विशेष
हर राजनीतिक दल के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं ये तीन अलग-अलग मुद्दे
लेकिन यह विडंबना ही है कि किसी भी पार्टी का रुख नहीं रहा है साफ
झारखंड की जनता को अब अपने रहनुमाओं के अगले कदम का है इंतजार

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड की राजनीति जमीन पर इन दिनों तीन मुद्दों की फसल खूब लहलहा रही है है। ये मुद्दे हैं सरना धर्म कोड, पेसा कानून और जातीय जनगणना। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो राज्य की राजनीति इन तीन संवेदनशील मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही है। सत्तारूढ़ गठबंधन जहां सरना धर्म कोड को लेकर सड़क से सदन तक आक्रामक मुद्रा में हैं, वहीं भाजपा ने पेसा कानून के सहारे सत्ताधारी गठबंधन पर निशाना साध लिया है। हालांकि इन मुद्दों पर तीनों ही प्रमुख दलों का अतीत संदेहों से भरा रहा है, जिससे आदिवासी समाज के वास्तविक हित सवालों के घेरे में आ गये हैं। वैसे तो सरना धर्म कोड का मुद्दा झारखंड में लंबे समय से चल रहा है, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने जब से जातीय जनगणना कराने की घोषणा की है, तब से झारखंड में सरना धर्म कोड का मुद्दा जोर पकड़ चुका है। इसके जवाब में आदिवासी स्वशासन का मुद्दा, यानी पेसा कानून के बारे में भी बात होने लगी है। इन तीनों मुद्दों की सबसे खास बात यह है कि इनको लेकर किसी भी राजनीतिक दल का दृष्टिकोण पूरी तरह साफ नहीं है। जातीय जनगणना की घोषणा के बाद जिस तरह सरना और फिर उसके जवाब में पेसा कानून का मुद्दा उठाया गया है, झारखंड के लोग समझ गये हैं कि ये केवल राजनीतिक दलों की नूरा-कुश्ती है और सियासी उद्देश्य हासिल करने के लिए ही इन मुद्दों को हवा दी जा रही है। क्या हैं ये तीन मुद्दे और झारखंड की सियासत में इन तीनों का क्या है महत्व, इन सवालों के जवाब के साथ क्या है इन पर प्रमुख राजनीतिक दलों का स्टैंड, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

केंद्र की मोदी सरकार ने जबसे देश में जातीय जनगणना कराने की घोषणा की है, उन इलाकों की सियासत में अचानक एक उफान सा आ गया है, जो पारंपरिक राजनीति को केंद्र में रखते हैं। जातीय जनगणना का मुद्दा कांग्रेस से छीनने के बाद स्वाभाविक तौर पर भाजपा इस पर अधिक आक्रामक हो गयी है, इसलिए उसे जवाब देने की जरूरत खास कर कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को थी। इन दोनों ही पैमानों, यानी पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था और भाजपा विरोध की राजनीति के लिए झारखंड सबसे उपयुक्त राज्य है। सो यहां जातीय जनगणना की घोषणा के बाद सरना धर्म कोड का मुद्दा आया और फिर उसके जवाब में पेसा का मुद्दा उठाया जा रहा है।
दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो झारखंड की राजनीति में सरना धर्म कोड, पेसा कानून और जातीय जनगणना के मुद्दे आज न केवल आदिवासी अस्मिता, बल्कि दलों की सियासी जमीन का सवाल बन चुके हैं। लेकिन इन मुद्दों के बीच यह सवाल भी बार-बार उठता है कि क्या राजनीतिक दल वाकई आदिवासी हितों के प्रति गंभीर हैं या ये केवल सियासी मोहरे हैं।

जातीय जनगणना और सुरक्षित सीटों का गणित
बात शुरू करते हैं जातीय जनगणना से। केंद्र की मोदी सरकार ने देश में अगले साल जातीय जनगणना कराने की घोषणा की है। इसके बाद से ही झारखंड की सियासत में इसको लेकर बयानबाजी शुरू हो गयी। सत्तारूढ़ गठबंधन झारखंड में जातीय जनगणना को आदिवासी हितों के खिलाफ बता रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस बार जनगणना में आदिवासियों की घटती संख्या की आशंका जतायी जा रही है, जिससे विधानसभा और लोकसभा की सुरक्षित सीटों की संख्या में बदलाव संभावित है। जानकारों का मानना है कि झामुमो इस मुद्दे को दबाने के लिए सरना धर्म कोड को हवा दे रहा है, ताकि जनसंख्या में गिरावट से उपजे असंतोष को रोका जा सके। वहीं भाजपा ने यह मुद्दा उठाकर यह संकेत दिया है कि वह आने वाले समय में आरक्षण, सीटों के पुन: निर्धारण और राजनीतिक समीकरणों को लेकर आक्रामक रणनीति अपनायेगी।

सरना धर्म कोड: राजनीति की नयी जमीन
सरना धर्म कोड की मांग आदिवासी समाज की धार्मिक पहचान को मान्यता देने की पुरानी मांग रही है, लेकिन अब यह झारखंड की राजनीति में तूफान बन चुकी है। झामुमो और कांग्रेस ने इसे प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बना लिया है और लगातार धरना-प्रदर्शन से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा भी पीछे नहीं है। पार्टी ने इसे ‘वोट बैंक की राजनीति’ करार देते हुए विपक्ष को कठघरे में खड़ा किया है। लेकिन इतिहास बताता है कि इन दलों का अतीत उनके आज के दावों से मेल नहीं खाता। कांग्रेस पर आरोप है कि आजादी के बाद 1961 की जनगणना से आदिवासियों के लिए अलग कॉलम हटा दिया गया, जबकि 1951 तक यह कॉलम मौजूद था। वहीं झामुमो भी तब चुप्पी साधे रहा, जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। अब भाजपा की सरकार आने पर यह मुद्दा गर्मा गया है। भाजपा की विचारधारा भी सरना धर्म को एक स्वतंत्र धर्म मानने की जगह उसे हिंदू धर्म का हिस्सा मानती रही है।

पेसा पर नयी चालें
पेसा कानून, जो आदिवासी क्षेत्रों में परंपरागत स्वशासन को मान्यता देने वाला महत्वपूर्ण कानून है, अब भाजपा के लिए आदिवासी समुदाय में अपनी पैठ बनाने का माध्यम बन गया है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने मौजूदा सरकार पर पेसा नियमावली लागू नहीं करने का आरोप लगाया है। भाजपा का कहना है कि सरकार जानबूझ कर नियमावली को लटका रही है, ताकि ग्रामीण इलाकों में आदिवासी समुदाय का सशक्तिकरण न हो सके। वहीं विपक्षी खेमा इसे राजनीतिक स्टंट बता रहा है और भाजपा की नीयत पर सवाल उठा रहा है।

क्या है इन मुद्दों पर दलों का स्टैंड
कांग्रेस पर आरोप है कि आजादी के बाद उसने जनगणना में आदिवासियों के लिए बने सरना कॉलम को हटा दिया। 1951 तक आदिवासियों के लिए जनगणना में कॉलम था। बीच-बीच में कार्तिक उरांव सरीखे नेताओं ने आदिवासियों के लिए अलग कॉलम की मांग की। कांग्रेस दशकों देश की सत्ता पर काबिज रही, लेकिन जनगणना में आदिवासियों के लिए कोई कॉलम का प्रावधान नहीं किया गया। आदिवासियों की अलग पहचान को कायम नहीं होने दिया। भाजपा तो शुरू से ही आदिवासियों को हिंदू धर्म का ही एक पंथ मानती रही है। आरएसएस इसके लिए काफी सिद्दत से काम करता रहा है। बात झामुमो की आती है तो उसका भी सरना धर्म कोड के मुद्दे पर दामन दागदार ही रहा। झामुमो ने कभी सरना धर्म कोड के मुद्दे को उस तरह मुद्दा नहीं बनाया, जब जब केंद्र में यूपीए या कांग्रेस की सरकार रही। लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार के होने के पर सरना धर्म कोड के मसले को वह हवा दे रहा है।

दूसरे मुद्दों पर क्या है दलों का रुख
जहां तक जातीय जनगणना और पेसा का सवाल है, तो इन मुद्दों पर भी दलों की अलग-अलग डफली और अलग-अलग राग है। भाजपा ने अब इस मुद्दे को जोर से पकड़ा है। उसने वर्तमान सरकार पर पेसा लागू नहीं कर आदिवासी विरोधी होने का आरोप लगाया है। पेसा के मुद्दे पर भाजपा अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासी, मुसलिम और इसाइ के गठजोड़ को समाप्त करना चाहती है। झामुमो के इस संगठित वोट बैंक में दरार पैदा करना चाहती है। भाजपा का तर्क है कि पेसा आदिवासी हितों के लिए संसद से बनाया गया कानून है। इस कानून के माध्यम से आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति और परंपरागत स्वशासन व्यवस्था को मजबूती दी गयी है। लेकिन राज्य सरकार इसे लंबित रख कर ग्रामीण इलाकों में आदिवासियों को मजबूत होने नहीं देना चाहती है।
राजनीतिक दलों के बीच इन तीन संवेदनशील मुद्दों को लेकर चल रहे विवाद के बीच झारखंड की जनता के सवाल कहीं नेपथ्य में चले गये हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो और उसकी सहयोगी कांग्रेस इस समय सरना धर्म कोड को लेकर जिस तरह उत्साहित है, उससे आदिवासियों के बीच उम्मीद की किरण जगी है। लेकिन जातीय जनगणना होने तक बाकी दोनों मुद्दों की नूरा-कुश्ती से झारखंड के आदिवासियों को क्या हासिल होगा, यह अभी वक्त के गर्भ में है।

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