विशेष
-राजमहल के दरवाजे पर लोबिन का ‘लॉक’
-त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा उम्मीदवार को मिली थोड़ी राहत

झारखंड की राजमहल संसदीय सीट पर 1 जून को होनेवाला चुनाव बेहद रोमांचक होने जा रहा है। निवर्तमान सांसद विजय कुमार हांसदा और भाजपा प्रत्याशी ताला मरांडी की लड़ाई को झामुमो के बागी लोबिन हेंब्रम ने ऐसा त्रिकोण बना दिया है कि झामुमो के इस मजबूत किले में भी दरार दिखने लगी है। झामुमो द्वारा लोबिन हेंब्रम को पार्टी से निकाले जाने के बावजूद राजमहल में विजय हांसदा की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। झामुमो के इन दो कद्दावर नेताओं की लड़ाई को भाजपा प्रत्याशी ताला मरांडी अपने लिए लाभदायक मान रहे हैं और उसी के अनुसार अपनी चुनावी रणनीति पर काम कर रहे हैं। इधर लोबिन हेंब्रम ने अपना ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ भी चल दिया है। उन्होंने पार्टी से निकाले जाने के बाद खुद को झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन का ‘वारिस’ घोषित कर संथाल परगना में एक भावनात्मक हिलोर पैदा कर दिया है। अब झामुमो इसकी काट खोजने में अपनी ताकत लगा रहा है, ताकि लोबिन को बागी घोषित कर अपना रास्ता साफ कर सके, लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि लोबिन हेंब्रम की पहचान गुरुजी के सच्चे सिपाही के रूप में होती रही है और शायद इसीलिए विधानसभा में अपनी ही सरकार के खिलाफ झंडा बुलंद करने के बावजूद उन्हें पार्टी स्तर से कभी चेतावनी भी नहीं दी गयी। अब राजमहल संसदीय सीट पर निर्दलीय के रूप में उतर कर लोबिन ने सीधे-सीधे पार्टी को चुनौती दी है, तो इसका असर चुनाव परिणाम पर निश्चित तौर पर पड़ेगा। क्या है राजमहल संसदीय सीट का परिदृश्य और क्या हैं संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड में झामुमो के गढ़ के रूप में प्रसिद्ध संथाल परगना का राजमहल संसदीय सीट पूरे देश की तरह चुनावी बुखार में तप रहा है। राजमहल में झामुमो की किलेबंदी को इसी बात से समझा जा सकता है कि 2014 और 2019 में मोदी लहर के बावजूद भाजपा इस सीट को नहीं जीत सकी थी। लेकिन इस बार इस किले में दरार साफ देखी जा सकती है। इस ‘दरार’ का नाम है लोबिन हेंब्रम, जिनके बागी तेवर ने झामुमो प्रत्याशी विजय हांसदा के रास्ते में बड़ा रोड़ा खड़ा कर दिया है। लोबिन हेंब्रम बोरियो से झामुमो के टिकट पर विधायक चुने गये, लेकिन इस बार बागी तेवर अपनाते हुए वह निर्दलीय ही मैदान में उतर गये। इस कारण झामुमो और भाजपा के बीच होनेवाला सीधा मुकाबला अब त्रिकोणीय हो गया है।

हमेशा बागी तेवर रहा है लोबिन हेंब्रम का
लोबिन हेंब्रम झारखंड की सियासत में अपने बागी स्वर और जल-जंगल और जमीन के साथ झारखंडी अस्मिता के सवाल पर अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। वह अब अपने राजनीतिक जीवन के उस मुकाम पर पहुंच गये हैं, जहां से पीछे लौटना लगभग असंभव है। लोबिन का यह अंदाज कोई नया नहीं है। इसके पहले भी वर्ष 1995 में वह झामुमो के अधिकृत उम्मीदवार को सियासी मैदान में धूल चटा चुके हैं। लोबिन का सिर्फ स्वर ही बागी नहीं है, चुनावी अखाड़े की रणनीतियां भी जुदा होती है। मीडिया की बजाय लोबिन का हथियार परंपरागत प्रचार-प्रसार का माध्यम होता है। हाट-बाजार में आम लोगों के साथ संवाद का अचूक हथियार होता है। वह किसी भी दरवाजे पर बैठ कर उसकी भाषा-भाखा में राजनीति की तमाम गुत्थियों को अलग अंदाज में समझा सकते हैं और खास बात यह है कि जमीनी मुद्दों की उनकी समझ है, जो मुद्दे और विमर्श अखबारों में सुर्खियां बटोर रहे होते हैं, उससे दूर वह अपने मतदाताओं के साथ उनकी जिंदगी से जुड़े मसलों की बात करते हैं। खेत और खलिहान का हाल पूछते हैं, कौन सा बेटा किस शहर में काम कर रहा है और बेटी की शादी में क्या बाधा है, यही जनसंपर्क का विषय होता है और इस सबके बीच वह यह बताना भी नहीं भूलते कि दिशोम गुरु का जो सपना था, जिस झारखंड के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी खपायी, आज वह तार-तार होने के कगार है। और इसका कारण पार्टी के अंदर गैर-झारखंडी चेहरों की बढ़ती सियासी पकड़ है। लोबिन कहते हैं कि वह तो आज भी झामुमो के सबसे सच्चे सिपाही हैं, गुरुजी के वफादार योद्धा हैं। यह तो पार्टी है, जो गुरुजी के सिंद्धातों से भटकती नजर आ रही है। उनकी लड़ाई तो पार्टी को उसके असली मुद्दे पर लाकर खड़ा करने की है।

कैसा चल रहा है चुनाव प्रचार
राजमहल के सियासी अखाड़े में उतरने के बाद लोबिन गांवों के हाट-बाजारों में छोटे-छोटे समूहों के साथ संपर्क साधते दिख रहे हैं। दूसरी तरफ विजय हांसदा
प्रचार की इस रणनीति में फिलहाल पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं। भाजपा के ताला मरांडी का फोकस इस समय शहरी इलाकों पर है। इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि लोबिन की चुनौती कितनी गंभीर होने वाली है। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वर्ष 2019 के मुकाबले में झामुमो ने कुल 49 फीसदी मतों के साथ इस सीट को अपने नाम किया था, जबकि भाजपा के हिस्से महज 39 फीसदी वोट आया था, जबकि 2014 में भाजपा और झामुमो के बीच कुल चार फीसदी मतों का अंतर था। यानि 2014 के बाद 2019 में झामुमो के वोटों में कुल छह फीसदी का इजाफा हुआ है, जो झामुमो की मजबूत पकड़ को प्रदर्शित करता है। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा होता है कि यदि अपने सीमित संसाधन और देशज प्रचार के साथ लोबिन 10 फीसदी मतों में भी सेंधमारी में सफल होते हैं, तो उसके बाद सियासी तस्वीर क्या होगी।

लोबिन के ब्रह्मास्त्र में उलझा झामुमो
इधर पार्टी द्वारा निकाले जाने के बाद लोबिन हेंब्रम ने ऐसा ब्रह्मास्त्र चला है, जिसमें झामुमो बुरी तरह उलझ गया है। लोबिन ने खुद को शिबू सोरेन का वारिस घोषित करते हुए दिशोम गुरु पर अपना दावा भी ठोक दिया। अपने चिर-परिचित अंदाज में लोबिन ने कहा कि किसी की हैसियत नहीं है कि वह गुरुजी से हमको अलग कर सके। हमारी पूरी लड़ाई ही गुरुजी के आदर्शों को स्थापित करने की है। जिस जल, जंगल और जमीन की लड़ाई का दिशोम गुरु ने सिंहनाद किया था, आदिवासी-मूलवासी अस्मिता की जो हुंकार लगायी थी, हमारी पूरी लड़ाई दिशोम गुरु के उस सपनों को स्थापित करने की है, हम कल भी झामुमो के साथ थे, आज भी झामुमो के साथ ही हैं। हमारी जीत झामुमो की जीत है।

क्या है इस दांव के मायने
दरअसल सियासी जानकारों का दावा है कि राजमहल के किले में लोबिन ने दावा तो जरूर ठोक दिया है, लेकिन यह राह इतनी आसान नहीं है। संथाल की सियासत पर नजर रखने वाला हर शख्स यह जानता है कि आदिवासी-मूलवासी समाज में दिशोम गुरु की क्या छवि है। गुरुजी उनके लिए कोई सियासी नेता भर नहीं हैं, बल्कि उनकी पहचान हैं। और सवाल जब पहचान पर खड़ा होता है, तब सारे दूसरे मुद्दे दरकिनार हो जाते हैं। गुरुजी की इस छवि की फसल झामुमो आज तक काटता रहा है, भले ही बदले हालात में उसकी छवि को धक्का लगा है। लेकिन यह सच है कि इससे आदिवासी-मूलवासी समाज में गुरुजी की प्रतिष्ठा में क्षरण नहीं हुआ। आज भी उनका नाम संथाल में एक हद तक जीत की गांरटी है और लोबिन हेंब्रम इस तल्ख हकीकत से पूरी तरह वाकिफ हैं। और यही कारण है कि लोबिन अपने को गुरुजी का सच्चा वारिस बता कर आदिवासी-मूलवासी समाज में अपनी स्वीकार्यता को बचाये रखना चाहते हैं। लोबिन को पता है कि यदि इस संघर्ष को त्रिकोणीय बनाना है, तो इसके लिए गुरुजी की कृपा दृष्टि भले ही नहीं मिले, लेकिन कम से कम विरोधी या गद्दार का टैग भी नहीं लगे।

भाजपा की राह हो रही आसान
राजमहल सीट से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया है। झारखंड की यह सीट भाजपा के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण सीट मानी जा रही है। पिछली बार भाजपा ने हेमलाल मुर्मू को अपना उम्मीदवार बनाया था, लेकिन उन्हें विजय हांसदा से करारी हार का सामना करना पड़ा था। अब हेमलाल मुर्मू झामुमो में शामिल हो गये हैं। इसके बाद विजय हांसदा को चुनौती देने के लिए भाजपा ने ताला मरांडी को चुना है। इस बार मुकाबला ताला मरांडी और विजय हांसदा के बीच होना तय था, लेकिन लोबिन हेंब्रम ने इसे त्रिकोणीय बना दिया है। इस स्थिति में भाजपा के लिए राह आसान होती दिख रही है, क्योंकि गुरुजी खराब स्वास्थ्य के कारण राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो रहे हैं। इसके अलावा झामुमो के दूसरे सबसे बड़े नेता हेमंत सोरेन जेल में हैं। वह चुनाव प्रचार ही नहीं, राजनीतिक गतिविधियों के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में भाजपा खुद को आसान स्थिति में पा रही है। अब राजमहल पर किसका कब्जा होगा, यह तो 4 जून को ही पता चल सकेगा।

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