूप में बाबूलाल का कार्यकाल लगभग ढाई वर्षों का रहा। इस दौरान विकास और प्रशासन के मोर्चे पर उनका प्रदर्शन सराहनीय माना गया।

    अब बात 2024 में भाजपा की चुनौतियों और तैयारियों की। भाजपा जानती थी कि लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए 2019 वाला परिणाम दोहरा पाना आसान नहीं था। पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त राज्य में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार थी। अभी राज्य में झामुमो की अगुवाई वाले गठबंधन की सरकार है। इसलिए भाजपा को 2019 की तुलना में ज्यादा ताकत झोंकनी पड़ेगी। भाजपा जानती थी कि झारखंड में 2024 में 2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम दोहराने के लिए सबसे पहले आदिवासी वोट बैंक का सबसे बड़ा शेयर हासिल करना जरूरी है। इसलिए बाबूलाल मरांडी को कमान सौंपी गयी। और बाबूलाल मरांडी इस चुनौती को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ झोंक चुके हैं।

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